वीर सावरकर साहस, वीरता, उत्कट देशभक्ति का पर्यायवाची शब्द, जिसका स्मरण करते ही अनुपम त्याग और अदम्य साहस का एक जीवंत चित्र इतिहास के पृष्ठों से निकलकर हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। एक साधारण नही, असाधारण व्यक्तित्व, जिसका बचपन से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवन का एक एक क्षण राष्ट्रभक्ति और साहित्य सेवा को समर्पित रहा। भारत को गुलामी की बेडियो से मुक्ति दिलाना और आजादी के बाद उसे एक अखंड शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित करना ही उनका एकमात्र सपना था। वीर सावरकर एक महान वक्ता, लेखक, इतिहासकार, कवि, दार्शनिक और सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। वे असाधारण हिंदू विद्वान थे।
प्रारंभिक जीवन
वीर सावरकर का जन्म 28 मई, 1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम राधाबाई सावरकर और पिता दामोदर पंत सावरकर थे। उनके माता-पिता राधाबाई और दामोदर पंत की चार संतानें थीं। वीर सावरकर के तीन भाई और एक बहन भी थी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा नासिक के शिवाजी स्कूल से हुई थी। मात्र 9 साल की उम्र में हैजा बीमारी से उनकी मां का देहांत होगया। उसके कुछ वर्ष उपरांत उनके पिता का भी वर्ष 1899 में प्लेग की महामारी में स्वर्गवास हो गया। इसके बाद उनके बड़े भाई ने परिवार के भरण-पोषण का भार संभाला। सावरकर बचपन से ही बागी प्रवृत्ति के थे। जब वे ग्यारह वर्ष के थे तभी उन्होंने ‘वानर सेना’ नाम का समूह बनाया था। वे हाई स्कूल के दौरान बाल गंगाधर तिलक द्वारा शुरू किए गए ‘शिवाजी उत्सव’ और ‘गणेश उत्सव’ आयोजित किया करते थे। बाल गंगाधर तिलक को ही सावरकर अपना गुरु मानते थे। वर्ष 1901 मार्च में उनका विवाह यमुनाबाई से हो गया था। वर्ष 1902 में उन्होंने स्नातक के लिए पुणे के ‘फर्ग्युसन कॉलेज में दाखिला लिया। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण उनके स्नातक की शिक्षा का खर्च उनके ससुर यानी यमुनाबाई के पिता ने उठाया।
राजनैतिक गतिविधियाँ
पुणे में उन्होंने ‘अभिनव भारत सोसाइटी’ का गठन किया और बाद में स्वदेशी आंदोलन का भी हिस्सा बने। कुछ समय बाद वह तिलक के साथ ‘स्वराज दल’ में शामिल हो गए। उनके देश भक्ति से ओत-प्रोत भाषण और स्वतंत्रता आंदोलन के गतिविधियों के कारण अंग्रेज सरकार ने उनकी स्नातक की डिग्री जब्त कर ली थी। वर्ष 1906 जून में बैरिस्टर बनने के लिए वे इंग्लैंड चले गए और वहां भारतीय छात्रों को भारत में हो रहे ब्रिटिश शासन के विरोध में एक जुट किया। उन्होंने वहीं पर ‘आजाद भारत सोसाइटी’ का गठन किया। सावरकर ने अंग्रेजों से भारत को मुक्त कराने के लिए हथियारों के इस्तेमाल की वकालत की थी और इंग्लैंड में ही हथियारों से लैस एक दल तैयार किया था। सावरकर द्वारा लिखे गए लेख ‘इंडियन सोशियोलाजिस्ट’ और ‘तलवार’ नामक पत्रिका में प्रकाशित होते थे। वे ऐसे लेखक थे जिनकी रचना के प्रकाशित होने के पहले ही प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसी दौरान उनकी पुस्तक ‘द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस 1857’ तैयार हो चुकी थी परंतु ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटेन और भारत में उसके प्रकाशित होने पर रोक लगा दी। कुछ समय बाद उनकी रचना मैडम भीकाजी कामा की मदद से हॉलैंड में गुपचुप तरीके से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियां फ्रांस पहुंची और फिर भारत भी पहुंचा दी गयीं। सावरकर ने इस पुस्तक में 1857 के ‘सिपाही विद्रोह’ को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया था।
वर्ष 1909 में मदनलाल धींगरा, सावरकर के सहयोगी, ने वायसराय, लार्ड कर्जन पर असफल हत्या के प्रयास के बाद सर विएली को गोली मार दी। उसी दौरान नासिक के तत्कालीन ब्रिटिश कलेक्टर ए.एम.टी जैक्सन की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। इस हत्या के बाद सावरकर पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के चंगुल में फंस चुके थे। उसी दौरान सावरकर को 13 मार्च 1910 को लंदन में कैद कर लिया गया। अदालत में उन पर गंभीर आरोप लगाये गए, और 50 साल की सजा सुनाई गयी। उनको काला पानी की सजा देकर अंडमान के सेलुलर जेलभेज दिया गया और लगभग 14 साल के बाद रिहा कर दिया गया। वहां पर उन्होंने कील और कोयले से कविताएं लिखीं और उनको याद कर लिया था। दस हजार पंक्तियों की कविता को जेल से छूटने के बाद उन्होंने दोबारा लिखा।
वर्ष 1920 में महात्मा गाँधी, विट्ठलभाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक ने सावरकर को रिहा करने की मांग की। 2 मई 1921 में उनको रत्नागिरी जेल भेजा गया और वहां से सावरकर को यरवदा जेल भेज दिया गया। रत्नागिरी जेल में उन्होंने ‘हिंदुत्व पुस्तक’ की रचना की। वर्ष 1924 में उनको रिहाई मिली मगर रिहाई की शर्तों के अनुसार उनको न तो रत्नागिरी से बाहर जाने की अनुमति थी और न ही वह पांच साल तक कोई राजनीतिक कार्य कर सकते थे। रिहा होने के बाद उन्होंने 23 जनवरी 1924 को ‘रत्नागिरी हिंदू सभा’ का गठन किया और भारतीय संस्कृति और समाज कल्याण के लिए काम करना शुरू किया। थोड़े समय बाद सावरकर तिलक की स्वराज पार्टी में शामिल हो गए और बाद में हिंदू महासभा नाम की एक अलग पार्टी बना ली। वर्ष 1937 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और आगे जाकर भारत छोड़ो आंदोलन’ का हिस्सा भी बने।
सावरकर ने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया और गांधीजी को ऐसा करने के लिए निवेदन किया। नाथूराम गोड़से ने उसी दौरान महात्मा गांधी की हत्या कर दी जिसमें सावरकर का भी नाम आया। सावरकर को एक बार फिर जेल जाना पड़ा परंतु साक्ष्यों के अभाव में उन्हें रिहा कर दिया गया। अपने जीवनकाल में सावरकर एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनको दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी। उनके द्वारा ही तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया गया था। आजादी के बाद उनको 8 अक्टूबर 1951 में उनको पुणे विश्वविद्यालयन ने डी.लिट की उपाधि दी। 1 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया था। 26 फरवरी 1966 को उन्होंने मुम्बई में अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया और चिर निद्रा में लीन हो गए।
गिरीश चौबीसा