हमारा सारा जीवन इस ऊहापोह में व्यतीत हो जाता है कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? मेरे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित है? महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन के समक्ष भी यही प्रश्न आ उपस्थित हुआ था। तब उसे कृष्णजी ने कर्त्तव्य – अकर्त्तव्य का और उचित-अनुचित का बोध कराया। कृष्ण जी के द्वारा जो कुछ भी उस समय कहा गया था उसका निचोड़ यही था कि जीवन में सफलता की प्राप्ति के लिए सभी को निष्कामता का, निस्संगता का, फलासक्ति त्याग, भगवददर्पणता को अपनाना चाहिए। अपने इस सिद्धांत की रक्षा करने के लिए कृष्णजी को गीता में पारमार्थिक सिद्धांतों का भी आश्रय लेना पड़ा है। जिसे समयानुकूल, विषयानुकूल और प्रकृति के अनुकूल ही कहा जा सकता है।
युद्ध से पूर्व अर्जुन की स्थिति को विनोबा भावे ने बड़े अच्छे ढंग से स्पष्ट किया है। वह कहते हैं कि-‘‘अर्जुन की स्थिति ठीक ऐसी थी जैसी स्थिति उस न्यायाधीश की होती है जो सैकड़ों अपराधियों को रोज फाँसी की सजा देता है, परन्तु दुर्भाग्य से कभी उसका अपना लडका खून का अपराध कर बैठा, तब वह बुद्धिवाद बघारने लगा, कहने लगा कि फाँसी की सजा बड़ी अमानुषी है, इससे अपराधी का सुधार नहीं होता, यह दण्ड मानवता पर एक कलंक है। परन्तु यह प्रज्ञावाद उसे तभी स्मरण आता है-जब उसका अपना लडका अपराधी बनकर उसके सामने खड़ा हो। तब उस पर मोह का पर्दा पड़ जाता है। अर्जुन भी रक्तपात करने से कभी हिचकिचाया नहीं, परन्तु जब अपने ही लोगों पर हाथ उठाने की स्थिति आयी, तब उस पर मोह छा गया।
उसके अन्तरात्मा में संघर्ष अन्तर्द्वन्द्व उठ खड़ा हुआ और वह अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए बड़ी ऊँची-ऊँची बातें करने लगा। कृष्ण से उपदेश लेने के स्थान पर उन्ही को उपदेश देने लगा।’’ हम इस लेखमाला में प्रयास करेंगे कि गीता के वेदानुकूल और समयानुकूल प्रसंगों, सन्दर्भों और संवादों को लेते हुए जो बातें प्रसंग वश कही गयी हों और जो वेदानुकूल हों, अपने योगीराज श्रीकृष्ण जी महाराज के मुंह से उन्हीं वचनों को सुनवाया जाए।
समय और परिस्थितियों के जो अनुकूल ना हो परन्तु जो वेद संगत होने से मानव मात्र के लिए आज भी उपयोगी हो सकती है, और किसी हताश, निराश और उदास ‘अर्जुन’ को युद्ध क्षेत्र से पलायन न कर युद्ध क्षेत्र में रूकने और अपना क्षात्रधर्म निर्वाह करने के लिए प्रेरित करे, उसे बताया जाए, और जो बातें वेद विरूद्ध धारणाओं को प्रबल करने या प्रचारित करने के द्ष्टिकोण से ली गयी हों-उन्हें निकाल दिया जाए या उचित स्थान पर स्पष्ट कर दिया जाए। इससे गीताकार का उद्देश्य भी सफल होगा और समाज का भी भला होगा।