हिन्दुस्तान में विभिन्न पंथों, समुदायों और जातियों का समावेश है इसलिए
यहाँ अनेकता में एकता के दर्शन होते हैं। यह हमारे देश के लिए गर्व
की बात है कि यहाँ सभी धर्मों के त्योहारों को प्रमुखता से मनाया
जाता है चाहे वह दीपावली हो, होली हो,
अग्रसेन या विश्वकर्मा जयंती हो या फिर भगवान झूलेलाल जयंती।
इस पर्व से जुड़ी हुई वैसे तो कई किवंदतियाँ हैं परंतु प्रमुख यह है कि चूँकि सिंधी समुदाय व्यापारिक वर्ग रहा है अतः ये व्यापार के लिए जब जलमार्ग से गुजरते थे तो कई विपदाओं का सामना करना पड़ता था। जैसे समुद्री तूफान, जीव-जंतु, चटानें व समुद्री दस्यु गिरोह जो लूटपाट मचाकर व्यापारियों का सारा माल लूट लेते थे। इसलिए इनके यात्रा के लिए जाते समय ही महिलाएँ वरुण देवता की स्तुति करती थीं व तरह-तरह की मन्नते माँगती थीं। चूँकि भगवान झूलेलाल जल के देवता हैं अतः ये सिंधी लोग के आराध्य देव माने जाते हैं। जब पुरुष वर्ग सकुशल लौट आता था।तब से वरुणावतार की स्मृति में चेटीचंड को उत्सव के रूप में मनाया जाता है। मन्नतें पूरी की जाती है व भंडारा किया जाता है। समूचे विश्व में फैले सिंधी समुदाय के लोग प्रतिवर्ष चैत्रमास की चन्द्रतिथि को अपने आराध्य देव संत झूलेलाल का जन्मोत्सव प्रेम-भाईचारे एवं राष्ट्रीय एकता के पर्व रूप में मनाते हैं। इस दिन को ‘सिंधी दिवस’ या ‘सिंधियत’ भी कहा जाता है। जलपति वरुणावतार भगवान झूलेलाल भगवान श्री कृष्ण के ही अवतार माने जाते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार संत झूलेलाल के संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि लगभग 1068 वर्ष पूर्व सिंध (पाकिस्तान) में मुगल बादशाह मिरखशाह के अत्याचारों से जनता बेहद त्रस्त थी। बादशाह मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए जनता पर जुल्म ढाने लगा तो चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई और इस संकट की घड़ी में त्रस्त लोगों ने सिंधु नदी के तट पर वरुण देव की पूजा-अर्चना कर बादशाह के अत्याचारों से छुटकारा पाने की प्रार्थना की।
लगभग सात दिन तक लोगों ने ‘वरुण देव’ की पूजा की। तब अपने भक्तों की पुकार सुन वरुण देवता मछली पर सवार होकर संत ‘झूलेलाल’ के रूप में प्रकट हुए और कहा कि वह शीघ्र ही अत्याचारियों का नाश करने के लिए नसीरपुर शहर में रतन राय के घर जन्म लेंगे। कुछ समय बाद संत झूलेलाल ने माता देवकी की कोख से जन्म लिया और बालक का नाम घर वालों ने ‘उदयचंद्र’ रखा लेकिन माता ने बालक को ‘झूलेलाल’ के नाम से पुकारा। संत झूलेलाल के अलौकिक क्रिया कलापों को देखकर ऐसा लगने लगा कि मानो सर्वत्र सुख-शांति, प्रेम और भाईचारे के लिए जन्मे हैं। उन्होंने अपने श्रद्धालुओं को आदेश दिया कि वे किसी भी धर्म पर कटाक्ष न करें तथा शांति बनाए रखें।
जब संत झूलेलाल के बारे में बादशाह मिरख शाह को खबर लगी तो उसने उन्हें अगवा करने के लिए अपने वजीर एवं सेना को भेजा लेकिन वे इस अवतारी पुरुष को देखकर भयभीत हो गए और उनके पास जाने की कोई हिम्मत न जुटा पाया, अतः वजीर सेना समेत बादशाह के पास लौट आए उन्होंने मिरख शाह से कहा कि वह कोई साधारण बालक नहीं है बल्कि एक चमत्कारी पुुरुष हैं। बादशाह ने अहंकारवश एक न सुनी और उसने एक बड़ी सेना संत झूलेलाल को पकडने के लिए भेजी दी। तब संत झूलेलाल ने बादशाह का घमंड चूर करने के लिए उसके महल पर अपनी दिव्य शक्ति से कहर बरपा दिया। देखते ही देखते महल धूँ-धूँ कर जलने लगा। बादशाह यह देखकर इतना घबराया कि वह दल-बल समेत संत झूलेलाल के चरणों में आ गिरा और माफी की दुआ करने लगा। चारों तरफ चीख-पुकार सुनकर संत झूलेलाल ने अग्नि देव और वायुदेव को शांत कर दिया। अब तो बादशाह व उसकी सेना पूरी तरह से संत झूलेलाल के मुरीद बन, उनके बताए मार्ग पर चलने लगे। आज भी समुद्र के किनारे रहने वाले जल के देवता भगवान झूलेलाल जी को मानते हैं। इन्हें अमरलाल व उडेरोलाल भी नाम दिया गया है। भगवान झूलेलाल ने धर्म की रक्षा के लिए कई साहसिक कार्य किए जिसके लिए इनकी मान्यता इतनी ऊँचाई हासिल कर पाई। संत झूलेलाल से बादशाह मिरखशाह इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनके जन्म स्थल पर एक भव्य-मंदिर बनवाया और उसका नाम ‘जिंदा पीर’ रखा। तभी से यह स्थान हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लिए पवित्र तीर्थस्थल बन गया जहाँ आज भी लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने जाते हैं। संत झूलेलाल ने अपने भक्तों से कहा कि मेरा वास्तविक रूप जल एवं ज्योति ही है। इसके बिना संसार जीवित नहीं रह सकता।
उन्होंने न केवल सिंधी समुदाय की ही रक्षा नहीं की बल्कि मुसलमानों को भी नेकनीयती का रास्ता दिखलाया और आपसी वैमनस्य की खाई को भी पाटने का कार्य किया। उन्होंने अपने संदेश में ज्ञान एवं एकता पर बल देते हुए धर्म व जाति के बंधनों से ऊपर उठकर सेवा पर जोर दिया। उन्होंने समभाव से सभी को गले लगाया तथा साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश देते हुए ‘दरियाही पंथ’ की स्थापना की। सिंधी समुदाय को भगवान राम के वंशज के रूप में भी माना जाता है। राजा जयद्रथ भी सिंधी समुदाय के थे जिसका उल्लेख महाभारत काल में भी मिलता है।
समूचा सिंधी समुदाय ‘चेटीचंड पर्व’ से ही नववर्ष प्रारम्भ करता है। चेटीचंड के अवसर पर सिंधी भाई अपार श्रद्धा के साथ झूलेलाल की शोभायात्रा निकालते हैं और इस दिन ‘सूखोसेसी’ (प्रसाद) वितरित करते हैं। जिन मंत्रों से इनका आह्वान किया जाता है उन्हें ‘लाल साई’ जा ‘पंजिड़ा’ कहते हैं। वर्ष में एक बार सतत चालीस दिन इनकी अर्चना की जाती है जिसे ‘लाल साईं जो चाली हो’ कहते हैं। इन्हें ज्योतिस्वरूप माना जाता है अतः झूलेलाल मंदिर में अखंड ज्योति जलती रहती है, शताब्दियों से यह सिलसिला चला आ रहा है। ज्योति जलती रहे इसकी जिम्मेदारी पुजारी को सौंप दी जाती है। संपूर्ण सिंधी समुदाय इन दिनों आस्था व भक्ति भावना के रस में डूब जाता है। आज भी जब कोई सिंधी परिवार घर में उत्सव आयोजित करता है तो सबसे पहले यही गूँज उठती है। ‘आयोलाल झूलेलाल’ बेड़ा ही पार अर्थात इनके नाम का जयघोष करने से ही सब मुश्किलों से पार हो जाएँगे।
चेटीचंड के दिन सिंधी स्त्री-पुरुष तालाब या नदी के किनारे दीपक जला कर जल देवता की पूजा-अर्चना करते हैं। इस दिन पूरे देश में संत झूलेलाल मंदिरों में उत्सव सा दृश्य नजर आता है। झूलेलाल की शोभा यात्रा में स्त्री-पुरुष और बच्चे नाचते-गाते व जोर-जोर से ‘आयो लाल झूले लाल’ का जयकारा लगाते हुए चलते हैं। शांत व सेवा भावी प्रवृत्ति के सिंधी समुदाय के लोग प्रायः हरेक से मिलते समय बड़े प्रेम भाव से ‘हरे राम’ अवश्य उच्चारित करते हैं जो इस समुदाय की विशिष्ट पहचान है।