भक्ति कालीन हिन्दी काव्य, राम भक्ति धारा के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कवि गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्य के शीर्ष कवियों में एक हैं। इनका काव्य हिन्दी साहित्य का गौरव है। यद्यपि तुलसीदास से पूर्व राम भक्ति का उदय हो चुका था और रामकाव्य-सृजन की परंपरा भी हिन्दी में विष्णुदास आदि रचनाकारों की रचनाओं से प्रचलित हो चुकी थी, पर राम भक्ति काव्य-धारा की समस्त विशेषताओं और प्रवृत्तियों के प्रतिष्ठापन का वास्तविक श्रेय तुलसीदास जी को ही जाता है। तुलसीदास जी ऐसे संवेदनशील महाकवि हैं, जो रामचरित मानस जैसी महान कृ ति का उद्घाटन करने में सफल सिद्ध होते हैं। रामचरित मानस ऐसी लोकग्राह्य कृ ति है जिसमें समाज के लगभग हर एक वर्ग के रेखांकन की सूक्ष्मता को अत्यंत पैनी एवं गंभीर दृष्टि से देखा जा सकता है।
तुलसी के राम आदर्श चरित्र के नायक हैं। राम का मानवीय व्यवहार सबको लुभाता है, आश्चर्य में डालता है। राम आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति और आदर्श शत्रु भी हैं। तुलसी की लोक-साधना ऊपर से देखने में भले ही भक्तिपरक लगती है, पर उनके भीतर के आदर्श समाज का सपना एक आदर्श मानव का चरित्र है। वे ही निर्गुण और सगुण, निराकार और साकार, अव्यक्त और व्यक्त, अंतर्यामी और बहिर्यामी, गुणातीत और गुणाश्रय हैं। निर्गुण राम ही भक्तों के प्रेमवश सगुण रूप में प्रकट होते हैं।
तुलसी ने द्वैतवादी और अद्वैतवादी मतों का समन्वय किया है। राम और जगत में तत्वतः अभेद है, किंतु प्रतीयमान व्यावहारिक भेद भी है। तुलसी ने भेदवाद और अभेदवाद दोनों का समन्वय किया है। स्वरूप की दृष्टि से जीव और ईश्वर में अभेद है। यह ईश्वर का अंग है अतः ईश्वर की भांति ही सत्य, चेतन और आनंदमय है।
‘रामचरितमानस’ तुलसीदास जी का सबसे सर्वश्रेष्ठ वृहद् महाकाव्य है। यह न केवल रामकाव्य धारा की सर्वश्रेष्ठ काव्य है, न केवल हिन्दी-साहित्य का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है, अपितु विश्वसाहित्य में शीर्षस्थान का अधिकारी महाकाव्य है। इसके अलावा विनयपत्रिका, दोहावली, कवितावली, राम गीतावली, रामाज्ञा प्रश्नावली अन्य बड़ी रचनाएँ हैं। जानकी मंगल, पार्वती मंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली और रामललान्हछू छोटी रचनाएँ हैं।
तुलसी की भक्ति का घनिष्ठ संबंध मानवीय सहानुभूति और करुणा से है। इसीलिए वे उसके द्वारा उच्चकोटि के मानवतावाद की प्रतिष्ठा करते हैं। इस भक्ति आन्दोलन के ही नहीं वरन् संसार के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का साहित्य भी इसी विराट मानवतावाद उच्च मानवीय मूल्यों से अनुप्राणित है जिसके कारण वह आम जनता के मन-प्राणों को गहराई से छूता है; संवेदनशील, करुणार्द्र, साधारण जन से संवेदनात्मक एकात्म स्थापित करता है।
तुलसी इस्लामी आक्रमण से हिन्दुत्व की रक्षा करने वाले ऐसे जननायक हैं जो ‘रामचरितमानस’ के विविध पात्रों के रूप में हिन्दू समाज और संस्कृति के लिए अमर आदर्शों की सृष्टि करते हैं। तुलसी का ‘रामचरित मानस’ हिन्दी साहित्य का सर्वोत्तम महाकाव्य है जिसकी रचना चैत्र शुक्ल नवमी 1603 वि. में हुई थी तथा जिसको तैयार करने में 2 वर्ष 7 महीने तथा 26 दिन लगे थे। मानस मूलतः एक साहित्यिक ग्रंथ है अतः उसे उसी दृष्टि से पढ़ना और मूल्यांकित करना चाहिए। मानस का आरंभ ही इससे होता है-
वर्णानामर्थसंघानाम रसानां छंदसामपि,
मंगलानां च कर्तारौ वंदे वाणी विनायकौ।।
भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य के 6 प्रमुख मानदंड निर्धारित किए गए हैं- रस, ध्वनि, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और औचित्य। तुलसी ने इन सबका समन्वय किया है, सैद्धांतिक रूप में भी तथा प्रयोगात्मक रूप में भी। उनका काव्य इन सभी काव्य-सौन्दर्य तत्वों से समन्वित है। यह काव्य अपनी प्रबंधात्मकता, मार्मिक प्रसंग विधान, चारित्रिक महत्तता, सांस्कृतिक गरिमा एवं गुरुता, गंभीर भाव-प्रवाह, सरस घटना संघटन, अलंकारिता तथा उन्नत कलात्मकता से परिपूर्ण है।
मानस के अंतस में एक निर्णायक संघर्ष का विन्यास है, जो ऊपर के बजबजाते पानी के शोर में सुनाई नहीं देता। मानस में अंतरगुम्फित यह संघर्ष बेजोड़ है और बेजोड़ है तुलसी का रण-कौशल। यह संघर्ष है- मर्यादा और अमर्यादा के बीच, शुद्ध और अशुद्ध भावना व विचार के बीच, सहज और प्रपंची भक्ति के बीच, सरल और जटिल जीवन-दर्शन के बीच।
‘मानस’ कोरे आदर्श को स्थापित करने वाला ग्रंथ नहीं है। यहां राम के साथ रावण भी है। सीता के साथ मंथरा भी है। तुलसी संपूर्ण समाज को एकसाथ चित्रित करते हैं। राम का रामत्व उनकी संघर्षशीलता में है, न कि देवत्व में। राम के संघर्ष से साधारण जनता को एक नई शक्ति मिलती है। कभी न हारने वाला मन, विपत्तियां हजार हैं, लक्ष्मण को ‘शक्ति’ लगी है, पत्नी दुश्मनों के घेरे में है, राम रोते हैं, बिलखते हैं, पर हिम्मत नहीं हारते हैं।
रामचरित मानस तुलसीदासजी का सुदृढ़ कीर्ति स्तंभ है जिसके कारण वे संसार में श्रेष्ठ कवि के रूप में जाने जाते है, क्योंकि मानस का कथाशिल्प, काव्यरूप, अलंकार संयोजना, छंद नियोजना और उसका प्रयोगात्मक सौंदर्य, लोक-संस्कृति तथा जीवन-मूल्यों का मनोवैज्ञानिक पक्ष अपने श्रेष्ठ रूप में है।
जिस काल में गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ था, वह बहुत ऊँचे आदर्शों पर नहीं चल रहा था। समाज में अराजकता छायी हुई थी, मानवीय रिश्ते अपना वजूद खो रहे थे और धर्म अपने उद्देश्यों से भटक गया था। रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार दृ ‘शैवों, वैष्णवों, शाक्तों और कर्मठों की तू-तू-मैं-मैं तो थी ही, बीच में मुसलमानों से अवरोध प्रदर्शन३ कई नए-नए पंथ निकल चुके थे, जिनमें एकेश्वरवाद का कट्टर स्वरूप, उपासना का आशिकी रंग ढंग, ज्ञान-विज्ञान की निंदा३ आदि सब कुछ था पर लोक व्यवस्थित करने वाली मर्यादा न थी।’ और यह अराजकता समाज में वैमनस्य फैला रही थी। ऐसे समय तुलसीदास को जो अभूतपूर्व सपफलता मिली उसका कारण यह था कि उन्होंने इस अराजकता को दूर करने का प्रयास किया, समन्वय की चेष्टा की, रामराज्य के आदर्श का ख्वाब देखा और ‘राम’, ‘सीता’, ‘भरत’, ‘हनुमान’, ‘लक्ष्मण’, ‘दशरथ’ जैसे उच्च मानवीय मूल्यों से युक्त चरित्रों की प्रतिष्ठा की। दरअसल तत्कालीन समाज की विद्रूपता, विसंगति, पतन के सामने वे एक आदर्श रखना चाहते थे इसलिए उन्होंने रचा एक ऐसा साहित्य रचा जो मर्यादा, सुशीलता, सात्विक प्रेम, दया, अन्तःकरण की कोमलता, नीति, स्नेह, विनय और आत्मत्याग की कहानी कहता हो। ‘रावण पर राम की विजय, मोह पर ज्ञान की, अन्याय पर न्याय की, कदाचार पर सदाचार की और असद्वृत्तियों पर सद्वृत्तियों की विजय’ की कहानी कहता हो।
तुलसी की भक्तिभावना लोकमंगलमयी और लोकसंग्रहकारी है। तुलसीदास की रचनाओं में विशेषतः रामचरितमानस ने समग्र हिंदू जाति और भारतीय, समाज को राममय बना दिया तुलसी के रामचरितमानस पंडित और निरक्षर दोनों में अपनी-अपनी महत्व है जो आत्म से होकर व्यापक समाज तक जाता है। तुलसीदास के काव्य का अमिट प्रभाव न केवल भक्तिकाल की रामकाव्य धारा पर पड़ा अपितु वर्तमान काल के समूचे हिन्दी साहित्य पर उनका व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
भारतीय जनमानस पर रामचरितमानस का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है, जिसका कारण तुलसी की लोक चिंता थी इनके काव्य में समाज की विभिन्न धाराओं, संस्कारों का सुन्दर वर्णन मिलता है। उन्होंने श्रीराम के चरित्र के द्वारा आदर्श समाज को स्थापित किया है- एक आदर्श पुत्र, आदर्श मित्र, आदर्श राजा और आदर्श पति का उदाहरण दिया है। तुलसीदास ने ‘श्रीरामचरितमानस’ के द्वारा लोककल्याण की कामना करते हुए समाज को नैतिकता एवं सदाचार का अविस्मरणीय पाठ पढ़ाया है। तुलसी अपने काव्य में सर्वजन हितायः, सर्वजन सुखायः का भाव रखते हैं लेकिन उनका समाजहित वाला भाव उनके भक्ति भाव के सामने थोड़ा संकुचित हो जाता है। तुलसी ने समसामयिक सामाजिक परिवेश जीवन मूल्यों की वास्तविकता पर अपनी रचनाओं से प्रकाश डाला है और उनकी भक्ति भावना और धार्मिक विश्वासों के आधार पर कहा जा सकता है कि धर्म का मुख्य काम आमजन की सेवा और उनके दुःखों का निवारण करना था।
तुलसीदास ने तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक विकृतियों को दृष्टिगत रखकर आदर्श समाज रामराज्य की परिकल्पना की जिसके लिए समाज को संघर्ष करने की प्रेरणा दी। इसका एक उदाहरण हमें सीता हरण के समय लंका पर आक्रमण के लिए वहीं की जनता को संगठित कर उनमें चेतना और साहस पैदा कर आम जन में नेतृत्व की क्षमता को उजागर किया है। राम चाहते तो अयोध्या से सेना मंगवा सकते थे लेकिन राम ने ऐसा नहीं किया। तुलसीदास जी की रचनाएँ हमारी जनता में साहस और आत्मविश्वास भरती है। वे उसे अपना भाग्य स्वयं अपने हाथों बनाना सिखाती है। तुलसीदास ने जिस न्यायपूर्ण और सुखी समाज की कल्पना की थी, वह एक नये रूप में पूरा होगा।
दर्शन के स्तर पर वे गुरु के गुरु रामानुजाचार्य के सिद्धांत ‘विशिष्टाद्वैत’ से प्रभावित थे। रामानुज के मतानुसार अवतार राम विष्णु भक्ति के उपास्य हैं। ब्रह्मा सगुण और सविशेष हैं। भक्ति ही मुक्ति का साधन है। भगवान की शरण में दास्य भाव से प्रस्तुत होकर जीव का कल्याण हो सकता है। तुलसीदास ने इस विचार को जनसाधारण की भाषा में समझाया।
गोस्वामी तुलसीदास का सम्पूर्ण साहित्य लोकमंगल के उच्च उद्देश्यों, उच्च मानवीय मूल्यों के स्थापना के निमित्त है उनके साहित्य को पढ़कर निश्चित रूप से पाठक वह नहीं रह जाता, जो उसके पढ़ने से पूर्व था। उसके चरित्र पर उत्कर्षकारी प्रभाव पड़ता है और रामादि पात्रों का उच्च मानवीय मूल्य उसके मस्तिष्क को आच्छादित कर देते है। तुलसी के यहाँ राम आदर्श पुत्र, आदर्श मित्र, भ्राता, शिष्य और आदर्श शासक हैं; शान्तिशील समुद्र हैं। उनकी प्रीति, दया, आत्मत्याग, करुणार्द्रता, मर्यादा और मानवीय मूल्यों के स्थापना के लिए समर्पित हृदय और शक्ति उनके रामत्व का निर्माण करता है। उनका धर्म-अधर्म की कसौटी ‘मानव-हित’ है तुलसी उस सभी को मनुष्यता के आधार पर अपनी करुणा का पात्र बनाते हैं जो प्रताड़ित है उपेक्षणीय हैं। उनके खल पात्र भी सद्गुणों से नितान्त विहिन नहीं हैं। तुलसी सही मायने में मानववादी है। मनुष्य की श्रेष्ठता और क्षमता में उनका दृढ़ विश्वास है- ‘बड़े भाग मानुष तन पावा’। उनके मानवीय मूल्य स्नेह, त्याग, करुणा, विनम्रता, तेजस्विता, आत्मत्याग, सहानुभूति, सहिष्णुता और रामत्व से मिलकर निर्मित हुआ है। उनका सम्पूर्ण साहित्य लोकमंगल के लिए लिखा गया है जो पीड़ितों के प्रति आगध सहानुभूति रखता है।
तुलसी की भक्ति-भावना लोकमंगल से प्रेरित है। उन्होंने राम के चरित्र में शील, शक्ति और सौंदर्य को विकसित करके लोकसंग्रह की साधना के मार्ग को प्रशस्त किया। इसके अतिरिक्त समाज में समरसता लाने के लिए उन्होंने समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाया। राम और शिव में परस्पर भक्तिभाव चित्रित करके वैष्णवों और शैवों में विरोध समाप्त किया। भक्ति और ज्ञान का, निर्गुण-सगुण का, गृहस्थी और वैराग्य का समन्वय किया।
तुलसी के आराध्य श्री राम विष्णु के अवतार हैं और वे मनुष्यों की तरह माँ के गर्भ से उत्पन्न होते हैं, सामान्य जीवनचर्या में संलग्न होते हैं और फिर समाज में धर्म (व्यवस्था) की सुस्थापना के लिए, समाज को नैतिक व मानवीय बनाने के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। उनके जीवन में धर्म और नीति से ऊपर कुछ भी नहीं है। इसके लिए उन्हें व्यक्तिगत जीवन में त्याग करना पड़ता है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। समाज मर्यादा से, अनुशासन से दीर्घजीवी होता है। इसलिए श्रीराम स्वप्न में भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं। उनका जीवन भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का अजस्र स्रोत है।
रामराज्य तुलसी का वह स्वप्न है जिसे वे अपनी समकालीन दुर्व्यवस्था अर्थात् कलियुग को तोड़कर स्थापित होते देखना चाहते थे। इस दुर्व्यवस्था के नाश और दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित व्यवस्था यानी रामराज्य की स्थापना के माध्यम है तुलसी के राम।
तरुण कुमार दाधीच