आज हमारे युवा क्रान्तिकारियों के जन्मदिवस या बलिदान दिवस पर ‘सोशल नेटवर्किंग साइट्स’ पर फोटो तो शेयर कर देते हैं, लेकिन इस युवा आबादी में ज्यादातर को भारत की क्रान्तिकारी विरासत का या तो ज्ञान ही नहीं है या फिर अधकचरा ज्ञान है। ऐसे में सामाजिक बदलाव में लगे पत्र-पत्रिकाओं की जिम्मेदारी बनती है कि आज की युवा आबादी को गौरवशाली क्रान्तिकारी विरासत से परिचित करायें, ताकि आने वाले समय के जनसंघर्षों में जनता अपने सच्चे जन-नायकों से प्ररेणा ले सकें।
आज युवाओं के बड़े हिस्से तक तो शिक्षा की पहुँच ही नहीं है। और जिन तक पहुँच है भी तो उनका काफी बड़ा हिस्सा कैरियर बनाने की अंधी दौड़ में ही लगा है। एक विद्वान ने कहा था कि इस दौड़ की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इस दौड़ में अंत तक इंसान की तरह जीने की लगन और हिम्मत व्यक्ति में पैदा ही नहीं होती और जीवन को जीने की बजाय अपना सारा जीवन, जीवन जीने की तैयारियों में लगा देता है।
यह कथा एक ऐसी क्रान्तिकारी की जिसने आजादी के लिए चल रहे संघर्ष में बेहद कम उम्र में अद्भुत कुर्बानी दी। प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई, 1911 को चटगाँव में हुआ था। उनके पिता जगतबन्धु जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय में बड़े बाबू थे और माँ प्रतिभामयी ‘महिला जागरण’ के काम में लगी थीं। प्रीतिलता वादेदार बहुत ही प्रतिभाशाली युवती थीं। 1930 में उन्होंने ढाका कॉलेज से 12वीं पास की और पूरे कालेज में प्रथम आयीं। स्कूली जीवन में ही वे बालचर-संस्था की सदस्य हो गयी थीं। वहाँ उन्होंने सेवाभाव और अनुशासन का पाठ पढ़ा।
बालचर संस्था में सदस्यों को ब्रिटिश सम्राट के प्रति एकनिष्ठ रहने की शपथ लेनी होती थी। संस्था का यह नियम प्रीतिलता को खटकता था। उनके मन में बगावत का बीज यहीं से पनपा था। देश में किसानों-मजदूरों की दुर्दशा और उन पर अँग्रेजों द्वारा बर्बर शोषण, उत्पीड़न देखकर प्रीतिलता के मन में तूफान उठा और उन्होंने अपनी प्रतिभा और योग्यता का उपयोग अपना कैरियर बनाने पर नहीं बल्कि वीरता से क्रान्तिकारी पथ पर चलने और जनता की सेवा के लिए करना उचित समझा। वह मास्टर सूर्यसेन के सम्पर्क में आयीं। मास्टर सूर्यसेन बंगाल के अग्रणी क्रान्तिकारी थे। वे 1930 में हुए चटगाँव (वर्तमान बंग्लादेश) शस्त्रागार काण्ड के नेता थे। उनके छापामार दल में अनेक युवा क्रान्तिकारी शामिल थे।
मास्टर सूर्यसेन और उनका छापामार दल अँग्रेजों पर हमले करके उनमें आंतक बैठाना चाहता था और भारत के युवाओं को क्रान्ति के लिए जगाना चाहता था। सूर्यसेन के पीछे पुलिस हाथ-धोकर पड़ी थी वह खुद छिपते-छिपाते, भागा- दौड़ी में ही रहते थे। उनसे मिलना एक जोखिम भरा काम था, लेकिन प्रीतिलता भेष बदलकर उनसे मिलने जातीं और निर्देशों को संगठन में लागू करवाती थीं। प्रीतिलता ने कॉलेज खत्म होने के बाद आर्थिक किल्लत के कारण अध्यापिका की नौकरी भी की और एक विदुषी शिक्षिका के रूप में देखी जाने लगीं। अध्यापन कार्य से होने वाली आमदनी का बड़ा हिस्सा वह क्रान्तिकारियों के बीच खर्च कर देती थीं। 12 जून 1932 को सूर्यसेन अपने साथियों के साथ गुप्त योजना बना रहे थे कि पुलिस ने उन्हें आ घेरा। दोनों तरफ से गोलीबारी शुरू हो गयी। जिसमें पुलिस कप्तान अंग्रेज कैमरान मारा गया, कई क्रान्तिकारी भी शहीद हुए लेकिन मास्टर सूर्यसेन और प्रीतिलता भागने में सफल हो गये। इसके बाद से प्रीतिलता पुलिस की निगाह में चढ़ गयीं। पुलिस ने प्रीतिलता की सूचना देने वाले को मुँहमाँगा ईनाम देने की घोषणा कर दी।
यह खबर उनकी फोटो के साथ अखबारों में छपी तब जाकर उनके माता-पिता को उनके क्रान्तिकारी होने का पता चला। इस घटना के बाद प्रीतिलता का कद क्रान्तिकारियों के बीच बहुत बढ़ गया। मास्टर सूर्यसेन को अपनी युवा महिला साथी की बहादुरी पर गर्व था। वे जान चुके थे कि प्रीतिलता अपना जीवन देश को समर्पित कर चुकी हैं। वह धुन की पक्की थीं और उनका ध्यान सदा अपने उद्देश्य पर रहता था। वह एक मजबूत और चतुर कमाण्डर साबित हुईं। चटगाँव में यूरोपियन क्लब था। वहाँ अँग्रेज अफसर शाम को नाच-गाना और मनोरंजन के लिए आया करते थे। सूर्यसेन ने इस क्लब को तहस-नहस करने की योजना बनायी। क्योंकि क्रान्तिकारियों को आश्रय देने वाली एक महिला को अँग्रेजों ने अपना निशाना बनाया था। प्रीतिलता को हमले का नेतृत्व सौंपा गया। उन्होंने सैनिक वेशभूषा धारण की और खुद को पिस्तौल तथा बम से लैस किया। प्रीतिलता और सूर्यसेन को पता था कि मुकाबला कड़ा होगा।
अँग्रेज भी क्रान्तिकारियों पर भारी पड़ सकते हैं। वे प्रीतिलता को पकड़कर उनसे संगठन का राज उगलवाने की कोशिश कर सकते हैं। प्रीतिलता ने अपने साथ जहर की एक पुड़िया भी रख ली थी। पुलिस से घिर जाने पर उसने जहर खाकर जान देने की ठान ली थी। प्रीतिलता के साथ महेन्द्र चौधरी, सुशीला डे, प्रफुल्ल दास, प्रभात बल, मनोरंजन सेन जैसे क्रान्तिनायक थे। इसके अलावा पैंसठ युवक और युवतियाँ भी क्रान्तिदल में शामिल थे। योजना के अनुसार प्रीतिलता ने अपने लोगों के साथ 23 सितंबर 1932 को यूरोपियन क्लब पर आक्रमण कर दिया। हमले में दर्जन भर अँग्रेज अधिकारी घायल हुए। एक महिला के मारे जाने की भी खबर मिली।
प्रीतिलता ने बहादुरी के साथ हमला किया। हमला इतना घातक था कि किसी को सँभलने का अवसर नहीं मिला। प्रीतिलता का सारा ध्यान अपने लक्ष्य पर था। वह एक कमाण्डर की तरह व्यवहार कर रही थीं। अँग्रेज पुलिस और क्रान्तिकारियों के बीच घण्टों तक गोलियाँ चलीं। आखिरकार क्रान्तिकारियों की गोलियाँ खत्म हो गयीं। अब अँग्रेज सिपाहियों ने उन्हें धराशायी करना शुरू कर दिया। देखते ही देखते क्रान्तिकारियों की लाशें बिछने लगीं। प्रीतिलता को भी पुलिस ने घेर लिया। प्रीतिलता को समझते देर न लगी कि अब बचकर निकल पाना नामुमकिन है। फिर क्या था, उन्होंने तुरन्त जहर मुँह में डाल लिया, ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ का उद्घोष किया और हमेशा के लिए धरती की गोद में सो गयीं। प्रीतिलता के बलिदान के बाद अँग्रेज अधिकारियों को तलाशी लेने पर मिले पत्र में लिखा था कि, ‘‘चटगाँव शस्त्रागार काण्ड के बाद जो मार्ग अपनाया जायेगा, वह भावी विद्रोह का प्राथमिक रूप होगा। यह संघर्ष भारत को पूरी स्वतंत्रता मिलने तक जारी रहेगा।’’