ईश्वर चन्द्र विद्यासागर कलकत्ता में अध्यापन कार्य करते थे। वेतन का उतना ही अंश घर परिवार के लिए खर्च करते थे जितने में कि औसत नागरिक स्तर का गुजारा चल जाता। शेष भाग वे दूसरे जरूरत मंदों की, विशेषतः छात्रों की सहायता में खर्च कर देते थे। आजीवन उनका यही व्रत रहा।
वे स्वयं गरीबी में पढ़े थे अतः अपनी पूरी ताकत निर्धनों के लिए आवश्यकताएँ पूरी करने में लगा देते थे। एक दिन वे बाजार में चले जा रहे थे। एक हताश युवक ने भिखारी की तरह उनसे एक पैसा माँगा। विद्यासागर दानी तो थे पर सत्पात्र की परीक्षा किये बिना किसी की ठगी में न आते। युवक से जवानी में हट्टे कट्टे होते हुए भी भीख माँगने का कारण पूछा। उसकी सारी स्थिति जानने पर उन्हें उसके भिक्षा माँगने का औचित्य लगा। सो एक पैसा तो दे दिया पर उसे रोककर उससे पूछा कि यदि अधिक मिल जाय तो क्या करोगे? युवक ने कहा कि यदि एक रुपया मिले तो उसका सौदा लेकर गलियों में फेरी लगाने लगूंगा और अपने परिवार का पोषण करने में स्वावलम्बी हो जाऊंगा।
विद्यासागर ने उसे एक रुपया और दे दिया। रुपया लेकर उसने छोटा व्यापार आरंभ कर दिया। काम दिन दिन बढ़ने लगा। कुछ दिन में वह बड़ा व्यापारी बन गया।
कुछ साल बाद एक दिन विद्यासागर उस रास्ते से निकल रहे थे कि व्यापारी दुकान से उतरा उनके चरणों में पड़ा और अपनी दुकान दिखाने ले गया और कहा – यह आपका दिया एक रुपया पूंजी का चमत्कार है।
विद्यासागर प्रसन्न हुए और कहा – जिस प्रकार तुमने सहायता प्राप्त करके उन्नति की उसी प्रकार का लाभ अल्प जरूरतमंदों को भी देते रहना।
पात्र उपकरण लेकर ही निश्चित नहीं हो जाना चाहिए वरन् वैसा ही लाभ अन्य लोगों को पहुंचाने के लिए समर्थता की स्थिति में स्वयं भी उदारता बरतनी चाहिए। व्यापारी ने वैसा ही करते रहने का वचन दिया।
पर्व आमेटा