हिन्दू धर्म में रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड, हनुमान चालीसा, बजरंग बाण हर हिन्दू के लिए वन्दनीय पठनीय है। ये चमत्कारी और विलक्षण पाठ हमें महाकवि गोस्वामी तुलसी दास जी ने अपनी रामभक्ति में दिया है। आज हर राम भक्त को हनुमान चालीसा मुह जुबानी याद है। इन्हे मूल रामायण के रचनाकार वाल्मीकि जी का कलियुग अवतार भी कहा जाता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म सन 1511 ई. में सावन शुक्ल सप्तमी को उत्तरप्रदेश के राजापुर में हुआ था। यह प्रभु की विचित्र लीला थी की ये जन्म के बाद रोने के बजाय राम राम का उच्चारण कर रहे थे। इसलिए इनका नाम रामबोला रखा गया। यह सामान्य बच्चे से बहुत बड़े दिख रहे थे। पंडितों ने बताया की इनका जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ है जिसके कारण यह अपने माता पिता के ऊपर संकट रहेंगे। यह अनिष्ट समाचार सुनकर उनकी माता हुलसी ने उन्हें अपनी दासी चुनियाँ के साथ उसके घर भेज दिया। दूसरे ही दिन रामबोला की माँ का देहांत हो गया। कुछ दिन बाद उनके पिता भी देह त्याग गये। इस तरह तुलसीदास जी अनाथ हो गये। जब वे 5 साल के हुए तो उनको पालने वाली दासी चुनियाँ भी संसार से चली गयी। हालाँकि तुलसीदास जी बचपन से ही विलक्षण बुद्धि के धनी और धार्मिक थे।
जीवन की राह : शिव शंकर की कृपा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस रामबोला नाम के बालक को अपने आश्रम में जगह दी और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। अयोध्या में इनका यज्ञोपवीत-संस्कार करवाया गया और फिर शास्त्रों की शिक्षा दी जाने लगी। कुशाग्रबुद्धि तुलसी दास जी क्षण भर में सब याद कर लेते।
गुरु के सानिध्य में तुलसीदास जी ने जो सीखा उसे वे अपनी कथाओं के माध्यम से जनमानस में सुनाया करते थे और भक्ति में गंगा का प्रवाह होता था। एक बार ऐसी कथा में उन्हें अति सुंदर रत्नावली के पिता पंडित दीन बंधु पाठक ने देखा और उन्हें तुलसीदास जी अपनी पुत्री के लिए बहुत प्रिय लगे उन्होंने तुलसीदास का विवाह अपनी पुत्री से करवा दिया। तुलसीदास जी इस विवाह और अपने जीवनसाथी की सुंदरता से अत्यंत प्रसन्न थे।
पत्नी ने बदला जीवन का ध्येयः विवाह के बाद हालाँकि उनकी पत्नी उनके साथ नहीं रह रही थी। पुराने समय में गौना हुए बिना पति के घर में नहीं भेजा जाता था। एक ऐसी ही रात को उन्हें अपनी पत्नी से मिलने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। वे स्वयं को रोक नहीं पाए और उफनती हुई यमुना नदी को पार कर अपने ससुराल पहुँच गए और फिर सीधे अपनी पत्नी के कमरे में। पत्नी ने उन्हें देखा तो सन्न रह गई। उन्हें तुलसीदासजी में लोक लिहाज़ शर्म कुछ भी नहीं दिखी। उन्होंने यह श्लोक कहा जिससे तुलसीदास जी का जीवन ही बदल गया।
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?
अर्थात् हाड़-माँस के शरीर से आप जितना प्रेम करते हैं उससे आधा भी प्रेम राम से कर ले तो आप भवसागर से पार हो जाएँगे। इन कटु और सत्य शब्दों ने तुलसीदास जी को संसार से विरक्त कर प्रभु राम की असीम भक्ति में लगा दिया।
जीवन का हर क्षण श्रीराम काः तुलसीदास जी को अब बस श्रीराम की लगन लग गई। वे सोते-बैठते, जागते-उठते श्रीराम की धुन में ही रहते थे। चित्रकूट के घाट पर अपनी राम भक्ति में महाकाव्य रामचरितमानस लिखने लगे। कहते हैं कि यह काव्य लिखने का मार्गदर्शन उन्हें श्री हनुमान जी ने करवाया था। 2 वर्ष 6 माह और 26 दिनों की अवधि में उन्होंने इसे पूरा किया।
प्रभु श्रीराम ने दिए दर्शनः
ऐसा सुनने में आता है कि अटूट रामभक्ति के कारण एक बार उन्हें चित्रकूट के घाट पर श्रीराम ने अपने परम रूप के दर्शन दिए थे उस समय तुलसीदासजी चंदन घिस रहे थे तभी एकाएक श्री राम और लक्ष्मण उनके सम्मुख आ गए और तिलक करने के लिए कहने लगे। यह तुलसीदास जी के जीवन का सबसे सुखद क्षण था
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसे तिलक देत रघुबीर।।
तुलसीदास जी द्वारा रचित ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण :
तुलसीदास जी ने सवा सौ वर्ष का दीर्घ जीवन प्राप्त किया था। यही कारण है कि वे अधिक समृद्धिशाली साहित्य से हिंदी की रिक्त प्रायः गोद को भरने में समर्थ हो सके। तुलसी का समस्त जीवन साहित्य साधना एवं कष्टों का जीवन था। उनकी रचनाएँ इस प्रकार है।
काव्य रचनाएँ-
अपने जीवन काल में श्रीरामचरितमानस, पार्वती-मंगल हनुमान चालीसा, हनुमान बाहुक, विनय पत्रिका, दोहावली कवितावली, वैराग्य-संदीपनी, जानकी-मंगल, संकट मोचन हनुमानाष्टक आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। वे अवधि, संस्कृत और हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि थे।
रामचरितमानस
संवत् 1631 का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया, जैसा त्रैतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिन में यह अदभुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
गीतावली
गीतावली में गीतों का आधार विविध कांड का रामचरित ही रहा है। यह ग्रंथ रामचरितमानस की तरह व्यापक जनसम्पर्क में कम गया प्रतीत होता है। इसलिए इन गीतों में परिवर्तन-परिवर्द्धन दृष्टिगत नहीं होता है। गीतावली में गीतों के कथा – संदर्भ तुलसी की मति के अनुरूप हैं। इस दृष्टि से गीतावली का एक गीत लिया जा सकता है –
कैकेयी जौ लौं जियत रही।
तो लौं बात मातु सों मुह भरि भरत न भूलि कही।।
मानी राम अधिक जननी ते जननिहु गँसन गही।
सीय लखन रिपुदवन राम-रूख लखि सबकी निबही।।
लौक-बेद मरजाद दोष गुन चित चखन चही।
तुलसी भरत समुझि सुनि राखी राम सनेह सही।।
इसमें भरत और राम के शील का उत्कर्ष तुलसीदास ने व्यक्त किया है। गीतावली के उत्तरकांड में मानस की कथा से अधिक विस्तार है। इसमें सीता का वाल्मीकि आश्रम में भेजा जाना वर्णित है। इस परित्याग का औचित्य निर्देश इन पंक्तियों में मिलता है-
भोग पुनि पितु-आयु को, सोउ किए बनै बनाउ।
परिहरे बिनु जानकी नहीं और अनघ उपाउ।
पालिबे असिधार-ब्रत प्रिय प्रेम-पाल सुभाउ।
होइ हित केहि भाँति, नित सुविचारू नहिं चित चाउ।।
पार्वती-मंगलः यह तुलसी की प्रामाणिक रचना प्रतीत होती है। इसकी काव्यात्मक प्रौढ़ता तुलसी सिद्धांत के अनुकूल है। कविता सरल, सुबोध रोचक और सरल है। ‘‘जगत मातु पितु संभु भवानी’’ की शृंगारिक चेष्टाओं का तनिक भी पुट नहीं है। लोक रीति इतनी यथास्थिति से विचित्र हुई है कि यह संस्कृत के शिव काव्य से कम प्रभावित है और तुलसी की मति की भक्त्यात्मक भूमिका पर विरचित कथा काव्य है। व्यवहारों की सुष्ठुता, प्रेम की अनन्यता और वैवाहिक कार्यक्रम की सरसता को बड़ी सावधानी से कवि ने अंकित किया है। तुलसीदास अपनी इस रचना से अत्यन्त संतुष्ट थे, इसलिए इस अनासक्त भक्त ने केवल एक बार अपनी मति की सराहना की है।
प्रेम पाट पटडोरि गौरि-हर-गुन मनि।
मंगल हार रचेउ कवि, मति मृगलोचनि।।
श्रीकृष्ण गीतावली : श्रीकृष्ण गीतावली भी गोस्वामीजी की रचना है। श्रीकृष्ण-कथा के कतिपय प्रकरण गीतों के विषय हैं।
रामलता नहछू : यह संस्कार गीत है। इस गीत में कतिपय उल्लेख राम-विवाह की कथा से भिन्न हैं।
गोद लिहैं कौशल्या बैठि रामहिं वर हो।
सोभित दूलह राम सीस पर आंचर हो।।
वैराग्य संदीपनी : वैराग्य संदीपनी को माताप्रसाद गुप्त ने अप्रामाणिक माना है, पर आचार्य चंद्रावली पांडे इसे प्रामाणिक और तुलसी की आरंभिक रचना मानते है। कुछ और प्राचीन प्रतियों के उपलब्ध होने से ठोक प्रमाण मिल सकते हैं। संत महिमा वर्णन का पहला सोरठा प्रस्तुत है –
को बरनै मुख एक, तुलसी महिला संत।
जिन्हके विमल विवेक, सेष महेस न कहि सकत।।
दोहावली : दोहावली में अधिकांश दोहे मानस के हैं। कवि ने चातक के व्याज से दोहों की एक लंबी शृंखला लिखकर भक्ति और प्रेम की व्याख्या की है। दोहावली दोहा संकलन है। मानस के भी कुछ कथा निरपेक्ष दोहों को इसमें स्थान है। संभव है कुछ दोहे इसमें भी प्रक्षिप्त हों, का रचना की अप्रामाणिकता असंदिग्ध है।
जानकी-मंगल : विद्वानों ने इसे तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं में स्थान दिया है।
तुलसी के मानस के पूर्व वाल्मीकीय रामायण की कथा ही लोक प्रचलित थी। काशी के पंडितों से मानस को लेकर तुलसीदास का मतभेद और मानस की प्रति पर विश्वनाथ का हस्ताक्षर संबंधी जनश्रुति प्रसिद्ध है।
रामाज्ञा प्रश्न : यह ज्योतिष शास्त्रीय पद्धति का ग्रंथ है। दोहों, सप्तकों और सर्गों में विभक्त यह ग्रंथ रामकथा के विविध मंगल एवं अमंगलमय प्रसंगों की मिश्रित रचना है। काव्य की दृष्टि से इस ग्रंथ का महत्त्व नगण्य है। सभी इसे तुलसीकृत मानते है। इसमें कथा-शृंखला का अभाव है और वाल्मीकीय रामायण के प्रसंगों का अनुवाद अनेक दोहों में है।
वरवै रामायण : विद्वानों ने इसे तुलसी की रचना घोषित किया है। शैली की दृष्टि से यह तुलसीदास की प्रामाणिक रचना है। इसकी खंडित प्रति ही ग्रंथावली में संपादित है।
हनुमान बाहुक : यह गोस्वामी जी की हनुमान-भक्ति संबंधी रचना है। पर यह एक स्वतंत्र रचना है। इसके सभी अंश प्रामाणिक प्रतीत होते हैं। तुलसीदास को राम प्यारे थे, राम की कथा प्यारी थी। राम का रूप प्यारा था और राम का स्वरूप प्यारा था। उनकी बुद्वि, राग, कल्पना और भावुकता पर राम की मर्यादा और लीला का अधिपत्य था। उनकी आंखों में राम की छवि बसती थी। सब कुछ राम की पावन लीला में व्यक्त हुआ है जो रामकाव्य की परम्परा की उच्चतम उपलब्धि है। निर्दिष्ट ग्रंथों में इसका एक रस प्रतिबिंबित हैं।
कवितावली : कवितावली तुलसीदास की रचना है, पर सभा संस्करण अथवा अन्य संस्करणों में प्रकाशित यह रचना पूरी नहीं प्रतीत होती है। कवितावली एक प्रबंध रचना है। कथानक में अप्रासंगिकता एवं शिथिलता तुलसी की कला का कलंक कहा जायेगा।
विनय पत्रिका : विनय पत्रिका तुलसीदास रचित एक ग्रंथ है। यह ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है। इसमें 21 रागों का प्रयोग हुआ है विनय पत्रिका का प्रमुख रस शांतरस है। इस रस का स्थाई भाव निर्वेद होता है। विनय पत्रिका आध्यात्मिक जीवन परिलक्षित करती है। इसमें सम्मिलित पदों की संख्या 280 है।
दर्शना शर्मा
अति. जि. शि. अ. (मा.) अजमेर