यह आर्य-संस्कृति का उषाःकाल ही था, जब भृगुवंशी महर्षि जमदग्नि-पत्नी रेणुका के गर्भ से परशुराम का जन्म हुआ। यह वह समय था जब सरस्वती और हर्षद्वती नदियों के बीच फैले आर्यावर्त में युद्ध और पुरु, भरत और तृत्सु, तर्वसु और अनु, द्रह्यू और जन्हू तथा भृगु जैसी आर्य जातियाँ निवसित थीं। जहाँ वशिष्ठ, जमदग्नि, अंगिरा, गौतम और कण्व आदि महापुरुषों के आश्रमों से गुंजरित दिव्य ऋचाएँ आर्यधर्म का संस्कार-संस्थापन कर रही थीं। लेकिन दूसरी ओर सम्पूर्ण आर्यवर्त नर्मदा से मथुरा तक शासन कर रहे हैहैयराज सहस्त्रार्जुन के लोमहर्षक अत्याचारों से त्रस्त था। ऐसे में युवावस्था में प्रवेश कर रहे परशुराम ने आर्य-संस्कृति को ध्वस्त करने वाले हैहैयराज की प्रचंडता को चुनौती दी और अपनी आर्यनिष्ठा, तेजस्विता, संगठन- क्षमता, साहस और अपरिमित शौर्य के बल पर विजयी हुए।
चिर पुरातन हिंदू संस्कृति व इतिहास में संतों व पर्वों का अद्वितीय स्थान है। भारत की पावन धरा संतों की उर्वरा धरती है। ऐसे ही एक महाप्रतापी समाज सुधारक संत शिरोमणि भगवान परशुराम का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण एवं कल्कि पुराण आदि ग्रंथों में मिलता है। भगवान परशुराम त्रेता व द्वापर दोनों ही युगों में रहे। इसीलिए रामायण और महाभारत दोनों में इनका उल्लेख मिलता है।
मान्यता है कि भगवान परशुराम ने अहंकारी और दुष्टों का पृथ्वी से 21 बार सफाया करने के लिए युद्ध किया। भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि व माता का नाम रेणुका था। इनको विष्णु का अवतार माना गया है। पुराणों की कथा के अनुसार भगवान परशुराम माता-पिता के अनन्य भक्त थे लेकिन वह सबसे अधिक अपने पिता के नजदीक थे। भगवान के अनुसार एक बार ऋषि जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका के आपत्तिजनक व्यवहार से नाराज हो गये थे। तब उन्होंने अपनी पत्नी का दण्ड स्वरूप वध करने का आदेश अपने पुत्रों को दिया। अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञा को स्वीकार करके माता का वध कर दिया और जो भी उनको बचाने के लिये आगे आया उनका भी वध कर दिया। उनके इस कार्य से प्रसन्न होकर जमदग्नि ने उनसे वर मांगने को कहा तो परशुराम ने माता व सभी भाईयों के पुनर्जीवित होने का वर ही मांगा।
भगवान परशुराम के विषय में एक कथानक यह भी है- सहस्रार्जुन ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्र भुजाएं तथा युद्ध में किसी भी प्रकार से परास्त न होने का वर पा लिया था। वर प्राप्त करने के बाद वह संयोगवश वन में आखेट करते समय ऋषि जमदग्नि के आश्रम में जा पहुंचा और ऋषि द्वारा देवराज इंद्र द्वारा प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश ऋषि जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया।
क्रोधित परशुराम ने क्रोध में फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएं काट डाली व सिर धड़ से अलग कर दिया। सहस्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी व माता रेणुका उनके साथ वियोग में सती हो गयी। इस घटना के बाद परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगर पर हमला बोल दिया और अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और पिता का श्राद्ध सहस्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अंत में महर्षि ऋचिक ने प्रकट होकर परशुराम को घोर कृत्य करने से रोका। इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। इतना ही नहीं देवराज इंद्र के समक्ष समस्त अस्त्रों का त्याग भी कर दिया। साथ ही वह सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेंद्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे। भगवान परशुराम धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे और किया भी। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये थे। वे भार्गव गोत्र के सबसे आज्ञाकारी संतों में एक थे। यह सदैव अपने माता-पिता व गुरुजनों की आज्ञा का पालन करते थे। कभी भी उनकी अवहेलना नही करते थे। उनका भाव इस सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवंत बनाये रखना था।
भगवान परशुराम की स्मृति एक ऐसे महान वीर और तपस्वी के रूप में की जानी चाहिए जो कभी भी गलत काम को बर्दाश्त नहीं कर सकता था। उनकी न्यायप्रियता किसी प्रमाण की मोहताज नहीं है। जहां कहीं भी अन्याय होता था, भगवान परशुराम उसके खिलाफ हर तरह से संघर्ष करते थे और खुद ही दंड देते थे। हैहय वंश के नरेश सहस्त्रबाहु अर्जुन की सेना के नाश और उसके वध को इसी न्यायप्रियता के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए।
आज की आवश्यकता भी है कि भगवान परशुराम के चरित्र का चारों तरफ प्रचार हो और नई पीढ़ियां जान सकें कि हमारा इतिहास कितना गौरवशाली रहा है और अपने समय का सबसे वीर योद्धा जो सत्रह अक्षौहिणी सेना को बात बात में हरा सकता था, अपने पिता की आकाशवाणी में हुई आज्ञा को मानकर तप करने चला जाता है। बताते हैं कि यह तपस्या उन्होंने उस जगह पर की थी जहां से ब्रह्मपुत्र नदी भारत में प्रवेश करती है। वहां परशुराम कुंड बना हुआ है। यहीं तपस्या करके उन्होंने शिवजी से फरसा प्राप्त किया था। बाद में इसी जगह पर उसे विसर्जित भी किया था।
भगवान परशुराम का मत था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है ना कि अपनी प्रजा से आज्ञा पालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्मे अवश्य थे, लेकिन उनके कर्म क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव नाम से भी जाना जाता है। इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने अधिकांश विद्याएं अपनी माता से मात्र 8 वर्ष अवस्था में ही सीख ली थी। वे पशु-पक्षियों की बातों को समझ लेते थे और उनसे बात करते थे। उन्होंने सैन्य शिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी थी लेकिन महाभारत काल में भीष्म पितामह और कर्ण इसके अपवाद स्वरूप थे।
भगवान परशुराम शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार थे। परशुराम जयंती का पर्व प्रायः अक्षय तृतीया दिवस के दिन मनाया जाता है। इस दिन देश भर में शोभायात्रा निकाली जाती है व सत्संगों का आयोजन होता है। पुराणों में भगवान परशुराम के अनेक नाम प्रचलित हैं जिसमें रामभद्र, भार्गव, भृगुपति, भृगुवंशी आदि हैं। भगवान परशुराम वीरता के साक्षात उदाहरण थे।
रविकान्त त्रिपाठी