इतिहास अतीत के देशभक्तों, क्रांतिकारियों के साहसिक कृतियों तथा बलिदानों को वर्तमान में पढ़कर भविष्य संभालने की विद्या है। भारतीय इतिहास के देशभक्तों की त्याग, तितिक्षा तथा बलिदान, विश्व के देशभक्तों से तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात उनकी सीमाएँ क्षितिज को लगने लगती हैं। जहाँ विदेशी इतिहासकारों ने हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को विकृत किया एवं कमतर आँका है, वहीं अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने खोजी प्रवृत्ति को नजरअंदाज कर उसी को आधार बना लिया है। परिणाम स्वरूप भारतीय इतिहास के कुछ अध्याय अभी भी अंधकार युग के नाम से प्रसिद्ध है। परंतु हमारे पास जो भी देशी-विदेशी सामग्री है, उसके तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात हमारे देश भक्त सूर्य के समान देदीप्यमान दिखने लगते हैं।
अपनी जन्मभूमि मारवाड़ को मुगलों के आधिपत्य से मुक्त कराने वाले वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त, 1638 (श्रावण शुक्ल 14, संवत् 1695) को ग्राम सालवा में हुआ था। यह वर्ष उनका 380 वाँ जन्म वर्ष है। उनके पिता जोधपुर राज्य के दीवान श्री आसकरण तथा माता नेतकँवर थीं। छत्रपति शिवाजी की तरह दुर्गादास का लालन-पालन उनकी माता ने ही किया। उन्होंने दुर्गादास में वीरता के साथ-साथ देश और धर्म पर मर-मिटने के संस्कार डाले। उनकी निर्भीकता से प्रभावित होकर एक बार महाराजा जसवंत सिंह ने कहा था“ यह बालक भविष्य में मारवाड राज्य का संरक्षक बनेगा“। 17 वीं शताब्दी में महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद राठौड़ वंश की संरक्षा का श्रेय वीर दुर्गादास को ही जाता है।
होनहार बिरवान के…
वीर दुर्गादास राठौड़, सूर्यवंशी राजपूत (राठौड़) वंश के करनोत शाखा से थे। वे आसकरण राठौड़ के पुत्र थे, जो मारवाड़ में राठौड़ वंश के शासक महाराजा जसवंत सिंह की सेना में सेनापति थे। दुर्गादास का लालन पालन उनकी माता के द्वारा ही एक छोटे से गाँव में हुआ क्यांकि आसकरण की अन्य पत्नियाँ नेतकँवर से जलती थीं। अतः मजबूर होकर आसकरण ने उसे सालवा के पास लूणवा गाँव में रखवा दिया था।
घटना तब की है जब दुर्गादास छोटे थे, एक बार जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राईके (ऊंटों के चरवाहे) आसकरण जी के खेतों में घुस गए, बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया। ऊटों ने पूरी फसल बर्बाद कर दिया। दुर्गादास ने चरवाहे से अपने जानवर बाहर ले जाने और उनका फसल बर्बाद न करने को कहा। चरवाहे ने उनकी बात को अनसुना कर दिया। इस पर दुर्गादास ने क्रोधित होकर अपनी तलवार निकली और चरवाहे को वही मौत के घाट उतार दिया। यह बात जब महाराज को पता चली तो उन्होंने दुर्गादास को अपने दरबार में बुलाया। अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए, आसकरण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे भी सकपका गए। उनसे पूछा कि क्यों उसने चरवाहे को मार डाला? इस पर दुर्गादास ने निर्भीकता से कहा ‘‘महाराज! राज चरवाहा आम लोगों की फसल बर्बाद कर के आपके नाम पर कलंक लगा रहा था।’’ महाराज इस उत्तर से बहुत प्रभावित हुए परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुआ कि यह आसकरण जी का पुत्र है, तो महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम में तलवार भेंट कर अपनी सेना में भर्ती कर खास स्थान दिया।
अजीत सिंह के संरक्षक :
उस समय उत्तर भारत में औरंगजेब प्रभावी था। उसकी कुदृष्टि मारवाड़ के विशाल राज्य पर भी थी। उसने षड्यन्त्रपूर्वक जसवन्त सिंह को अफगानिस्तान में पठान विद्रोहियों से लड़ने भेज दिया। इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवंत सिंह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के दौरान ही 28 नवम्बर 1678 में जमरूद में वीर गति को प्राप्त हो गए। जब महाराज जसवंत सिंह की मृत्यु हुई तब उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। उनके निधन के समय उनके साथ रह रही दो रानियाँ गर्भवती थी इसलिए वीर शिरोमणि दुर्गादास सहित जोधपुर राज्य के अन्य सरदारों ने इन रानियों को महाराजा के पार्थिव शरीर के साथ सती होने से रोक लिया और इन गर्भवती रानियों को सैनिक चौकी से लाहौर ले जाया गया, जहाँ इन दोनों रानियों ने 19 फरवरी 1679 को एक-एक पुत्र को जन्म दिया। बड़े राजकुमार नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथंभन रखा गया। दलथंभन की रास्ते में ही मौत हो गयी और दूसरे पुत्र अजीत सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर औरंगजेब ने अजीत सिंह की हत्या की ठान ली। जसवन्त सिंह के मरते ही औरंगजेब ने जोधपुर रियासत पर कब्जा कर वहाँ शाही हाकिम बैठा दिया। इस घटना ने पूरे राठौड़ वंश को बहुत प्रभावित और क्रोधित कर दिया। उसने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के बहाने दिल्ली बुलाया। वस्तुतः वह उसे मुसलमान बनाना या मारना चाहता था।
इस कठिन घड़ी में दुर्गादास अजीत सिंह के साथ दिल्ली पहुंचे। परन्तु औरंगजेब ने अजीत सिंह को मान्यता देने में टालमटोल की नीति अपनाई। उसके मन में कोई और ही कुचक्र आकार ले रहा था। एक दिन अचानक मुगल सैनिकों ने अजीत सिंह के आवास को घेर लिया। अजीत सिंह की धाय गोरा टाँक ने पन्ना धाय की तरह अपने पुत्र को वहाँ छोड़ दिया और उन्हें लेकर गुप्त मार्ग से बाहर निकल गयी। उधर दुर्गादास और समूह के अन्य राजपूतों जिनमे ठाकुर मोकम सिंह बलुन्दा और मुकुंददास खींची भी थे ने जोरदार हमला कर घेरा तोड़ दिया और वे भी जोधपुर की ओर निकल गये। उन्हांने अजीत सिंह को सिरोही के पास कालिन्दी गाँव में पुरोहित जयदेव के घर रखवा कर मुकुंददास खींची को साधु वेश में उनकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। उधर कई दिन बाद औरंगजेब को जब वास्तविकता पता लगी, तो उसने बालक की हत्या कर दी।
कर्तव्य पथ परः अब दुर्गादास मारवाड़ के सामन्तों के साथ छापामार शैली में मुगल सेनाओं पर हमले करने लगे। उन्होंने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह तथा मराठों को भी जोड़ना चाहा। पर इसमें उन्हें पूरी सफलता नहीं मिली। उन्होंने औरंगजेब के छोटे पुत्र अकबर को राजा बनाने का लालच देकर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह के लिए तैयार किया पर दुर्भाग्यवश यह योजना भी पूरी नहीं हो पाई।
वीर शिरोमणि दुर्गादास साहस, पराक्रम और वफादारी का एक उज्ज्वल उदाहरण है।
दुर्गादास राठौड़ के बारे में कहा जाता है कि इन्हांने सारी उम्र घोड़े की पीठ पर बैठकर बिता दी। अपनी कूटनीति से इन्होंने औरंगजेब के पुत्र अकबर को अपनी और मिलाकर, राजपूताने और महाराष्ट्र की सभी हिन्दू शक्तियों को जोड़कर मुगल आततायी औरंगजेब की रातों की नींद छीन ली थी और हिंदुत्व की रक्षा की थी। उनके बारे में इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कहा था कि ‘‘उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुगलों की शक्ति। उनके दृढ़ निश्चय को पीछे हटा सकी,बल्कि वो ऐसा वीर था जिसमे राजपूती साहस और कूटनीति मिश्रित थी’’। ये निर्विवाद सत्य है कि अगर उस दौर में वीर दुर्गादास राठौड, छत्रपति शिवाजी, वीर गोकुल, गुरु गोविन्द सिंह, बंदा सिंह बहादुर जैसे शूरवीर पैदा नहीं होते तो पूरे मध्य एशिया, ईरान की तरह भारत का पूर्ण इस्लामीकरण हो जाता और हिन्दू धर्म का नामोनिशान ही मिट जाता। ऐसे वीर शिरोमणि हिंदुत्व के रक्षक दुर्गादास राठौड़ की 380वीं जयंती पर उनको शत शत नमन…
अजीत सिंह के बड़े होने के बाद गद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता व स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी, औरंगजेब का बल व लालच दुर्गादास को नहीं डिगा सका। जोधपुर की आजादी के लिए दुर्गादास ने कोई पच्चीस सालों तक संघर्ष किया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके प्रयास सफल हुए। 20 मार्च, 1707 को महाराजा अजीत सिंह ने धूमधाम से जोधपुर दुर्ग में प्रवेश किया। वे जानते थे कि इसका श्रेय दुर्गादास को है, अतः उन्होंने दुर्गादास से रियासत का प्रधान पद स्वीकार करने को कहा पर दुर्गादास ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। उनकी अवस्था भी अब इस योग्य नहीं थी। अतः वे अजीतसिंह की अनुमति लेकर उज्जैन के पास सादड़ी चले गये। इस प्रकार उन्होंने महाराजा जसवन्त सिंह द्वारा उन्हें दी गयी उपाधि‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ को सत्य सिद्ध कर दिखाया।
अंतिम श्वासः सफलतापूर्वक अपना कर्तव्य निभाने और महाराज जसवंत सिंह को दिया वचन पूरा करने के बाद वीर दुर्गादास जोधपुर छोड़ कर कुछ समय सादडी, उदयपुर, रामपुर में रहे और बाद में भगवान महाकाल की आराधना करने उज्जैन चले गये। 22 नवम्बर 1718 (मार्गशीर्ष शुक्ल 11, संवत 1775) को 80 वर्ष की उम्र में, शिप्रा नदी के किनारे उनका स्वर्गवास हो गया। लाल पत्थर से बना उनका अतिसुंदर छत्र आज भी उज्जैन में चक्रतीर्थ नामक स्थान में सुशोभित है। जो सभी देशभक्तों के लिए तीर्थ स्थान है।
हरिदत्त शर्मा