प्राचीन काल की बात है। एक सुसंस्कृत, दयालु प्रजापालक राजा था। उन्हीं के स्वभाव के अनुरूप उनके सेवक भी दयालु और विश्वासपात्र थे। उनमें से एक सेवक राजा को अत्यन्त प्रिय था। शयन कक्ष के बाहर वही तलवार लेकर पहरा देता था। एक दिन सेवक की नीयत डोल गयी। उसके मन में एकदम से अमीर बनने का विचार आया। वह राजा के सोने का इन्तजार करने लगा।
राजा के सोते ही उसने गले से स्वर्ण आभूषणों निकालने का निश्चय किया। उसने नंगी तलवार उठाई और राजा पर वार कर दिया। लेकिन ईश्वर की इच्छा से उसी वक्त राजा ने करवट बदल दी। तलवार बिस्तर में फंसी और जोर से आवाज हो गयी। उसी वक्त अन्य सैनिक चौकन्ने हो गये। उन्होंने उस सेवक को पकड़ लिया। राजा भी शोरशराबे में जाग गये। सभी सैनिकों ने राजा से एक स्वर में उस दुष्ट को प्राणदण्ड देने की प्रार्थना की। परन्तु राजा को सैनिक पर थोड़ा सा भी क्रोध नहीं आया।
वे मनन करने लगे कि इस सैनिक ने आज तक तन-मन से उसकी सेवा की है। आज अचानक ऐसा क्या परिवर्तन आ गया कि वह उसकी हत्या करने को अमादा हो गया। राजा ने सैनिक को प्यार से अपने पास बुलाया और पूरे दिन की गतिविधि के बारे में पूछा। सैनिक ने बताया कि वह घर से आ रहा था तो उसे रास्ते में कुछ लोग मिले जो कि एक पेड़ के नीचे भोजन कर रहे थे। उसे उनकी गतिविधि पर सन्देह हुआ तो उनके पास गया। उन्होंने उसे अपनी बातों के जाल में फंसा कर साथ में भोजन कराया और कुछ धन देकर विदा किया।
राजा ने तुरन्त सैनिकों से उन राहगीरों को पकड़ने का आदेश दिया। कुछ ही समय में सैनिक उनको पकड़ने में कामयाब हो गये। उनके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की गयी। वे राहगीर वास्तव में निर्दयी लुटेरे और हत्यारे थे। राजा तुरन्त ही समझ गये कि उनके विश्वासपात्री सैनिक के मन मे पाप क्यों आया। यह दोष उस भोजन का ही है जो उसने उन लुटेरों के साथ ग्रहण किया था।
राजा ने सैनिक को तीन दिन का उपवास रखने का दण्ड दिया। बुरे भोजन का प्रभाव मिटने के बाद वह सैनिक फिर से उत्तम विचारों का हो गया। वह फिर से राजा की सेवा में रख लिया गया।
इस शिक्षाप्रद बाल कहानी से स्पष्ट होता है कि भोजन का चरित्र पर सीधा प्रभाव पड़ता है। जैसा हम भोजन करते हैं वैसी ही हमारी मनःस्थिति होती है तथा चरित्र निर्माण में भोजन का विशेष महत्व है। इसीलिए हमें हमेशा कोशिश यही करनी चाहिये कि घर का खाना ही खायें। बाजार का चिप्स, कुरकुरे, बर्गर, पेटीज या पिज्जा आदि को जितना कम खायें उतना ही अच्छा है।
याज्ञिक शर्मा