बड़े-बड़े समाज सुधारक और राजनेता समाज से अस्पृश्यता और छुआछूत को समाप्त करने में असमर्थ रहे, उसी कालिख को डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने संवैधानिक रूप से सदा सदा के लिए धो डाला। वास्तव में डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर सच्चे राष्ट्रभक्त और समाजसेवी थे। भारत माँ के सच्चे सपूत तथा सही अर्थों में दलितों के मसीहा थे।
एकात्म समाज निर्माण, सामाजिक समस्याओं, अस्पृश्यता जैसे सामाजिक मामलों पर बाबा साहब का मन संवेदनशील एवं व्यापक था। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ऊँच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के उन्मूलन जैसे कार्यों के लिए समर्पित कर दिया था। वे कहा करते थे- एक महान् आदमी एक आम आदमी से इस मायने में अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को सदैव तैयार रहता है।
चार अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू में जन्मे भीमराव अम्बेडकर रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की संतान थे। वह एक ऐसी हिंदू जाति से संबंध रखते थे, जिसे अछूत समझा जाता था। इस कारण उनके साथ समाज में भेदभाव किया जाता था। उनके पिता भारतीय सेना में सेवारत थे। पहले भीमराव का उपनाम सकपाल था, पर उनके पिता ने अपने मूल गाँव अंबावड़े के नाम पर उनका उपनाम अंबावडेकर लिखवाया जो बाद में अंबेडकर हो गया।
पिता की सेवानिवृत्ति के बाद उनका परिवार महाराष्ट्र के सतारा चला गया। उनकी माँ की मृत्यु के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और मुम्बई जाकर बस गए। यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1906 में मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह नौ वर्षीय रमाबाई से कर दिया गया। वर्ष 1908 में उन्होंने बारहवीं पास की। स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने मुम्बई के एलफिन्स्टन कॉलेज में दाखिला लिया। उन्हें गायकवाड़ राजा सयाजी से 25 रुपये मासिक की स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। वर्ष 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका चले गए। वर्ष 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए पीएचडी से सम्मानित किया गया। इसके बाद वे लंदन गए, किंतु बीच में ही लौटना पड़ा। आजीविका के लिए इस बीच उन्होंने कई कार्य किए। वे मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक भी रहे। इसके पश्चात एक बार फिर वह इंग्लैंड चले गए। वर्ष 1923 में उन्होंने अपना शोध ‘रुपये की समस्याएँ’ को पूरा किया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ की उपाधि प्रदान की गई। उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। स्वदेश लौटते हुए भीमराव अम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके और बॉन विश्वविद्यालय में उन्होंने अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा। 1927 में कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की।
बाबा साहब को बचपन से ही अस्पृश्यता से जूझना पड़ा। विद्यालय से लेकर नौकरी करने तक उनके साथ भेदभाव होता रहा। इस भेदभाव ने उनके मन को बहुत ठेस पहुँचाई। तभी से उन्होंने छूआछूत का समूल नाश करने की ठान ली। उन्होंने कहा कि जनजाति एवं दलित के लिए देश में एक भिन्न चुनाव प्रणाली होनी चाहिए। देशभर में घूम-घूम कर उन्होंने दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और लोगों को जागरूक किया। उन्होंने एक समाचार-पत्र ‘मूकनायक’ (लीडर ऑफ साइलेंट) शुरू किया। उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों में द अनटचेबल्स हू आर दे? हू वेयर दी शूद्राज, बुद्धा एण्ड हीज धम्मा, पाकिस्तान एण्ड पार्टिशन ऑफ इण्डिया तथा द राइज एण्ड फॉल ऑफ हिन्दू वूमन प्रमुख हैं। इसके अलावा उन्होंने 300 से भी अधिक लेख लिखे।
बाबा साहब ने दलितों, पिछड़ों, अस्पृश्यों के विरुद्ध सदियों से हो रहे अन्याय का न केवल सैद्धांतिक रूप से विरोध किया अपितु अपने कार्य कलापों, आन्दोलनों के माध्यम से उन्होंने शोषित वर्ग में आत्मबल तथा चेतना जागृत करने का सराहनीय प्रयास किया। इस प्रकार अम्बेडकर का समर्पित जीवन नव स्वतन्त्र भारत के लोगों के लिए सीखने तथा प्रेरणा का नया स्रोत बन गया।
वर्ष 1936 में डॉ. अम्बेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी की स्थापना की। अगले वर्ष 1937 के केंद्रीय विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 15 सीटों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने इस दल को ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट पार्टी में परिवर्तित कर दिया। वर्ष 1946 में संविधान सभा के चुनाव में वह खड़े तो हुए, किंतु सफलता नहीं मिली। वे रक्षा सलाहकार समिति और वायसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे। वह देश के पहले कानून मंत्री बने। उन्हें संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया।
अम्बेडकर ने हमेशा स्त्री-पुरुष समानता का व्यापक समर्थन किया। यही कारण है कि उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रथम विधिमंत्री रहते हुए ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में प्रस्तुत करते समय हिन्दू स्त्रियों के लिए न्याय सम्मत व्यवस्था बनाने के लिए इस विधेयक में व्यापक प्रावधान रखे। भारतीय संविधान के निर्माण के समय में भी उन्होंने स्त्री-पुरुष समानता को संवैधानिक दर्जा प्रदान करवाने के गम्भीर प्रयास किए।
अम्बेडकर समानता पर विशेष बल देते थे। वह कहते थे- अगर देश की अलग अलग जातियाँ एक दूसरे से अपनी लड़ाई समाप्त नहीं करेंगी तो देश एकजुट कभी नहीं हो सकता। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्मशास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के विरोधी हैं। एक सफल क्रांति के लिए केवल असंतोष का होना ही काफी नहीं है, बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है।
बाबा साहब ने जीवनपर्यन्त छुआछूत का विरोध किया। उन्होंने दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए कई सरहानीय कार्य किए। वे कहते- ‘आप स्वयं को अस्पृश्य न मानें, अपना घर साफ रखें। घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए।’
राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।’
दलित वर्ग की शिक्षा के बारे में अम्बेडकर का मत था कि दलितों के अत्याचार तथा उत्पीड़न सहन करने तथा वर्तमान परिस्थितियों को सन्तोषपूर्ण मानकर स्वीकार करने की प्रवृत्ति का अन्त करने के लिए उनमें शिक्षा का प्रसार आवश्यक है। शिक्षा के माध्यम से ही उन्हें इस बात का आभास होगा कि विश्व कितना प्रगतिशील है तथा वे कितने पिछड़े हुए है। उनका मानना था कि दलितों को अन्याय, अपमान तथा दबाव को सहन करने के लिए मजबूर किया जाता है।
बाबा साहब राजनीति को जन कल्याण का माध्यम मानते थे। वह स्वयं के बारे में कहते थे- ‘मैं राजनीति में सुख भोगने नहीं, अपने सभी दबे-कुचले भाइयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूँ। मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है मेरे बताए हुए रास्ते पर चलें।’ वे कहते थे- ‘न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है। संविधान मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं, यह जीवन का एक माध्यम है।’ निस्संदेह देश उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाएगा।
वर्ष 1950 में वे एक बौद्धिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गए जहाँ वह बौद्ध धर्म से अत्यधिक प्रभावित हुए। स्वदेश वापसी पर उन्होंने बौद्ध धर्म के बारे में पुस्तक लिखी और उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। वर्ष 1955 में उन्होंने भारतीय बौद्ध महासभा की स्थापना की। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने एक आम सभा आयोजित की जिसमें उनके पाँच लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपनाया। कुछ समय पश्चात छह दिसंबर, 1956 को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म की रीति के अनुसार किया गया।
वर्ष 1990 में मरणोपरांत उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
तरुण शर्मा