एक बार महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में एक चित्रकार आया। उसके बनाए चित्र देख सब वाह-वाह कर उठे।
चित्रकार ने महाराज का चित्र बनाया। उसे देख महाराज बहुत खुश हुए। उसने महाराज से राजमहल का चित्र बनाने की आज्ञा भी ले ली। बेरोक-टोक वह हर जगह आने-जाने लगा। जल्दी ही महल का सुंदर चित्र तैयार हो गया।
महाराज को चित्र देकर चित्रकार ने वापस जाने की आज्ञा मांगी। महाराज ने कहा, ‘‘जाने से पहले हम तुम्हारा सम्मान करना चाहते हैं। इसलिए एक-दो दिन और रुक जाओ।’’
सम्मान से एक दिन पहले पता चला कि चित्रकार का सामान चोरी हो गया है। अगले दिन सेनापति ने महाराज को बताया कि सामान मिल गया है।
महाराज ने पूछा, ‘‘सामान कहां है? चोर कौन है?’’
‘‘महाराज, यह बात तेनालीराम ही बताएंगे।’’ सेनापति ने जवाब दिया। महाराज ने आश्चर्य से तेनालीराम की ओर देखा।
तेनालीराम हाथ जोड़कर बोला, ‘‘महाराज, सामान यह है। दोषी मैं हूं।’’
दरबार में खुसुर-फुसुर होने लगी, ‘तेनालीराम ने अतिथि का अपमान किया है।’
तब तेनालीराम बोला, ‘‘महाराज, यह चित्रकार नहीं, शत्रु का जासूस है। महल का चित्र बनाते-बनाते इसने सभी गुप्त रास्तों का नक्शा भी बना लिया है। मुझे इस पर प्रारम्भ से ही संदेह था, इसीलिए मैंने इसका सामान उठवा लिया। आपसे सम्मान प्राप्त कर यह तो यहां से चला जाता, साथ में हमारे महत्वपूर्ण भेद भी शत्रु के पास चले जाते।’’
महाराज ने चित्रकार को कारागार में डलवा दिया। उसके स्थान पर तेनालीराम का सम्मान किया गया।’
रमेश पंवार