30 मार्च 1930 और वक्त था रात के 11.30 बजे। जेनेवा के एक हॉस्पिटल में भारत मां के एक सच्चे सपूत ने आखिरी सांस ली और उसकी मौत पर लाहौर की जेल में भगत सिंह और उसके साथियों ने शोक सभा रखी, जबकि वो खुद भी कुछ ही दिनों के मेहमान थे। इस क्रांतिकारी का नाम था श्याम जी कृष्ण वर्मा। उनकी अस्थियां जेनेवा की सेण्ट जॉर्ज सीमेट्री में सुरक्षित रख दी गईं। बाद में उनकी पत्नी का जब निधन हो गया तो उनकी अस्थियाँ भी उसी सीमेट्री में रख दी गयीं।
इस घटना को 17 साल गुजर गए, देश आजाद हो गया, किसी को याद नहीं था कि उनकी अस्थियों को भारत वापस लाना है। एक एक करके पचपन साल और गुजर गए, पीढ़ियां बदल गईं। तब इस गुजराती क्रांतिकारी की अस्थियों की सुध ली एक दूसरे गुजराती ने, गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेन्द्र मोदी ने।
श्यामजी कृष्ण वर्मा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। 1918 के बर्लिन और इंग्लैंड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। मात्र बीस वर्ष की आयु से ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से आजादी के संकल्प को गतिशील करने वाले श्यामजी कृष्ण वर्मा पहले भारतीय थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड से एम.ए. और बैरिस्टर की उपाधियां मिलीं थीं। पुणे में दिए गए उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने वर्माजी को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना दिया था।
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को कच्छ के मांडवी में हुआ था। पिता की जल्दी मृत्यु के बाद उनकी पढाई मुंबई के विल्सन कॉलेज से हुई। संस्कृत से उनका नाता यहीं जुड़ा, जो बाद में ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में संस्कृत पढ़ाने के काम आया। उनकी पत्नी भानुमति एक सम्पन्न परिवार से थीं, इसी दौरान उनका सम्पर्क स्वामी दयानंद सरस्वती से हुआ और वो उनके शिष्य बन गए। पूरे देश में श्यामजी ने उनकी शिक्षाओं को प्रसारित करने के लिए दौरे किए। यहां तक कि काशी में उनका भाषण सुनकर काशी के पंडितों ने उन्हें पंडित की उपाधि दी थी। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1888 में अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज के लिए काम करना शुरू कर दिया था। मध्यप्रदेश में रतलाम और गुजरात में जूनागढ़ में दीवान रहकर उन्होंने जनहित के काम किए। 1897 में वे पुनः इंग्लैंड गए। 1905 में लॉर्ड कर्जन की ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। इसी वर्ष इंग्लैंड से मासिक ‘द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन बाद में जिनेवा में भी किया गया। इंग्लैंड में रहकर उन्होंने ‘इंडिया हाउस’ की स्थापना की।
विदेशी सरजमीं पर सक्रिय रहे भारतीय क्रांतिकारियों की चर्चा करते ही ‘इंडिया हाउस’ की चर्चा जरूर होती है। लंदन के मंहगे इलाके में श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इंडिया हाउस खोला और उसमें 25 भारतीय स्टूडेंट्स के लिए रहने-पढ़ने की व्यवस्था की, ताकि वो वहां रहकर लंदन में अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। इसके लिए श्याम जी कृष्ण वर्मा ने बाकायदा कई फेलोशिप भी शुरू कीं। ऐसी ही एक शिवाजी फेलोशिप के जरिए वीर सावरकर भी लंदन के इंडिया हाउस में रहने आए थे। वीर सावरकर ने उनके मार्गदर्शन में लेखन कार्य किया था। क्रांतिकारी शहीद मदनलाल ढींगरा उनके शिष्यों में से थे। उनकी शहादत पर उन्होंने छात्रवृत्ति भी शुरू की थी। इसी इंडिया हाउस में सावरकर ने क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी, जिसने बाद में भारत सचिव वाइली की लंदन में ही गोली मारकर उसकी हत्या कर दी। भारत सचिव ब्रिटिश सरकार का वो अधिकारी या मंत्री होता था, जिसको भारत का वायसराय रिपोर्ट करता था। इस तरह से किसी भी ब्रिटिश अधिकारी के मारने की अब तक की ये सबके बड़ी घटना रही है, वो भी उनके घर में घुसकर यानी लंदन में। साफ है कि इंडिया हाउस युवा क्रांतिकारियों का गढ़ बनता चला गया। उस वक्त यह संस्था क्रांतिकारी छात्रों के जमावड़े के लिए प्रेरणास्रोत सिद्ध हुई। इंडिया हाउस ने कई क्रांतिकारियों को शरण दीं, जिनमें भीखाजी कामा, वीर सावरकर, मदन लाल ढींगरा, वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय आदि प्रमुख थे, बाद में लाला हरदयाल भी जुड़ गए और अमेरिका से भगत सिंह के गुरू करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले की अगुआई में अमेरिका से गदर आंदोलनकारियों का जत्था
1915 में एक बड़ी क्रांति के लिए भारत भी आया, एक गद्दार की वजह से वो योजना फेल हो गई। उस गदर क्रांति को भी लाला हरदयाल और श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सहायता दी थी। इंडियन सोशियोलॉजिस्ट में उनके लिखे अंग्रेज सरकार विरोधी लेखों को लेकर श्यामजी अंग्रेजों के निशाने पर आ गए और साथ में उनका इंडिया हाउस भी। सीक्रेट सर्विस के एजेंट उन पर नजर रखने लगे थे। यहां तक कि उन पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी गईं थी। आखिरकार 1910 में अंग्रेजों ने इंडिया हाउस को बंद करवा दिया। इसके कुछ समय बाद अपनी क्रन्तिकारी गतिविधियों को जारी रखने के उद्देश्य से वे जेनेवा आ गए। जेनेवा में श्याम जी कृष्ण वर्मा की तबियत खराब रहने लगी थी। 30 मार्च, 1933 को जेनेवा के अस्पताल में वे सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गए।
ब्रिटिश सरकार ने उनकी मौत की खबर को भारत में दबाने की कोशिश की थी। उन्होंने लोकल प्रशासन और सेंट जॉज सीमेट्री के साथ अपनी और पत्नी की अस्थियां सौ साल तक रखने का करार किया, इसके लिए उन्होंने फीस भी चुकाई। इस करार में ये भी था कि इस दौरान देश आजाद होता है तो उनकी अस्थियां उनके देश वापस भेज दी जाएं, वो वतन की मिट्टी में ही मिलना चाहते थे। देश आजाद हुआ तो किसी को उनकी सुध ही नहीं रही।
इंदिरा गांधी के समय जरूर पेरिस के एक भारतीय विद्वान प्रथवेन्द्र मुखर्जी ने कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए। आजादी के लगभग 55 साल बाद 22 अगस्त 2003 को श्यामजी और उनकी पत्नी की अस्थियों को जिनेवा से भारत लाया गया और फिर उनके जन्म स्थान मांडवी ले जाया गया। उनके सम्मान में सन 2010 में मांडवी के पास ‘क्रांति तीर्थ’ नाम से इंडिया हाउस की शक्ल में ही एक शानदार स्मारक बनाया गया। भारतीय डाक विभाग ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया और कच्छ विश्वविद्यालय का नाम उनके नाम पर रख दिया गया।
दर्शना शर्मा