जब अंग्रेजों के अत्याचारों से त्रस्त हमारे देश में चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था तो ऐसे में इस वीर भूमि ने अनेक वीर सपूत पैदा किए जिन्होंने अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने के लिए अनेकों संघर्षपूर्ण प्रयत्न करते हुए हंसते-हंसते देश की खातिर प्राण न्यौछावर कर दिए। इन्हीं में तीन महान क्रांतिकारी थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव। इन तीनों ने अपने प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचारों से भारत के नौजवानों में स्वतंत्रता के प्रति ऐसी दीवानगी पैदा कर दी कि अंग्रेज सरकार को डर लगने लगा था कि कहीं उन्हें यह देश छोड़ कर भागना न पड़ जाए।
भारतीय स्वातंत्र्य के विभिन्न प्रयत्नों के अंतर्गत 1928 में लाला लाजपत राय जब लाहौर में साईमन कमीशन के विरोध में सडकों पर उतरकर जोरदार प्रदर्शन कर रहे थे, तो क्रांति के उस महानायक पर पुलिस कप्तान सांडर्स ने लाठियों से निर्मम प्रहार किया था। जिसके कारण लालाजी का देहावसान हो गया था। इस निर्मम घटनाकाण्ड का प्रतिशोध लेने के लिए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने अपने साथियों-भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, जयदेव कपूर, शिव वर्मा इत्यादि के साथ मिलकर योजना बनाई कि पुलिस कप्तान सांडर्स को मारकर लालाजी को पूरे देश की ओर से वीरोचित श्रद्धांजलि अर्पित की जाए।
लालाजी की मृत्यु के ठीक एक माह पश्चात् अर्थात 17 दिसंबर 1928 को पुलिस कप्तान सांडर्स को भारत के इन शेरों ने उस समय निपटा दिया जब वह अपने कार्यालय से बाहर निकलकर अपनी मोटरसाईकिल पर सवार होने ही वाला था। राजगुरू पहले से ही अंग्रेज अधिकारी सांडर्स की निगरानी कर रहे थे, वह जैसे ही अपने कार्यालय से बाहर आया तो भारत के शेर क्रांतिकारी राजगुरू ने अपने साथी भगत सिंह को संकेत दिया और उन्होंने अपनी गोलियों से उस निर्दयी पुलिस कप्तान को वहीं भून दिया। हैडकांस्टेबल चाननसिंह ने भगतसिंह और उनके साथियों का पीछा करना चाहता तो चंद्रशेखर आजाद ने उसे अपनी गोली का निशाना बनाकर वहीं समाप्त कर दिया।
जिस प्रकार एक सोची समझी रणनीति के अंतर्गत अपने शत्रु का विनाश करते हुए भारतीय क्रांतिकारियों के महान आदर्श लाला लाजपतराय जी को जिस प्रकार श्रद्धांजलि अर्पित की गयी थी, उसी को अंग्रेजों ने अपनी भाषा में लाहौर षडयंत्र केस के नाम से इतिहास में कुख्यात किया। इस केस में चंद्रशेखर आजाद, दुर्गावती, सुशीला दीदी, वैशंपायन, लेखराम, सुखदेव राज, हंसराज, सीताराम, प्रेमनाथ, संपूर्णसिंह, छैलबिहारीलाल, यशपाल व प्रकाशवती को फरार घोषित किया गया। उनके साथ जिन लोगों पर लाहौर षडयंत्र केस में सम्मिलित होने का आरोप था – उनमें सुखदेव, किशोरीलाल, शिव वर्मा, गयाप्रसाद, जितेन्द्रनाथ दास, जयदेव कपूर, बटुकेश्वर दत्त, कमलानाथ त्रिवेदी, जितेन्द्र सान्याल, आशाराम, देशराज, प्रेमदत्त, महावीर सिंह, सुरेन्द्र पाण्डे, अजय घोष, विजय कुमार सिंह, राजगुरू, कुंदन लाल का नाम भी सम्मिलित था।
ये आजादी के दीवाने राष्ट्रीय चरित्र की न्यूनता वाले कुछ अपने ही स्वजनों की कृपा से अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए । वहीँ भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बहरों को सुनाने के लिए बम धमाका कर उच्च स्वर में हिन्दुस्थान की आजादी की मांग रखी एवं भागने की जगह स्वयं को गिरफ्तार करवा दिया। भगत सिंह और उनके साथी न्यायालय परिसर में आने पर देशभक्ति के गीत गाते आते थे। क्रांति की सफलता के लिए नारे लगाते थे-जिन्हें उस समय के समाचार पत्रों में पर्याप्त स्थान भी मिलता था। 7 अक्टूबर 1930 को इस केस का निर्णय आया था। जिसमें राजगुरू, सुखदेव व सरदार भगतसिंह को फांसी की सजा दी गयी थी। इस पर भगत सिंह और उनके साथियों ने वॉयसराय से दया करने की याचिका करना उचित नहीं माना था। विजय कुमार सिंह, महावीर सिंह, किशोरीलाल, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव तथा कमलानाथ त्रिवेदी को आजीवन काला पानी की सजा, कुंदनलाल को सात वर्ष, तथा प्रेमदत्त को तीन वर्ष की कैद की सजा दी गयी थी। जितेन्द्र नाथ दास (यतीन्द्र नाथ दास) का मुकदमे की सुनवाई के समय 63 दिन के उपवास के पश्चात देहांत हो गया था। बटुकेश्वर दत्त को पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण केस में बरी कर दिया गया था। जय गोपाल और हंसराज वोहरा मुखबीर होने के कारण क्षमा कर दिये गये थे। इस आदेश के विरूद्ध 8 अक्टूबर 1930 को सारे देश के प्रमुख शहरों में हड़ताल की घोषणा की गयी और लोगों ने ब्रिटिश सरकार के इस निर्णय पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी। ब्रिटिश सरकार ने 24 मार्च 1931 को तीनों को एक साथ फांसी देने की सजा देना निश्चित कर लिया था। इनकी फांसी की बात सुनकर लोग इतने भड़क चुके थे कि उन्होंने भारी भीड़ के रूप में उस जेल को घेर लिया। अंग्रेज इतने भयभीत थे कि कहीं विद्रोह न हो जाए तो इसी बात को मद्देनजर रखते हुए उन्होंने एक दिन पहले यानी 23 मार्च 1931 की रात को ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी और चोरी छिपे उनके शवों को जंगल में ले जाकर जला दिया। जब लोगों को इस बात का पता चला तो वे गुस्से में उधर भागे आए।
अपनी जान बचाने और सबूत मिटाने के लिए अंग्रेजों ने उन वीरों की अधजली लाशों को बड़ी बेरहमी से नदी में फिकवा दिया। छोटी उम्र में आजादी के दीवाने तीनों युवा अपने देश पर कुर्बान हो गए। आज भी ये तीनों युवा पीढ़ी के आदर्श हैं। शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु इन तीनों की शहादत को पूरा संसार सम्मान की नजर से देखता है और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।
23 मार्च वास्तव में भारत का वास्तविक शहीदी दिवस है, क्योंकि यह हमारे छोटी आयु में ही देश पर जान कुर्बान करने वाले उन क्रांतिकारी शहीदों की स्मृतियों को हमें याद दिलाता है जिनके कारण हम वास्तव में स्वतंत्र हुए। क्रांतिकारियों की यह बलिदानी परम्परा वाला स्वतंत्रता संघर्ष ही वास्तव में भारत की स्वतंत्रता का वास्तविक स्वतंत्रता संग्राम है। जिसे हमें आज समझने की आवश्यकता है। को शत्-शत् प्रणाम।
तरुण शर्मा