वे तिरुवनंतपुरम् में कल्लार के जंगलों के बीच एक आदिवासी गाँव में ताड़ के पत्तों की छत वाली एक छोटी सी कुटिया में रहती हैं। 75 वर्ष की उम्र की लक्ष्मी कुट्टी एक ऐसी आदिवासी महिला हैं, जो विष उतारने वाली वैद्या होने के साथ साथ ‘केरल फ़ोक्लॉर अकादमी’ में शिक्षिका और एक कवयित्री भी हैं।
उनकी छोटी सी कुटिया के आसपास विभिन्न जड़ी बूटियाँ लगी हुई हैं। दूर दूर से सैकड़ों लोग लक्ष्मी कुट्टी से वन औषधियों द्वारा विष उतरवाने के लिए पहुँचते हैं। लेकिन उनकी उपचार की विधि औषधियों तक सीमित नहीं है। वे रोगी के साथ घंटों तक प्यार और विनम्रता के साथ बातें करते हैं, जिसका इलाज में अपना योगदान होता है।
उन्हें यह सारा ज्ञान अपनी माँ से मिला जो गाँव में एक प्रसाविका (दाई) का काम करती थी। क्यूँकि लक्ष्मी कुट्टी और उनकी माँ दोनों ने ही कभी इस ज्ञान को लिखित में नहीं उतारा, केरल वन विभाग ने उनके ज्ञान पर आधारित एक किताब संकलित करने का निर्णय लिया है।
‘‘अपनी स्मरण शक्ति से ही मैं 500 औषधियाँ तैयार कर सकती हूँ। आज तक उन्हें भूली नहीं हूँ। लेकिन यहाँ उपचार के लिए आने वाले लोगों में से अधिकतर लोग सांप या कीड़ों-मकोड़ों द्वारा काटे जाने पर यहाँ आते हैं,’’ उन्होंने कहा। वे बताती हैं कि उनका यह सपना है के एक दिन उनकी यह कुटिया एक छोटा सा अस्पताल बने जहाँ लोग लम्बे समय की चिकित्सा के लिए आएँ।
बहुत से लोग उन्हें प्यार से वनमुतशी बुलाते हैं (जिसका मलयालम में अर्थ है- जंगल की बड़ी माँ) लेकिन उनका योगदान इस भूमिका तक सीमित नहीं है। उन्होंने दक्षिण भारत की कई संस्थाओं में प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में भाषण दिए हैं।
‘‘मैंने जंगल से बाहर कई क्षेत्रों में यात्रा की है। बहुत से लोगों से मिली हूँ। लेकिन यही मेरा घर है। यही मेरा धरोहर है।’’
जंगल से बाहर वालों का ध्यान 1995 में आकर्षित किया जब उन्हें केरल सरकार की तरफ़ से नेचुरोपेथी के लिए ‘नाटु वैद्या रत्न’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘‘उससे पहले मुझसे मिलने सिर्फ़ वही लोग आते थे जिन्हें मेरे बारे में मेरे पिछले मरीज़ों ने बताया हो। 1995 से पहले भी मुझे मिलने दूर दूर से लोग आते थे लेकिन पुरस्कार मिलने के बाद संख्या काफ़ी बढ़ गयी’’, उन्होंने याद करते हुए बताया। उस समय से अब तक उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। हाल ही में उन्हें भारतीय जैव विविधता काँग्रेस द्वारा 2016 में सम्मानित किया गया है।
यह उनकी दृढ़ता ही थी जिसने उन्हें 1950 के दशक में अपने इलाक़े से स्कूल जाने वाली एकमात्र आदिवासी लड़की बनाया। ‘‘मैं अभी भी यह सोच कर हैरान होती हूँ कि मैं कैसे यह कर पाई। मैंने यह हठ पकड़ ली थी कि स्कूल तो जाना ही है। आखि़रकार पिताजी को मेरी बात माननी पड़ी’’, उन्होंने हँसते हुए बताया। अपने गाँव के दो और लड़कों के साथ लक्ष्मी कुट्टी हर रोज़ दस किलोमीटर चल कर स्कूल जाती थी। लेकिन वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ पाईं क्यूँकि उस विद्यालय में आगे की शिक्षा का प्रबंध नहीं था।
उनमें से एक लड़का मथन कानी था। उन दोनों के बीच एक गहरी दोस्ती बनी, जिसने बाद में शादी का रूप लिया। ‘‘मेरे हर निर्णय और सफलता में उसने मेरा साथ दिया। वह कहता था कि मैं एक मज़बूत महिला हूँ और उसके बिना भी अपने हर लक्ष्य को पा सकती हूँ। सोलह साल की उम्र में मेरी शादी से लेकर पिछले साल अपने देहांत तक वह एक सर्वोत्तम साथी था।’’ उन्होंने याद करते हुए बताया।
पति-पत्नी ने अपने बच्चों को अच्छी स्कूली शिक्षा प्रदान की। ताकि उनके बच्चों को उन चुनौतियों से गुज़रना न पड़े जिनका सामना उन्हें ख़ुद करना पड़ा था, ‘‘यह मेरी ज़िद्द थी के मेरे बच्चे पढ़ें। मेरे गाँव में शिक्षा पाना आसान नहीं है। मैं शिक्षा को बहुमूल्य समझती हूँ।’’
लेकिन लक्ष्मी कुट्टी के परिवार को एक त्रासदी का सामना करना पड़ा। ‘‘मेरे जीवन में सबसे शोकपूर्ण घटना मेरे बड़े बेटे की मृत्यु थी। उसे एक जंगली हाथी ने मार डाला था।’’ उन्होंने अपने छोटे पुत्र को भी एक दुर्घटना में खोया।
उनका एक और बेटा है जो रेल्वे में प्रमुख टिकट जाँच-अधिकारी का काम करता है।
लेकिन प्राकृतिक चिकित्सा से परे, लक्ष्मी कुट्टी अपनी व्यंग्य भरी कविताओं और लेखन के लिए भी जानी जाती है। उन्होंने आदिवासी संस्कृति और जंगल के वर्णन जैसे अलग अलग विषयों पर कई लेख लिखे हैं जिन्हें डी. सी. बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है। उनकी कविताएँ एक ताल पर सुनाई जा सकती हैं। ‘‘इनकी शब्दावली सरल है, जिसे कोई भी गा सकता है। मैंने इन्हें आदिवासी भाषा में नहीं लिखा है’’ उन्होंने मुस्कराते हुए बताया।
अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद वे आग्रह करतीं हैं, ‘‘बाहर की दुनिया ने मुझे कई सम्मान दिए, पुरस्कार दिए, किताबें प्रकाशित कीं। लेकिन मैं यहीं रहना चाहती हूँ। जंगल में रहने के लिए हिम्मत चाहिए।’’
One Comment
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