सुभाष चंद्र बोस का जन्म जनवरी 23 सन 1897 में उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता जानकी नाथ बोस प्रख्यात वकील थे। उनकी माता प्रभावती देवी सती और धार्मिक महिला थीं। प्रभावती और जानकी नाथ की 9 संतानें थीं, जिसमें छह बेटियां और आठ बेटे थे।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत के उन स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं, जिन्होंने आजाद भारत का सपना न सिर्फ देखा बल्कि उसके लिए जीवन की आहुति भी दे दी। उन्होंने इस सपने का हिस्सेदार सभी देशवासियों को बनाया, ताकि सब मिलकर आजाद भारत के लिए लड़ाई लड़ सकें। उनका व्यक्तित्व ऐसा रहा, जिससे आज भी भारत का युवावर्ग प्रेरणा लेता है।
- नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक विलक्षण छात्र और राष्ट्रप्रेमी थे। वह 9 भाई-बहनों में से एक थे।
- भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा में उनकी रैंक 4 थी। इसके बावजूद उन्होंने नौकरी ठुकरा दी।
- 1943 में बर्लिन में रहते हुए नेताजी ने आजाद हिंद रेडियो और फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की थी।
- नेताजी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दो बार अध्यक्ष चुना गया था। 1939 के कांग्रेस सम्मेलन में नेताजी स्ट्रेचर पर लाद कर लाया गया था
- कांग्रेस पार्टी छोड़ने के बाद नेताजी ने 1939 में फॉरवर्ड ब्लॉक नामक संगठन का गठन किया।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का क्रान्तिकारी जीवन –
भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए उन्होंने 1920 में आवेदन किया और इस परीक्षा में उनको न सिर्फ सफलता मिली बल्कि उन्होंने चौथा स्थान भी हासिल किया। परन्तु इसी समय वे जलियांवाला बाग के नरसंहार के बहुत व्याकुल हुए और 1921 में प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दिया। भारत वापस आने के बाद नेता जी गांधीजी के संपर्क में आए और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए। गाँधी जी के निर्देशानुसार उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास के साथ काम करना शुरू किया।
अपनी सूझ-बूझ और मेहनत से सुभाष बहुत जल्द ही कांग्रेस के मुख्य नेताओं में शामिल हो गए। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने इसका विरोध किया और काले झंडे दिखाए। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में अंग्रेज सरकार को ‘डोमिनियन स्टेटस’ देने के लिए एक साल का वक्त दिया गया। उस दौरान गांधी जी पूर्ण स्वराज की माँग से सहमत नहीं थे। वहीं सुभाष और जवाहर लाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की माँग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। 1930 में उन्होंने इंडीपेंडेंस लीग का गठन किया। सन 1930 के ‘सिविल डिसओबिडेंस’ आन्दोलन के दौरान सुभाष को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। गाँधीजी-इरविन पैक्ट के बाद 1931 में उनकी रिहाई हुई। सुभाष ने गाँधी-इरविन पैक्ट का विरोध किया और वे गाँधीजी के ‘सिविल डिसओबिडेंस’ आन्दोलन को रोकने के फैसले से भी वह खुश नहीं थे।
सुभाष को जल्द ही ‘बंगाल अधिनियम’ के अंतर्गत दोबारा जेल में डाल दिया गया। इस दौरान उनको करीब एक साल तक जेल में रहना पड़ा और बाद में बीमारी की वजह से उनको जेल से रिहाई मिली। उनको भारत से यूरोप भेज दिया गया। वहां उन्होंने, भारत और यूरोप के मध्य राजनैतिक और सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने के लिए कई शहरों में केंद्र स्थापित किये। उनके भारत आने पर पाबंदी होने बावजूद वो भारत आए और परिणामतः उन्हें पुनः एक साल के लिए जेल जाना पड़ा।
1937 के चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी 7 राज्यों में सत्ता में आई और इसके बाद सुभाष को रिहा किया गया। इसके कुछ समय बाद सुभाष कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन (1938) में अध्यक्ष चुने गए। अपने कार्यकाल के दौरान सुभाष ने ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ का गठन किया। 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष को दोबारा अध्यक्ष चुन लिया गया। इस बार सुभाष का मुकाबला पट्टाभि सीतारमैया से था। सीतारमैया को गाँधीजी का पूर्ण समर्थन प्राप्त था, फिर भी 203 मतों से सुभाष चुनाव जीत गए। इस दौरान द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल भी मंडराने लगे थे और अनुकूल अवसर जान सुभाष ने अंग्रेजों को 6 महीने में देश छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया। सुभाष के इस रवैये का विरोध गाँधीजी समेत कांग्रेस के अन्य लोगों ने भी किया जिसके कारण उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और
‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना की।
सुभाष ने अंग्रजों द्वारा भारत के संसाधनों का द्वितीय विश्व युद्ध में उपयोग करने का घोर विरोध किया और इसके खिलाफ जन आन्दोलन शुरू किया। उनके इस आंदोलन को जनता का जबरदस्त समर्थन मिल रहा था। इसलिए उन्हें कोलकाता में कैद कर नजरबन्द रखा गया। जनवरी 1941 में सुभाष नजरबन्दी से भागने में सफल हो गए और अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुँच गए। ‘दुश्मन का दुश्मन, दोस्त होता है’ वाली धारणा के मद्देनजर उन्होंने ब्रिटिश राज को भारत से निकालने के लिए जर्मनी और जापान से मदद की गुहार लगायी।
जनवरी 1942 में उन्होंने रेडियो बर्लिन से प्रसारण करना शुरू किया जिससे भारत के लोगों में उत्साह बढ़ा। वर्ष 1943 में वो जर्मनी से सिंगापुर आए। पूर्वी एशिया पहुंचकर उन्होंने रास बिहारी बोस से ‘स्वतंत्रता आन्दोलन’ की कमान संभाली और आजाद हिंद फौज का गठन करके स्वतन्त्रता युद्ध की तैयारी शुरू कर दी।
आजाद हिन्द फौज की स्थापना मुख्यतः जापानी सेना द्वारा अंग्रेजी फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को लेकर की गई थी। इसके बाद सुभाष को ‘नेताजी’ कहा जाने लगा। अब आजाद हिन्द फौज भारत की ओर बढ़ने लगी और सबसे पहले अंदमान और निकोबार को आजाद किया। आजाद हिंद फौज बर्मा की सीमा पार करके 18 मार्च 1944 को भारतीय भूमि पर आ धमकी। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान और जर्मनी के हार के साथ, आजाद हिन्द फौज का अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने का सपना पूरा नहीं हो सका।
क्रान्तिकारी सुभाष का हिंदी प्रेम –
नेताजी सुभाषचंद्र बोस उन दिनों बर्मा में अंग्रेजों के विरुद्ध आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को युद्ध के लिए तैयार कर रहे थे। बर्मा में व्यवसाय करने वाले भारतीयों ने नेताजी से संपर्क किया और उनके इस काम के लिए उन्होंने काफी धन जमा कर लिया, ताकि उनके राष्ट्रीय कार्य में बाधा न पड़े। वे व्यवसायी इस बात पर ध्यान देते थे कि नेताजी ने एक हिंदी भाषी व्यवसायी से हिंदी सीख रहे हैं।
सुभाष कहते थे, ‘मैं बांग्ला और अंग्रेजी तो जानता हूँ लेकिन हिंदी अच्छी तरह से नहीं जानता। उसे सीखना बहुत जरूरी है।’ एक दिन हिंदी शिक्षक नेताजी से बोले, ‘नेताजी, आप दिन भर सैनिकों से युद्ध के विषय में बातें करते हैं। आपकी अधिकतर बातचीत अंग्रेजी में ही होती है। अभी तो आपको हिंदी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। फिर आप हिंदी सीखने के लिए दृढ़संकल्प क्यों हैं?’
शिक्षक की बात सुनकर नेताजी मुस्कराते हुए बोले, ‘आपका कहना बिल्कुल ठीक है कि अभी यहाँ पर हिंदी की अधिक आवश्यकता नहीं है। लेकिन हमें दूरदर्शी होना चाहिए। जिस तरह से हम आजादी के लिए काम कर रहे हैं, उससे लगता है कि जल्दी ही भारत आजाद हो जाएगा। भारत के स्वतंत्र होने के बाद हम भारतीय जनता को अंग्रेजी भाषा से भी मुक्ति दिलाएँगे। ऐसे हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा होगी, जिसे ज्यादातर भारतीय समझेंगे और बोलेंगे। इसलिए हिंदी का अच्छा ज्ञान होना जरूरी है।’
नेताजी की दूरदर्शिता से शिक्षक बहुत प्रभावित हुआ। वह बोला, ‘ नेताजी आप धन्य हैं। आप स्वयं हिंदीभाषी नहीं हैं, लेकिन हिंदी का महत्व बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। अब पूरा भरोसा हो गया है कि आप जैसे देशभक्तों के प्रयासों से भारत आजाद होगा और जल्द होगा।’
नेताजी के क्रांतिकारी विचार-
आजादी के दौरान उन्होंने कई मौकों पर देश में और देश के बाहर अनेक सभाओं को संबोधित किया। इन्हीं संबोधनों से उनके कुछ ऐसे विचार सामने आए जिन्होंने नौजवानों में ऊर्जा भरने का काम किया। चूँकि 23 जनवरी को नेता जी की जयंती है और दो दिन बाद 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस आ रहा है। इस मौके पर हम आपको उनके कुछ ऐसे विचारों से रूबरू करा रहे हैं जो मुश्किलों से लड़ने के लिए ऊर्जा देते हैं-
1- ये हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी स्वतंत्रता का मोल अपने खून से चुकाएं। हमें अपने बलिदान और परिश्रम से जो आजादी मिले, हमारे अन्दर उसकी रक्षा करने की ताकत होनी चाहिए।
2- आज हमारे अन्दर बस एक ही इच्छा होनी चाहिए, मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके! एक शहीद की मौत मरने की इच्छा, ताकि स्वतंत्रता का मार्ग शहीदों के खून से प्रशस्त हो सके।
3- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा। (नेताजी ने यह नारा 4 श्रनसल, 1944 को बर्मा में भारतीयों के सामने दिए भाषण में दिया था।)
4- याद रखिये सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है।
5- एक सच्चे सैनिक को सैन्य और आध्यात्मिक दोनों ही प्रशिक्षण की जरूरत होती है।
6- भारत में राष्ट्रवाद ने एक ऐसी शक्ति का संचार किया है जो लोगों के अन्दर सदियों से निष्क्रिय पड़ी थी।
डॉ. अनिल कुमार दशोरा