तेरह सौ गाँवों को पानीदार बनाने की कोशिश
45-48 डिग्री तापमान में उस उजाड़ इलाके में लू के सनसनाते थपेड़े और तेज धूप में जहाँ पखेरू भी पेड़ों की छाँह में सुस्ताने लगते हैं, ऐसे में एक आदमी अपने जुनून की जिद में गाँव-गाँव सूखे तालाबों को गहरा करवाने, नए तालाब बनाने और जंगलों को सुरक्षित करने की फ़िक्र लिए घूम रहा हो तो इस जज्बे को सलाम करने की इच्छा होना स्वाभाविक ही है।
बात मध्य प्रदेश के झाबुआ आदिवासी इलाके में करीब तेरह सौ गाँवों को पानी और पर्यावरण संपन्न बनाने में जुटे सामाजिक कार्यकर्ता महेश शर्मा की है। वे यूँ तो बीते चालीस सालों से समाज को समृद्ध बनाने के लिये स्वस्थ पर्यावरण की पैरवी करते हुए काम करते रहे हैं लेकिन बीते दस सालों से उन्होंने अपना पूरा फोकस आदिवासी गाँवों पर ही कर दिया है। इस बीच उन्होंने आदिवासियों की अल्पज्ञात परम्परा हलमा को पुनर्जीवित किया तथा पंद्रह हजार से ज़्यादा आदिवासियों के साथ मिलकर खुद श्रमदान करते हुए झाबुआ शहर के पास वीरान हो चुकी हाथीपावा पहाड़ी पर पचास हजार से ज़्यादा कंटूर ट्रेंच (खंतियाँ) खोद कर साल दर साल इसे बढ़ाते हुए पहाड़ी को अब हरियाली का बाना ओढ़ा दिया है।
आदिवासी समाज को पानी की महत्ता के प्रति जागरूक कर उन्होंने सामूहिक श्रमदान से बिना किसी बड़े बजट इलाके में कई तालाब बनवाए हैं। दर्जनभर जंगली इलाकों को सुरक्षित कर उनमें लकड़ी कटाई पर पूरी तरह पाबंदी लगाई है। बड़ी जल यात्राएँ निकालकर लोगों से बारिश का पानी रोकने का आह्वान किया। मवेशियों सहित जंगली जानवरों के लिये पानी-पर्यावरण की चिंता सहित उनके किए गए कामों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। इन गर्मियों में वे आदिवासी गाँवों में 11 नये तालाब, छह जंगल सुरक्षित करने सहित अगली बारिश का बूँददृबूँद पानी धरती में रोकने की जिद में जुटे हैं।
सामाजिक सरोकारों के कारण ही उन्होंने महज बीस साल की उम्र में अपना घरदृबार छोड़ दिया था और तब से अब तक अविवाहित रहते हुए वे लगातार समाज के लिये काम कर रहे हैं। वे बताते हैं कि मध्यप्रदेश के दतिया से करीब 24 किमी दूर बडौनी के पास घुगसी गाँव में जन्म के बाद 1976-77 में जब वे एमएलबी कॉलेज ग्वालियर से स्नातक कर रहे थे, इसी दौरान देश में आपातकाल घोषित हो गया। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश का बड़ा युवा
तबका संपूर्ण क्रांति से जुड़ गया। इसी दौरान हजारों कॉलेज विद्याथि्र्ायों के साथ उन्होंने भी देश और समाज के लिये सड़कों पर उतरकर आंदोलन प्रारम्भ किया। वे बताते हैं कि इस आंदोलन के बाद फिर घर नहीं लौटे। बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। वे 1997-98 में ग्वालियर से करीब 800 किमी दूर पश्चिमी मध्य प्रदेश के सीमावर्ती झाबुआ जिले में आदिवासियों के बीच काम करने पहुँचे।
झाबुआ मध्य प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में गिना जाता है। कभी यह इलाका दुर्गमता की वजह से काला पानी माना जाता था। जिन सरकारी अधिकारियों की यहाँ तैनाती होती, वे इसे काला पानी की सजा की तरह मानते थे। करीब 3, 782 वर्ग किमी में फैले इस जिले की ढ़ालू जमीन होने से बारिश का ज्यादातर पानी नदी नालों में बह जाता है। धरती प्यासी ही रह जाया करती है। यहाँ की औसत बारिश 800 मिलीमीटर है।
पानी के वैकल्पिक संसाधन नहीं होने से धरती का उजाड़ होना नियति बन चुका है। 2011 जनगणना के मुताबिक दस लाख 25 हजार आबादी में अधिकांश (करीब 87 फीसदी) ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी हैं। यहाँ साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम 44.45 फीसदी ही है, लेकिन महिलाओं को सम्मान देने तथा वधू मूल्य जैसी परम्पराओं की वजह से लिंगानुपात सर्वाधिक 989 है।
महेश शर्मा ने देखा कि गुजरात और राजस्थान से सटे इस इलाके में लाखों आदिवासी कड़ी मेहनत और कर्मठ प्रकृति के होने के बाद भी ठीक से दो समय का भोजन भी नहीं कर पाते हैं। यहाँ पानी की बहुत कमी होने से ऊसर और उजाड़ धरती है। यहाँ सूखे जैसे हालात होने से अधिकांश जमीन बिना खेती की ही है। जहाँ खेती होती है, वहाँ भी छोटीदृछोटी पहाड़ियों और मैदानों से घिरे होने से ज्यादातर किसान एक ही फसल ले पाते हैं। यहाँ कृषि जोतों का औसत आकार 1.6 हेक्टेयर ही है और महज 22.8 प्रतिशत क्षेत्र में ही सिंचित खेती हो पाती है।
आज़ादी की आधी सदी के बाद भी आदिवासियों की इस स्थिति ने उन्हें भीतर ही भीतर विचलित कर दिया। उन्हें लगा कि असली आज़ादी के मायने तभी पूरे हो सकेंगे, जब इन आदिवासी परिवारों के चेहरे पर उम्मीद और खुशियों की रौनक बिखेर सकेंगे। हैरत की बात थी कि जब वे ऐसा सोच-समझ रहे थे, तब उन्हें इनकी बोली की समझ भी नहीं थी। दरअसल इस इलाके में रहने वाले भील और भिलाला भीली और भिलाली बोली बोलते हैं। विकास की मुख्य धारा से कटे होने तथा सुदूर जंगलों में रहने के कारण ये लोग ठीक से हिन्दी में बात भी नहीं कर पाते। यहाँ तक कि कई आदिवासी तो अब तक भी हिन्दी नहीं समझ पाते हैं।
ऐसे इलाके में उनके लिये काम करना बहुत कठिन था लेकिन उन्होंने इसे चुनौती के रूप में लिया और बीते बीस सालों से लगातार यहाँ काम में जुटे हैं। उन्होंने गाँवों में काम करने के दौरान यह पाया कि आदिवासी गाँवों की निराशा में उम्मीद जगानी है तो सबसे पहले उन्हें पानीदार बनाना होगा। पानीदार बनाने के सिवा उन्हें समृद्ध बनाने की कल्पना भी बेमानी है। लेकिन यह काम बहुत मुश्किल था। ऐसा वातावरण था कि बिना स्वार्थ कोई भी समाज या प्रकृति के लिये अपनी तरफ से कोई काम करना ही नहीं चाहता था। सब हाथ पर हाथ धरे सरकारों से काम कराने के लिये गुहार लगा रहे थे पर आगे बढ़कर काम कौन करे।
उन्होंने इस बीच गाँवदृगाँव से करीब 20-25 ऐसे युवा छांटे, जिनकी पानी और पर्यावरण पर समझ साफ़ थी और उन्हीं के जरिए गाँव की ज़रूरतें निकाली। ये लोग उर्जा से भरे हुए थे और अपने गाँव की समृद्धि के लिये कुछ करना चाहते हैं। उन्होंने हर गाँव में जाकर ग्रामीणों से बात की और पता लगाया कि गाँव के दुःख क्या हैं। इससे पहले लोग अब तक व्यक्ति के दुःख की ही बात करते रहे थे। यह पहली बार था कि किसी ने उनके गाँव के हाल चाल पूछते हुए उसके दुःख मिटाने की बात की थी।
ज्यादातर गाँवों में बातचीत से यह बात सामने आई कि कहीं शिक्षा नहीं है, कहीं स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं हैं, कहीं कानून-व्यवस्था में खामियाँ है। पर्यावरण बिगड़ जाने और आदिवासी समाज के प्रकृति से कटते जाने के कारण ही दिक्कतें पेश आ रही हैं। बात हुई कि अब उतने सघन जंगल नहीं रहे। पानी की लगातार कमी होती जा रही है। परम्परागत अनाज उगाना कम हो गया। धरती में प्राकृतिक खाद की जगह रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल होने लगा। तालाब, नदियों और कुओं को समाज ने उपेक्षित कर दिया। इन सबमें मूल बात यही थी कि जीवन चक्र ही ठीक तरह से नहीं चल रहा है। पानी नहीं होने से ये सारी तकलीफें हमें बड़े रूप में दिखाई देती है। गाँवदृगाँव पानी के संसाधन हो, अच्छी खेती हो, लोगों को पानी मिले तो धीरेदृधीरे सब कुछ अच्छा हो सकता है। तो गाँव का सबसे बड़ा दुःख निकला पानी नहीं होना।
हर साल बारिश में पानी खूब आता है पर ढ़ालू सतह से नदी-नालों में बह जाता है, इसे रोकना ही होगा। हम इसे रोकने की कला जानते हैं पर रोकते नहीं हैं। थोड़े-बहुत प्रयास से ही यह संभव है। फिर सबके बीच इस बात पर सहमति बनी कि इलाके में हम सब मिलकर जन, जल, जंगल, जमीन, जानवर और नव विज्ञान के काम करें तो हमारे गाँव के दुःख मिटेंगे और समृद्धि आएगी। गाँव में हर व्यक्ति की समृद्धि गाँव के पर्यावरण से ही संभव है तो क्यों न हम सब मिलकर ऐसे प्रयास करें कि हमारा पर्यावरण बेहतर हो सके।
महेश शर्मा ने सैंकड़ों आदिवासियों के साथ 2004 से 07 तक बड़ी जल यात्राएँ निकाली। पानी और पर्यावरण को लेकर गाँव-गाँव में अच्छा माहौल बनने लगा। लोगों को समझ आने लगा कि हमारी ज़िन्दगी और गाँव की बदहाली का कारण हम खुद ही हैं और हम ही इसे बदल सकते हैं। ग्रामीणों ने वह कहानी सुनी थी, जिसमें बहुत प्रयास करने के बाद भागीरथ गंगा को धरती पर अकाल से बचाने और समाज के उद्धार के लिये लाए। गंगा का बहाव तेज होने से पहले उसे शिव की जटाओं में उतारा और वहाँ से पर्वतों में उतरकर गंगा मैदानों में बहने लगी। उन्होंने इस कहानी से अपनी बात लोगों के बीच रखी।
उन्होंने बताया कि जिस तरह उस समय भागीरथ ने पानी के लिये मेहनत की और शिव ने अपनी जटाओं में स्थान दिया। उसी तरह आज भी संकट की घड़ी है। पानी की कमी से हमारे इलाके में अकाल जैसे हालात हैं। हम भागीरथ की तरह कोई नदी तो नहीं ला सकते लेकिन अब हमें भागीरथ की तरह बारिश की एक-एक बूँद बचाने के लिये मेहनत करनी पड़ेगी। जिस तरह गंगा शिव की जटाओं में आकर ठहरी, उसी तरह धरती, पहाड़ तालाब और छोटी पहाड़ियाँ हमारे पानी के लिये ये शिव की जटाएँ हैं, इनमें बरसों की गाददृमिट्टी इकट्ठा हो गई हैं और इसी वजह से हमारे इलाके का पानी धरती में नहीं रिसता। धरती में पानी ही नहीं जाएगा तो हमारे कुओं, हैंडपंप या ट्यूबवेल में पानी कहाँ से आएगा।
महेश शर्मा गाँव-गाँव जाते। चौपाल पर लोगों के बीच बातचीत होती। गाँवों में ही रात रुक जाते। जंगलों के बीच दूर-दूर बसे इन मजरे-टोलों तक बारिश और गर्मियों में जाना मुश्किल होता। कई बार विपरीत स्थितियाँ भी बनी। कुछ आदिवासी शराब पीकर हंगामा भी करते और कई बार तो उन्हें अपमान भी सहना पड़ा। कुछ लोगों के राजनीतिक और व्यावसायिक स्वार्थ भी प्रभावित हो रहे थे, वे भी उनसे नाराज़ हुए लेकिन काम आगे बढ़ता रहा। वे लोगों से आग्रह करते कि हर कोई इससे जुड़े। कुछ लोग मिलकर हालात नहीं बदल सकते, इसे बदलने के लिये हम सब को एकमत होकर जुटना होगा। सबकी सहभागिता से ही कुछ बदलाव किया जा सकता है। समुद्र मंथन की प्रक्रिया में भी तो देव और दानव सब मिलकर सामने आए तभी तो धरती को कई सौगातें मिल सकी। इसलिये कोई अच्छा-बुरा नहीं होता। सब मिलकर एकजुट हो तभी गाँव को हम बचा पाएँगे। गाँव बचेंगे और समृद्ध होंगे तो फायदा किसी एक का नहीं सभी का होगा। सामूहिक श्रम से सामूहिक फायदा होगा। तभी उन्होंने आदिवासियों की परम्पराओं पर उनसे जाना तो एक अच्छी लेकिन अल्पज्ञात परम्परा ‘हलमा’ की जानकारी उन्हें मिली।
उन्होंने 2008 में पहली बार हजारों आदिवासियों को शिवगंगा अभियान से जोड़ते हुए झाबुआ की हाथीपावा पहाड़ी को हरा-भरा बनाने के लिये गाँव-गाँव जाकर हजारों आदिवासी परिवारों को अपने कुदाल-फावड़े के साथ आमंत्रित किया। पहले ही प्रयास में करीब दो हजार से ज़्यादा आदिवासी अपने गाँवों से हलमा करने के लिये एक दिन पहले यहाँ पहुँचे और अलसुबह से दोपहर तक उन्होंने पहाड़ी पर हजारों जल संरचनाएँ (कंटूर ट्रेंच) बना डाली। इन लोगों ने अपने इस काम के लिये एक पैसा तक नहीं लिया। इससे पूरे इलाके में उत्साह का नया संचार हुआ और लोगों के बीच विश्वास जगा कि हम खुद अपनी किस्मत बदल सकते हैं। दो हजार लोगों का यह आंकड़ा बढ़ते-बढ़ते अब 15-20 हजार तक पहुँच गया है। इसमें बड़ी कोशिश यह भी है कि गाँव के सभी तबकों के लोग इसमें शामिल हों, यहाँ तक कि औरतें और बच्चे भी। लक्ष्य यही है कि गाँव का सशक्तिकरण करते हुए वे खुद अपने आपको भी आंतरिक रूप से सक्षम बनाएँ।
उसके बाद लगातार करीब दस सालों से हाथीपावा की पहाड़ियों पर हर साल हजारों आदिवासी जुटते हैं और अपनी कुदालों से पानी को थामने की कोशिश करते हैं। वे नई ट्रेंच बनाते हैं, पुरानी ट्रेंच में जमी गाद और मिट्टी हटाते हैं। कुछ ही घंटों में तीस हजार से ज़्यादा हाथ इस पहाड़ी को बारिश के स्वागत के लिये तैयार कर देते हैं। महेश शर्मा मानते हैं कि झाबुआ शहर से लगी इस पहाड़ी पर पानी रुकने लगेगा तो जलस्तर बढ़ने का फायदा शहर और उसके आस-पास के सभी जलस्रोतों भी को मिलेगा।
इसका परिणाम यह हुआ कि इसके जल ग्रहण क्षेत्र में आने वाले झाबुआ के बहादुरसागर तालाब में गर्मियों के महीनों में भी पानी ठाठे मारता नजर आता है। इतना ही नहीं, जिस इलाके में हलमा किया जाता है, वहाँ पहले उजाड़ और ऊसर हुआ करता था लेकिन अब वहाँ हर बारिश के बाद आठ फीट ऊँचाई तक घास के बड़े-बड़े मैदान बनते हैं। पहाड़ी की दूसरी तरफ का हिस्सा अब भी वैसा ही उजाड़ और ऊसर है।
सामूहिक श्रमदान की मिसाल कायम हुई। लोगों के बीच यह धारणा मजबूत हुई कि अपने पर्यावरण और प्रकृति को बचानेदृसँवारने के लिये सरकारी प्रयासों के बिना भी हम सब मिलकर काम कर सकते हैं। इसी सामूहिकता का सुपरिणाम झाबुआ जिले के कई गाँवों में देखने को मिलता है, जहाँ जगह-जगह लोगों ने नए तालाब बनवाए या अपने पुराने तालाबों की मरम्मत करवाई। यह सब बहुत कम (महज डीजल और अन्य छोटे) खर्च में हुआ।
पानी और पर्यावरण के कामों के लिये सामूहिक श्रमदान की सहभागिता का ये नायाब तरीका अब अन्य आदिवासी इलाकों तथा आस-पास के प्रदेशों में भी अपनाया जाने लगा है। महेश शर्मा ने लगभग इस भूली जा चुकी परंपरा को पुनर्जीवित कर समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया है, उसे अब कई-कई जगह दोहराए जाने की तैयारी चल रही है। अब मध्यप्रदेश के बैतूल में भी पहली बार हलमा होने जा रहा है। महाराष्ट्र में सामजिक क्षेत्र में काम करने वाले सिद्धेश्वर स्वामी भी यहाँ आ ‘हलमा’ को समझ कर गए हैं।
इस साल भी हाथीपावा की पहाड़ी पर ‘हलमा’ के बाद गाँव-गाँव तालाब बनाने और अनुपयोगी होते जा रहे तालाबों की मरम्मत तथा गहरीकरण का काम किया जा रहा है। अप्रैल और मई महीने में दस तालाब बनकर तैयार हो चुके हैं। चार अन्य तालाबों के लिये काम चल रहा है और अगली बारिश का पानी इनमें भर सकेगा। इन तालाबों में स्थानीय आदिवासी हलमा करते हैं और ट्रैक्टर तथा जेसीबी का प्रबंध भी आस-पास से ही होता है। ज्यादातर काम मशीनों के बजाए हाथों से किया जाता है।
इसकी बानगी हमें मिलती है पेटलावद ब्लॉक के छायन तालाब को देखकर, यहाँ इन अनपढ़ समझे जाने वाले आदिवासी समाज ने ‘हलमा’ के जरिए तालाब को ही आकार नहीं दिया, बल्कि इससे आज आधा दर्जन गाँव पानीदार बन सके हैं। अब उनके यहाँ पानी की किल्लत नहीं रही। सरकार ने पहले यहाँ तालाब बनाने की बात सोची थी। सरकार के अधिकारियों ने नाप-जोख किया और तय पाया कि यहाँ तालाब बनाने के लिये करीब नौ लाख रुपये का खर्च आएगा। इस बड़ी राशि के लिये फाइलें झाबुआ से भोपाल तक दौड़ती रहीं। लेकिन कुछ नहीं हुआ। इधर गाँव के लोगों के लिये बिना पानी के एक-एक दिन निकालना मुश्किल हो रहा था। हलमा का चमत्कार वे जान ही चुके थे। उन्होंने अपने गाँव में तालाब बनाने के लिये हलमा का आह्वान किया और हजारों आदिवासियों ने देखते ही देखते सरकार के नौ लाख की जगह महज 85 हजार की छोटी-सी रकम से तालाब बना दिया। इतना ही नहीं स्थानीय अमरा वसुनिया ने तालाब के लिये अपनी निजी जमीन भी दे दी। बड़े जलग्रहण क्षेत्र और पहाड़ियों से जुड़ा होने के कारण इसमें गर्मियों के दौरान भी पानी रहता है। यहाँ पानी इनके लिये आज किसी वरदान से कम नहीं है। इसका संधारण और संरक्षण भी अब गाँव के लोग ही करते हैं। इससे आस-पास के गाँवों की सामाजिक और माली हालत में भी सकारात्मक बदलाव हुए हैं।
दूसरी बानगी हमें देखने को मिली रामा ब्लॉक के गाँव साढ़ में, जहाँ इस साल गर्मियों में आदिवासी बरसों पुराने एक सरकारी तालाब की मरम्मत बिना कोई पैसा लिये खुद पसीना बहाकर कर रहे हैं। कुछ साल पहले एक करोड़ की लागत से बना 400 मीटर लंबी और 55 फीट ऊँची पाल का यह तालाब गाद भर जाने और पाल फूट जाने से करीब-करीब अनुपयोगी ही रह गया था। महेश शर्मा ने गाँव की चौपाल पर इसके लिये ‘हलमा’ और सामूहिक श्रमदान की बात रखी तो सब तैयार हो गए और अब यहाँ एक बड़ा तालाब बारिश की मनुहार में खड़ा इंतज़ार कर रहा है। यहाँ इसी साल अप्रैल में ग्रामीणों ने पूरे एक महीने तक लगातार काम किया है।
इसी तरह संरक्षित वनों को इन्होंने मातावन नाम दिया है ताकि यहाँ कोई लकड़ी नहीं काटे। आदिवासी इन्हें माता का जंगल मानकर श्रद्धावश कभी इन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाते। हर साल यहाँ बारिश में कुछ नए पौधे लगाने की भी परम्परा बनाई है। अब तक जिले में छायन, घाटिया सहित दस से ज़्यादा ऐसे वन बनाए गए हैं। इन्हें बढ़ाकर 25 करने का लक्ष्य है।
ये तो कुछ बानगियाँ भर है, जमीन पर असली काम इससे कहीं बड़ा नजर आता है। बड़ी बात यह है कि ऐसे संसाधन विहीन इलाके में इतना काम बड़ी उम्मीद जगाता है। महेश शर्मा ने अपनी जीवटता और सरोकारों से इस बात को साबित किया है कि काम करने की जिद और जुनून से सबकुछ बदला जा सकता है। उनका लक्ष्य अभी पूरा नहीं हुआ है। वे खुद मानते हैं कि उनका असली मकसद तो झाबुआ जिले के सभी साढ़े तेरह सौ गाँवों तक पानी पहुँचाना है ताकि इनमें रहने वाले लोग समृद्ध हो सकें। उनकी आँखों में तैरते हुए उस हरियाली और खुशहाली के सपने को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है।
तरुण शर्मा