महान संत कबीर दास जी के इस दोहे का अर्थ है कि जो लोग कोशिश करते हैं, वे लोग कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं, जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
जब भी भारत में धर्म, भाषा, संस्कृति की चर्चा होती है तो कबीर दास जी के नाम की चर्चा सबसे पहले होती है क्योंकि कबीर दास जी ने अपनी वाणी के माध्यम से भारतीय संस्कृति को दर्शाया है। इसके साथ ही उन्होंने जीवन के कई ऐसे उपदेश दिए हैं, जिन्हें अपनाकर आदर्शवादी बन सकते हैं। इसके साथ ही कबीर दास ने अपनी साखियों से समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने की कोशिश की है और भेदभाव को मिटाया है। वहीं कबीर पंथी धार्मिक समुदाय के लोग कबीर के सिद्धांतों और उनके उपदेशों को अपनी जीवन का आधार मानते हैं।
मानव मात्र के प्रेमी
कबीरदास जी का मानना था कि इंसान के सबसे पास उसके माता-पिता, दोस्त और मित्र रहते हैं इसलिए वे परमात्मा को भी इसी दृष्टि से देखते हैं वे कहते थे कि दृ ‘हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया’ तो कभी कहते हैं, हरि जननी मैं बालक तोरा’
कबीरदास जी ने हिन्दू और मुस्लिम के मध्य व्याप्त नफरत को भी कम करने का प्रयास किया। कबीर दास के मानने वालों में सभी धर्म के लोग थे। यदि सत्य कहा जाए, संत कबीरदास जी ने कभी कहा ही नहीं कि मैं हिंदू हूँ या मुसलमान या किसी और धर्म से मेरा ताल्लुक है। हमारे कबीर जी सिर्फ, प्रेम और मानवता के धागे से अपने अनुयाइयों और मानने वालों से जुड़े हुए थे। कबीर दास जी कहते हैंः-
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान
अर्थात जाति और धर्म में क्या रखा है, साधु (सज्जन) के ज्ञान का मोल है, जैसे तलवार का मूल्य होता है न की उसकी म्यान का। कबीरदास जी के लिए किसी भी धर्म से ऊपर प्रेम और मानवता का धर्म था। और यही उनकी वाणी में भी देखने को मिलता है।
आत्मा का वर्णन
वे आत्मवादी संत थे। आत्मा के बारे में वे कहते हैं-’आत्मा अनंत है, अपार है, अकथ्य है, रूप रंग से परे है। उस आत्म का वर्णन कलम और स्याही से कैसे कर सकते हैं।’ उन्होंने आम लोगों को समझाते हुए कहा, ‘पंडित मुल्ला जो लिख दीन्हा, छांड़ि चले हम कुछ नहिं लीन्हा..’, इस तरह लोक जीवन के स्तर पर वे अध्यात्म की गहरी समझ पैदा कर रहे थे। उन्होंने सिर्फ किताबें पढ़ने नहीं, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान अर्जन पर अधिक जोर दिया। ’पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ..’ और ’पढ़ना लिखना दूरि करो, पुस्तक देई बहाय..’ आदि बातें कहीं।
कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे कबीरदास
कबीरदास जी झूठा दिखावा, कर्मकाण्ड और पाखंड के घोर विरोधी थे और उन्हें मौलवियों और पंडितों के कर्मकांड पसंद नहीं थे और तो और कबीर दास अवतार, मूर्ति, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को नहीं मानते थे। कबीर दास को मस्जिदों में नमाज पढ़ना, मंदिरों में माला जपना, तिलक लगाना, मूर्तिपूजा करना, रोजा या उपवास रखना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। कबीर दास को सादगी में रहना ज्यादा अच्छा लगता था और वे हमेशा सादा भोजन करना पसंद करते थे, उन्हें किसी तरह की बनावट अच्छी नहीं लगती थी। अपने आस- पास के समाज को वे आडम्बरों से मुक्त बनाना चाहते थे।
सांप्रदायिकता का विरोध
कबीर दास सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाने वाले पहले संत और विचारक माने जाते हैं। रूढ़ धार्मिक शास्त्रों, पूजा उपासना संबंधी जड़ता, जाति-वर्ण संबंधी भेदभाव और जीवन के अंतर्विरोधों को उन्होंने निर्ममता से अस्वीकार कर दिया। ‘मांगन मरण समान है..’ कहकर उन्होंने साधुता को भिक्षा पर जीवन निर्वाह से उन्होंने पहली बार अलग किया। ‘सत्य बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप..’ के जरिए अध्यात्म संबंधी भ्रम को मिटाकर उन्होंने नए अध्यात्म की रचना की। जप-तप और ज्ञान को वे कुछ खास लोगों तक सीमित नहीं रहने देना चाहते थे, तभी तो उन्होंने अपने दोहे में कहा-’संतो सहज समाधि भली.. जहां जहां जाऊं सोई परिकरमा जो कछु करूं सो पूजा..’। इसके माध्यम से वे समाज के सभी वर्गो के लिए सभी स्तरों पर नए आदर्शो की सृष्टि करते हुए भी अपनी रचनाओं से नैतिक व मानवीय लड़ाई लड़ रहे थे।
कबीर दास जी की साहित्यिक देन –
कबीर की वाणी का संग्रह बीजक’ के नाम से मशहूर हैं इसके भी तीन हिस्से हैं- रमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा समेत कई भाषाओं की खिचड़ी है। कबीर की रचनाएँ स्थानीय हिंदी भाषा में थी, इनकी रचनाओं में अवधी, ब्रज, और भोजपुरी भाषाओं का प्रभाव था। आपके द्वारा लिखी गई रचनाओं को इनके भक्त कबीर वाणी के नाम से बोलते है।
इन रचनाओं में वाणी का संग्रह था। कबीर दास जी के द्वारा कहे गए विचार भगवान् के भक्ति, मानव जीवन के विभिन पहलुओं पर आधारित थे। कबीर दास जी का ज्यादातर कार्य भक्ति, रहस्यवाद और अनुशासन पर आधारित था।
कबीरदास जी की रचनाओं का संग्रह विभिन्न ग्रंथों में देखने को मिलता है। इन ग्रंथों में कबीर बीजक, कबीर पाराचाई, सखी ग्रन्थ, आदि ग्रन्थ (सिक्ख) और कबीर ग्रंथावली (राजस्थान) प्रमुख हैं।
अन्तिम समय
कबीर दास जी ने अपना पूरा जीवन काशी में ही गुजारा लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। ऐसा माना जाता है उस समय लोग मानते थे कि मगहर में मरने से नरक मिलता है और काशी में प्राण त्यागने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
वहीं कबीर को जब अपने आखिरी समय का अंदेशा हो गया था, तब वे लोगों की इस धारणा को तोड़ने के मगहर चले गए। ये भी कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति न हो पाए, लेकिन कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे।
जौ काशी तन तजै कबीरा
तो रामै कौन निहोटा ।
कबीरदास जी एक महान कवि और समाज सुधारक थे। इन्होंने अपने साहित्य से लोगों को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी इसके साथ ही समाज में फैली कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया है। कबीरदास जी सादा जीवन जीने में यकीन रखते थे वे अहिंसा, सत्य, सदाचार गुणों के प्रशंसक थे।
गिरीष चौबीसा