नामदेव महाराष्ट्र के पहले ऐसे संत हैं जिन्होंने विट्ठल नाम भक्ति का परचम महाराष्ट्र से बाहर भी फहराया। गुजरात, राजस्थान होते हुए पंजाब तक पहुंच कर संत नामदेव ने जो कार्य किया उसे महान राष्ट्रीय कार्य ही कहा जा सकता है। सिक्खों के धर्मग्रंथ गुरु ग्रंथ साहब में संत नामदेव द्वारा लिखित ६३ अभंगों (भजनों) का समावेश है। ये बात मराठी जनमानस के लिए तो गौरव की बात है ही, संपूर्ण भारत के लिए भी ये कम गौरव का विषय नहीं है।
संत नामदेव जी का जन्म महाराष्ट्र के गाँव नरसी ब्राह्मणी में २९ अक्तूबर, १२७० (संवत १३२७, कार्तिक शुक्ल एकादशी) को हुआ था। यह गाँव जि़ला सितारा में है और अब इसका नाम नरसी नामदेव है। उन के पिता जी का नाम दामा शेठ ‘‘शिल्पी’’ और माता जी का नाम गोनाबाई था। उनके पिता जी छीपे थे जो कपड़ों की सिलाई का काम करते थे। उन्होंने ईश्वर की भक्ति और गृहस्थ जीवन की श्रेष्ठता पर ज़ोर दिया।
संत ज्ञानदेव और दूसरे संतों के साथ आप ने सारे देश का भ्रमण किया। आप पंजाब के गुरदासपुर जि़ला के गाँव घुमाण में बीस साल रहे। आप ने मराठी, हिंदी और पंजाबी में काव्य रचना की। आप की वाणी गुरू ग्रंथ साहिब में भी दर्ज है। इनकी ज्ञानेश्वरजी से भेंट हुई और उनकी प्रेरणा से इन्होंने नाथपंथी विसोबा खेचर से दीक्षा ली। जो नामदेव पंढऱपुर के ‘‘वि_ल’’ की प्रतिमा में ही भगवान को देखते थे, वे खेचर के संपर्क में आने के बाद उसे सर्वत्र अनुभव करने लगे। उनको प्रेमाभक्ति में ज्ञान का समावेश हो गया।
गुरु प्राप्ति
एक समय महान संत ज्ञानेश्वरजी अपने भाइयों निवृति, सोपान तथा बहन मुक्ताबाई के साथ पंढऱपुर आए। वहां चंद्रभागा नदी तट पर नामदेव जी को कीर्तन करते देख बहुत प्रभावित हुए। ज्ञानेश्वरजी निर्गुण के उपासक थे। नामदेवजी के लिए पंढरपुर को छोडकर जाना मृत्यु के सामान प्रतीत होता था; परंतु ज्ञानेश्वरजी के विशेष आग्रह पर वे संतों की मण्ड़ली में चल पडे।
अब तक नामदेवजी ने कोई गुरु नहीं किया था। वे केवल विठ्ठल को ही अपना गुरु मानते थे। मार्ग में मण्डली एक जगह पर रुकी। सत्संग के पश्चात् संत गोरा कुम्हारजी को संत मंडली ने आग्रह किया कि वे सबको मटके की भांति परखकर पक्का अथवा कच्चा बताएं। संत गोरा कुम्हारजी ने उनके नित्य काम की एक लकडी से (थपकनी से) सबके सिर बजाकर देखे, (जैसे कुम्हार मटकों को बजा कर देखता है) उस समय सब शांत रहे। जब उनकी बारी आई तो गोरा ने उनके मस्तक पर डंडा रखा और बोले- ‘यह बर्तन कच्चा है।’ तो नामदेवजी रोने लगे। यह देखकर सभी संत हंसने लगे।
फिर नामदेव से आत्मीय स्वर में बोले- ‘तपस्वी श्रेष्ठ, आप निश्चय ही संत हैं, किंतु आपके हृदय का अहंकार रूपी सर्प अभी मरा नहीं है, तभी तो मान-अपमान की ओर आपका ध्यान तुरंत चला जाता है। यह सर्प तो तभी मरेगा, जब कोई सद्गुरु आपका मार्गदर्शन करेगा।’
इससे नामदेवजी बडे आहत हुए और वहां से सीधे विठ्ठल के पास आए तथा चरणों में गिरकर रोने लगे। भगवान ने उनको गुरु करने के लिए कहा, तो वह कहने लगे कि ‘जब मुझे आपके दर्शन ही हो गए तो मुझे गुरु की क्या आवश्यकता है?’ भगवान ने कहा, ‘‘नामदेव जब तक तू गुरु नहीं करता, तब तक तू मेरे वास्तविक स्वरुप को नहीं पहचान सकता।’’ भगवान ने उन्हें संत विसोबा खेचर के पास जाने को कहा। जो ज्ञानेश्वरजी के शिष्य थे। पढंरपुर से ५० कोस की दूरी पर औढिया नागनाथ गांव में जाकर उन्होंने संत विसोबा के घर की पूछताछ की। लोगों ने उन्हें शिव मंदिर में ढूंढने को कहा। वे जब शिव मंदिर में गए तो, उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति शिव-पिंडी पर पांव रखकर सो रहा है। वे विस्मित होकर बोले, ‘‘अरे! भगवान पर पांव रखकर सो रहा है, तू अंधा है क्या?’’ संत विसोबा बोले ‘‘तू ही जरा सोचकर मेरे पांव वहां रख दे, जहां भगवान नहीं है।’’ नामदेव ने इधर-उधर चहूं ओर देखा। उसे चहूं ओर भगवान दिखाई देने लगे और वे लज्जित हो कर विसोबा के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे। संत विसोबा ने उनको उठाकर गले से लगाया और शिष्य के रूप में स्वीकार किया तथा सर्वव्यापी परमेश्वरका ज्ञान करवाया।
निर्गुण भक्त नामदेव जीः-
बिसोबा खेचर से दीक्षा लेने के पूर्व तक ये सगुणोपासक थे। पंढरपुर के वि_ल (विठोबा) की उपासना किया करते थे। दीक्षा के उपरांत इनकी वि_लभक्ति सर्वव्यापक हो गई। महाराष्ट्रीय संत परंपरा के अनुसार इनकी निर्गुण भक्ति थी, जिसमें सगुण निर्गुण का कोई भेदभाव नहीं था। उन्होंने मराठी में कई सौ अभंग और हिंदी में सौ के लगभग पद रचे हैं। इनके पदों में हठयोग की कुंडलिनी-योग-साधना और प्रेमाभक्ति की (अपने ‘‘राम’’ से मिलने की) ‘‘तालाबेली’’ (विह्वलभावना) दोनों हैं। निर्गुणी कबीर के समान नामदेव में भी व्रत, तीर्थ आदि बाह्याडंबर के प्रति उपेक्षा तथा भगवन्नाम एवं सतगुरु के प्रति आदर भाव विद्यमान है। कबीर के पदों में यत्र-तत्र नामदेव की भावछाया दृष्टिगोचर होती है।
नामदेव जी के जीवन की अलौकिक घटनाएँ
ठाकुर को दूध पिलानाः-
एक दिन नामदेव जी के पिता किसी काम से बाहर जा रहे थे। उन्होंने नामदेव जी से कहा कि अब उनके स्थान पर वह ठाकुर की सेवा करेंगे, जैसे ठाकुर को स्नान कराना, मन्दिर को स्वच्छ रखना व ठाकुर को दूध चढ़ाना। जैसे सारी मर्यादा मैं पूर्ण करता हूँ, वैसे तुम भी करना। देखना लापरवाही या आलस्य मत करना, नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे।
नामदेव जी ने वैसा ही किया जैसे पिताजी समझाकर गए थे। जब उसने दूध का कटोरा भरकर ठाकुर जी के आगे रखा और हाथ जोडक़र बैठा व देखता रहा कि ठाकुर जी किस तरह दूध पीते हैं? ठाकुर ने दूध कहाँ पीना था? वह तो पत्थर की मूर्ति थे। नामदेव को इस बात का पता नहीं था कि ठाकुर को चम्मच भरकर दूध लगाया जाता व शेष दूध पंडित पी जाते थे। उन्होंने बिनती करनी शुरू की- हे प्रभु! मैं तो आपका छोटा सा सेवक हूँ, दूध लेकर आया हूँ, कृपा करके इसे ग्रहण कीजिए। भक्त ने अपनी बेचैनी इस प्रकार प्रकट की –
हे प्रभु! यह दूध मैं कपिला गाय से दुह कर लाया हूँ। हे मेरे गोबिंद! यदि आप दूध पी लेंगे तो मेरा मन शांत हो जाएगा, नहीं तो पिताजी नाराज़ होंगे। सोने की कटोरी मैंने आपके आगे रखी है। पीए! अवश्य पीए! मैंने कोई पाप नहीं किया। यदि मेरे पिताजी से प्रतिदिन दूध पीते हो तो मुझसे आप क्यों नहीं ले रहे? हे प्रभु! दया करें। पिताजी मुझे पहले ही बुरा व निकम्मा समझते हैं। यदि आज आपने दूध न पिया तो मेरी खैर नहीं। पिताजी मुझे घर से बाहर निकाल देंगे।
जो कार्य नामदेव के पिता सारी उम्र न कर सके वह कार्य नामदेव ने कर दिया। उस मासूम बच्चे को पंडितों की बईमानी का पता नहीं था। वह ठाकुर जी के आगे मिन्नतें करता रहा। अन्त में प्रभु भक्त की भक्ति पर खिंचे हुए आ गए। नामदेव ने इसका जिक इस प्रकार किया है –
ऐकु भगतु मेरे हिरदे बसे। नामे देखि नराइनु हसै।।
(पन्ना 1163)
एक भक्त प्रभु के हृदय में बस गया। नामदेव को देखकर प्रभु हँस पड़े। हँस कर उन्होंने दोनों हाथ आगे बढाएं और दूध पी लिया। दूध पीकर मूर्ति फिर वैसी ही हो गई।
दूधु पीआई भगतु घरि गइआ। नामे हरि का दरसनु भइआ।।
(पन्ना 1163-64)
दूध पिलाकर नामदेव जी घर चले गए। इस प्रकार प्रभु ने उनको साक्षात दर्शन दिए। यह नामदेव की भक्ति मार्ग पर प्रथम उपल4िध थी। जब आपके पिताजी को यह ज्ञान हुआ कि आपने ठाकुर में जान डाल दी व दूध पिलाया तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने समझा उनकी कुल पर6परा धन्य हो गई है।
छान छा नामदेव जी
एक बार नामदेव जी की कुटिया में आग लग गयी और ये प्रेम में मस्त होकर दूसरी ओर की वस्तु भी अग्नि में फैंकते हुए कहने लगे- ‘‘स्वामी। आज तो आप लाल-लाल लपटों का रूप बनाए बड़े अच्छे पधारे किन्तु एक ही ओर क्यों दूसरी ओर की इन वस्तुओं ने क्या अपराध किया है, आप इन्हें भी स्वीकार करें।’’ कुछ देर बाद में आग बुझ गई। उनकी चिन्ता करने वाले विठ्ठल स्वयं मजदूर बनकर पधारे और उन्होनें कुटिया बनाकर छान छा दी। तब से पांडुरंग नामदेव जी छान छा देने वाले प्रसिद्ध हुए।
भगवान को भोग
एक बार नामदेव जी किसी जंगल में पेड़ के नीचे रोटी बना रहे थे। इतने में एक कुत्ता आया और रोटियाँ मुहँ में उठाकर भाग चला। नामदेव जी ने घी का कटोरा हाथ में लेकर यह पुकारते हुए कुत्ते के पीछे दौड़े- ‘‘भगवन ! रोटियाँ रुखी हैं, अभी चुपड़ी नहीं हैं। मुझे घी तो लगाने दीजिये, फिर भोग लगाइये।’’ जब भगाते भागते वे थक गए तो रूककर रोने लगे। जैसे ही रोये वैसे ही नामदेव का भाव देखकर भगवान को कुत्ते में होना पडा। भगवान ने कुत्ते का रूप त्यागकर शंख-चक्र-गदा-पदम् धारण किये। नामदेव जी ने दिव्य चतुर्भुज रूप में भगवान का दर्शन किया।
भक्ति की षक्ति
नामदेव जी संत ज्ञानेश्वर और अन्य संतों के साथ भारत भ्रमण को गए। मण्डली ने सम्पूर्ण भारत के तीर्थों की यात्रा की, भ्रमण करते करते जब मण्डली मारवाड के रेगिस्तान में पहुंची। तो सभी को बहुत प्यास लगी। फिर एक कुआ मिला पर उस का पानी बहुत गहरा था। और पानी निकालने का कोई साधन भी नहीं था।
ज्ञानेश्वर जी अपनी लघिमा सिद्धि के द्वारा पक्षी बनकर पानी पीकर आ गए। संत ज्ञानेश्वर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और नामदेव जी सगुण साकार ब्रह्म को भजते थे। नामदेव जी ने वहीं पर कीर्तन आरंभ किया और भगवान को पुकारने लगे। कुआ पानी से भरकर बहने लगा। सभी ने अपनी प्यास बुझाई। यह कुआ आज भी बीकानेर से १० मील दूर कलादजी में मौजूद है।
संत ज्ञानेष्वर का बिछोह
ज्ञानदेव से इनकी संगति इतनी प्रगाढ हुई कि ज्ञानदेव इन्हें लंबी तीर्थयात्रा पर अपने साथ ले गए और काशी, अयोध्या, मारवाड (राजस्थान) तिरूपति, रामेश्वरम आदि के दर्शन-भ्रमण किए। फिर सन् १२९६ में आलंदी में ज्ञानदेव ने समाधि ले ली और तुरंत बाद ज्ञानदेव के बडे भाई तथा गुरु ने भी योग क्रिया द्वारा समाधि ले ली। इसके एक महीने बाद ज्ञानदेव के दूसरे भाई सोपानदेव और पांच महीने पश्चात मुक्तबाई भी समाधिस्थ हो गई।
नामदेव अकेले हो गए। उन्होंने शोक और विछोह में समाधि के अभंग लिखे। इस हृदय विदारक अनुभव के बाद नामदेव घूमते हुए पंजाब के भट्टीवाल स्थान पर पहुंचे। फिर वहां घुमान (जिला गुरदासपुर) नामक नगर बसाया। तत्पश्चात मंदिर बना कर यहीं तप किया और विष्णुस्वामी, परिसाभागवते, जनाबाई, चोखामेला, त्रिलोचन आदि को नाम-ज्ञान की दीक्षा दी।
संत नामदेव अपनी उच्चकोटि की आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए ही विख्यात हुए। वे मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है। तथा परमात्मा की बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार) की सेवा करना ही सच्ची पूजा है। इसी से साधक भक्त को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है।
भगवन्नाम का प्रसारन्
संत ज्ञानेश्वरजी के चिरविरह से व्याकुल होकर वे पुन: उतर भारत में भगवन्नाम के प्रसार हेतु गए। वे प्रथम द्वारका वहां से मारवाड, मथुरा, हरिद्वार तत्पश्चात् पंजाब के अमृतसर मंडल के (जिला) भूतविंड गांव में गए। यहां उन्हें बहोरदास नाम का शिष्य मिला। वहां से गुरुदासपुर मंडल के मरड गांव में कुछ दिन रुके। आगे भट्टीवाल पहुंचे, यहांपर जल्लो और लद्धा दो शिष्य मिले, यहाँ का तडग (तालाब) आज भी ‘नामियाना’ नामसे प्रसिद्ध है। अंत में वे घुमान जिले में गए। वहां उन्हें केशो नामक शिष्य मिला। घुमान के सीमित क्षेत्र में उनका ‘संप्रदाय’ अब भी चल रहा है। घुमान गांव में उनकी स्मृति में समाधि मंदिर बनाया गया। उन्होंने १८ वर्षो तक पंजाब में भगवन्नाम का प्रचार किया। भक्त नामदेवजी की वाणी में सरलता है। वह हृदय को बांधे रखती है। उनके प्रभु भक्ति भरे भावों एवं विचारों का प्रभाव पंजाब के लोगों पर आज भी है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में उनके ६१ पद, ३ श्लोक, १८ रागों में संकलित हैं। वास्तव में श्रीगुरुग्रंथ साहिब में नामदेवजी की वाणी अमृत का वह निरंतर बहता हुआ झरना है, जिसमें संपूर्ण मानवता को पवित्रता प्रदान करने का सामथ्र्य है। निर्गुण भक्ति के संतों में अग्रिम संत नामदेव उ8ार-भारत की संत परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं। मराठी संत-परंपरा में वह सर्वाधिक पूज्य संतों में एक हैं।
उनकी सेविका जनाबाई ने भी श्रेष्ठ अभंगों की रचना की। संत नामदेव मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है तथा परमात्मा की बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार)की सेवा करना ही सच्ची पूजा है। इसी से साधक भक्त को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। सभी जीवों का कर्ता-धर्ता एवं रक्षक, पालनकर्ता विठ्ठलराम ही है, जो इन सबमें मूर्त भी है और ब्रह्मांड में व्याप्त अमूर्त भी है; इसलिए नामदेव कहते हैं –
जत्रजाऊँ तत्र बीठलमेला।
बीठलियौराजा रांमदेवा।
सृष्टि में व्याप्त इस ब्रह्म-अनुभूति के और इस सृष्टि के रूप आकार वाले जीवों के अतिरिक्त उस विठ्ठल का कोई रूप, रंग, रेखा तथा पहचान नहीं है। वह ऐसा परम तत्व है कि उसे आत्मा के नेत्रों से ही देखा और अनुभव किया जा सकता है। गोविंद का नाम स्मरण करना ही नामदेवकी सबसे बडी सीख है। कबीर के पदों में यत्र-तत्र नामदेव की भावछाया स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। कबीर के पूर्व नामदेव ने उतर भारत में निर्गुण भक्ति का प्रचार किया, जो निर्विवाद है।
भगवान भक्ति, सदाचार, एकता, समता के अमर संदेश दिये संत शिरोमणि नामदेव कहलाये और कलि के नाम नामदेव पाये जग विख्यात है। संत नामदेव जी एक ऐसे सदगृहस्थ संत हुए हैं जो अपने जीवन के ८० वर्षो तक निरंतर भगवान विटठ्ल की भक्ति प्रेम में लीन रहें और भागवत धर्म का प्रचार प्रसार किया। अंत में भगवान विटठ्ल की आज्ञा से आषाढ़ वदी त्रयोदशी शनिवार शालिवाहन शक १२७२ अर्थात ३ जुलाई १३५० ई. को पंढरपुर में भगवान विटठ्ल के महाद्वार की पायरी के नीचे संत जी महाराज सपरिवार समाधिस्थ हुए। जिससे भगवद् दर्शन को जाने वाले हर भक्त की चरण रज का पावन स्पर्श उन्हें सदैव होता रहे।
अनुराग मेडतवाल
व्याख्याता – डाइट, उदयपुर