लगभग 200 वर्षों तक अंग्रेजों की गुलामी के पश्चात 15 अगस्त सन् 1947 के दिन हमारा भारतदेश आजाद हुआ। अंग्रेजों के अत्याचारों और अमानवीय व्यवहारों से त्रस्त भारतीय जनता एकजुट हो, इससे छुटकारा पाने हेतु कृत संकल्प हो गई थी। तब विद्रोह की ज्वाला भड़की और देश के अनेक वीरों ने प्राणों की बाजी लगाई, गोलियाँ खाईं और अंततः आजादी पाकर ही चैन लिया। 71 वर्ष पूर्व इस दिन हमारा देश स्वतन्त्र हुआ, इसलिए इसे स्वतंत्रता दिवस कहते हैं।
स्वतंत्रता दिवस हमारे लिये ऐतिहासिक महत्व रखता है। स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर पूरे देश में एक जुनून सा छा जाता है जिसका उदाहरण आप गली के बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में देख सकते हैं जिनके हाथों मे तिरंगा जरूर दिखाई देता है। आजाद देश में जहाँ हर जगह हर्षोल्लास का माहौल होता है। हर गली, हर दफ्तर और हर इमारत पर तिरंगे की मौजूदगी ये बयान करती है कि हमारे देश के लिए आज का दिन कितना गौरवशाली है।
सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में पहली आहुति दी मंगल पांडे ने। देखते ही देखते यह यज्ञ चारों ओर फैल गया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्याँ टोपे और नाना साहेब जैसे योद्धाओं ने इस स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने रक्त की आहुति दी। दूसरे चरण में ‘सरफरोशी की तमन्ना’ लिए रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि देश के लिए शहीद हो गए। तिलक ने ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का उद्घोष किया व सुभाष चंद्र बोस ने ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ का मंत्र दिया। अहिंसा और असहयोग का अस्त्र लेकर महात्मा गाँधी और गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ने को तत्पर लौह पुरुष सरदार पटेल ने अपने प्रयास तेज कर दिए। भारत ने एक लम्बी और कठिन यात्रा तय की, जिसमें अनेक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अभियान शामिल थे और इसके दो मुख्य हथियार थे- सत्य-अहिंसा और क्रांति का मार्ग।
15 अगस्त, 1947 को भारत के प्रत्येक जाति, धर्म, सम्प्रदाय तथा पंथ के हजारों भारतवासियों ने लाखों कुर्बानियां देकर ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की थी। भारत की गुलामी से आजादी के गौरव का प्रतीक, हमारा राष्ट्रीय पर्व है। ऐसे में भारत के जाने-अनजाने क्रांतिवीरों को भूल जाना उनकी शहादत का अपमान होगा। हम उन्हें याद करें, सम्मान दें, श्रद्धासुमन अर्पित करें।
भारत का असली व पूरा गौरव, इसकी सीमाओं में नहीं, बल्कि इसकी संस्कृति, आध्यात्मिक मूल्यों तथा सार्वभौमिकता में है। तीन ओर से सागर तथा एक ओर से हिमालय पर्वत शृंखला से घिरा भारत, स्थिर जीवन का केंद्र बन कर सामने आया है। यहाँ के निवासी एक हजारों सालों से सतत् संघर्ष में रहते आ रहे हैं, जबकि बाकी संसार में ऐसा नहीं रहा। जब आप संघर्ष की सी स्थिति में जीते हैं, तो आपके लिए प्राणों की रक्षा ही जीवन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य बना रहता है। जब लोग स्थिर समाज में जीते हैं, तो जीवन-रक्षा से परे जाने की इच्छा पैदा होती है।
प्राचीन भारत में लंबे अरसे से, स्थिर समाजों का उदय हुआ और नतीजन आध्यात्मिक प्रक्रियाएं विकसित हुईं। आज आप अमेरिका में लोगों के बीच आध्यात्मिकता को जानने की तड़प को देख रहे हैं, उसका कारण यह है कि उनकी आर्थिक दशा पिछली तीन-चार पीढ़ियों से काफी स्थिर रही है। उसके बाद उनके भीतर कुछ और अधिक जानने की इच्छा बलवती हो रही है। भारत में आज से कुछ हजार साल पहले ऐसा ही घट चुका है। यह अविश्वसनीय जान पड़ता है कि हमने कितने रूपों में आध्यात्मिकता को अपनाया है। इन्सान बुनियादी रूप से क्या है, इस मुद्दे पर इस धरती पर किसी भी दूसरी संस्कृति ने उतनी गहराई से विचार नहीं किया, जैसा हमारे देश में किया गया। यही इस देश का मुख्य आकर्षण है कि हमें पता है कि मानव-तंत्र कैसे काम करता है, हम जानते हैं कि इसके साथ हम क्या कर सकते हैं या इसे इसकी चरम संभावना तक कैसे ले जा सकते हैं। हमें इसका इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि महान् मनुष्यों के निर्माण से ही तो महान् देश की रचना हो सकती है। मनुष्य का स्वाभिमान उसकी स्वतंत्रता में है। कहा गया है कि स्वाभिमान खत्म हो जाने के बाद जीवन जीने का कोई अभिप्राय नहीं रह जाता। इसलिये यह जरूरी है कि हर व्यक्ति को यह स्वतंत्रता हो कि वह जैसा चाहे वैसा सोच सके। अपने व्यक्तिगत ढंग से अपनी खुशी का अनुसरण कर सके। जीवन के वास्तविक आनन्द का सुख अनुभव कर सके, किन्तु कहीं-कहीं स्वतंत्रता को अनुशासन का कवच प्रदान करना भी श्रेयस्कर होता है, ताकि स्वतंत्रता निरंकुशता में न परिवर्तित हो सके।
अतएव जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत मान्यता है, कि कर्तव्यपथ पर स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व साथ-साथ चलते हैं। पूर्ण स्वतंत्रता वांछनीय नही है। स्वतंत्रता और दायित्व में तालमेल होना चाहिये। स्वतंत्रता के मायने तब और ज्यादा प्रबल हो जाते हैं जब व्यक्ति सम्पूर्ण ईमानदारी, जिम्मेदारी, समझदारी और दुनियादारी का बोध करते हुये स्वतंत्रता का सही इस्तेमाल करता है। स्वतंत्रता के साथ-साथ जरूरी है अपने भीतर स्व-अनुशासन का भाव लाया जाए, ताकि सत्य के दायरे में सिमट कर उत्तरदायित्व का समग्र निर्वहन हो सके। स्वतंत्रता का क्षितिज व्यापक होना चाहिये और इसकी परिधि विस्तृत एवं उदार होनी चाहिए, तभी स्वतंत्रता का अभिप्राय सिद्ध होगा।
आजादी मिलने से पहले आजादी का जो ‘अर्थ’ था इस समय वह नहीं है। राजनीतिक रूप से आज हम सभी भारतवासी प्रतिवर्ष 15 अगस्त को आजादी की वर्षगाँठ मनाते हैं। भारत में आजादी के अर्थ निरंतर बदलते रहे। सबने अपने-अपने ढंग से आजादी का मतलब निकाला है। गरीब आदमी के लिए आजादी का अर्थ गरीबी से आजादी है। अशिक्षित व्यक्ति के लिए आजादी का अर्थ अशिक्षा से आजादी है। ऐसे ही सभी वर्गों और व्यक्तियों के लिए आजादी के अलग-अलग मायने है, लेकिन इस समय बेकारी, महँगाई, भ्रष्टाचार से आजादी अनिवार्य हो गया है। जिस अर्थ और भाव के साथ सबने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हमें जो ‘अर्थ’ दिया था, हम कहीं-न-कहीं उससे भटक गए हैं। कुव्यवस्था की विडम्बना ने उसे विद्रूप बना दिया है। हमको अपने आजादी के मायने बदलने होंगे। जिस तरह स्वतंत्र भारत की तस्वीर अपने दिल, दिमाग तथा आँखों में बसाए हमारे क्रांतिवीरों ने भारत माँ को आजाद कराने के लिए अपना बलिदान दिया था। हमें उनके सपनों को साकार करना होगा।
तरुण शर्मा