माँ शबरी को श्रीराम के प्रमुख भक्त ों में गिना जाता है। शबरी का वास्तविक नाम ‘श्रमणा’ था। वह भील समुदाय की ‘शबरी’ जाति से थी। शबरी के पिता भीलों के राजा थे। शबरी जब विवाह के योग्य हुई तो उसके पिता ने एक दूसरे भील कुमार से उसका विवाह पक्का कर दिया और धूमधाम से विवाह की तैयारी की जाने लगी। विवाह के दिन सैकड़ों बकरे-भैंसे बलिदान के लिए लाए गए।
बकरे-भैंसे देखकर शबरी ने अपने पिता से पूछा- ‘ये सब जानवर यहां क्यों लाए गए हैं?’ पिता ने कहा- ‘तुम्हारे विवाह के उपलक्ष्य में इन सबकी बलि दी जाएगी। यह सुनकर बालिका शबरी को अच्छा नहीं लगा और सोचने लगी यह किस प्रकार का विवाह है, जिसमें इतने निर्दोष प्राणियों का वध किया जाएगा। यह तो पाप कर्म है, इससे तो विवाह न करना ही अच्छा है। ऐसा सोचकर वह रात्रि में उठकर जंगल में भाग जाती है।
दंडकारण्य में वह देखती है कि सैंकड़ों ऋषि-मुनि तप कर रहे हैं। बालिका शबरी अशिक्षित होने के साथ ही निचली जाति से थी। वह समझ नहीं पा रही थीं कि किस तरह वह इन ऋषि-मुनियों के बीच यहां जंगल में रहें, जबकि मुझे तो भजन, ध्यान आदि कुछ भी नहीं आता।
लेकिन शबरी का हृदय पवित्र था और उसमें प्रभु के लिए सच्ची चाह थी, जिसके होने से सभी गुण स्वतः ही आ जाते हैं। वह रात्रि में जल्दी उठकर, जिधर से ऋषि निकलते, उस रास्ते को नदी तक साफ करती, कंकर-पत्थर हटाती ताकि ऋषियों के पैर सुरक्षित रहे। फिर वह जंगल की सूखी लकड़ियां बटोरती और उन्हें ऋषियों के यज्ञ स्थल पर रख देती।
इन सब कार्यों को वह इतनी तत्परता से छिपकर करती कि कोई ऋषि देख न ले। यह कार्य वह कई वर्षों तक करती रही। अंत में मतंग ऋषि ने उस पर कृपा की। जब मतंग ऋषि मृत्यु शैया पर थे तब उनके वियोग से ही शबरी व्याकुल हो गई। महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया- ‘बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहना। प्रभु राम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आएंगे। प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है। वे तो भाव के भूखे हैं और अंतर की प्रीति पर रीझते हैं।’
महर्षि की मृत्यु के बाद शबरी अकेली ही अपनी कुटिया में रहती और प्रभु राम का स्मरण करती रहती थी। राम के आने की बाट जोहती शबरी प्रतिदिन कुटिया को इस तरह साफ करती थीं कि आज राम आएंगे। साथ ही रोज ताजे फल लाकर रखती कि प्रभु राम आएंगे तो उन्हें मैं यह फल खिलाऊंगी। वृद्धावस्था में एक दिन राम आए तो उसकी आंखों से अश्रुओं की धारा निकलने लगी। उसने श्रीराम के चरण धोकर उन्हें आसन पर बिठाया। फलों का पात्र उनके सामने रखकर वह बोली- ‘प्रभु! मैं आपको अपने हाथों से फल खिलाऊंगी, खाओगे ना भीलनी के हाथों के फल? श्रीराम ने कहा- ‘माँ! मैं तो बस भक्ति से ही नाता रखता हूं। जाति-पाति, कुल, धर्म सब मेरे सामने गौण हैं। मुझे भूख लग रही है, जल्दी से मुझे कुछ फल खिलाकर तृप्त कर दो।’
शबरी एक-एक फल को चखकर फल खिलाती जाती थी और श्रीराम बार-बार मांगकर खाते जाते थे।
अंत में शबरी ने श्रीराम से कहा- भगवन् आप सीता की खोज में जा रहे हैं तो सुग्रीव से मित्रता करना न भूलना। शबरी तपस्विनी और योगिनी थीं। शबरी को श्रीराम के आशीर्वाद से मोक्ष मिला।