जिनका नाम ही शक्ति का पर्याय हो, भला वह साहस की गाथा कैसे न लिखती। शायद उनके पिता को पता था कि वे एक दिन दुर्गा रूप धरकर दुश्मनों का संहार करेंगी, शायद इसीलिए उन्हें देवी की संज्ञा दी गई। अपने एक ही वार में शेर को मार गिराने वाली महारानी दुर्गावती गोंडवाना के राजा दलपतशाह की पत्नी थी। शक्ति स्वरूपा महारानी दुर्गावती ने एक या दो नहीं पूरे तीन बार अकबर की सेना को पीछे धकेला था।
अनन्य देशभक्त, वीर हृदया रानी दुर्गावती का जन्म उत्तर प्रदेश के महोबा में हुआ था। उनके पिता चन्देल कीरत सिंह महोबा के राजा थे। दुर्गावती बहुत सुंदर तथा गुणवती थी। उनके पिता ने उन्हें पढाने के लिए एक पंडित नियुक्त किया। दुर्गावती ने पंडित जी से साफ शब्दों में कहा मुझे क-ख-ग मत पढ़ाओ, मुझे महाभारत के युद्ध की कहानियाँ तथा रामायण एवं लंकाकाण्ड की कहानियाँ सुनाओ।’’ दुर्गावती पढाई में ध्यान नहीं देती थी बल्कि पढ़ाई छोड़कर धनुष-बाण, तलवार, घुड़सवारी आदि का अभ्यास करती थी। पंडित जी राजा कीरत सिंह के भय के कारण उसे कुछ कहते नहीं थे। कीरत सिंह समझते थे कि पुत्री पढ़ रही है। दुर्गावती ज्यों ज्यों बड़ी होती गयी, त्यों त्यों धनुष बाण, तलवार विद्या तथा घुड़सवारी में माहिर होती चली गयी। वे हाथी की सवारी भी करती थी। एक बार एक हाथी पर वे बैठी थी। तभी हाथी बिगड़ गया किन्तु दुर्गावती ने उसे अपने काबू में कर लिया। महावत भी आश्चर्यचकित होकर रह गया। दुर्गावती जब विवाह योग्य हुई तो उनके पिता को विवाह की चिंता होने लगी परन्तु वे अपनी पुत्री का विवाह किसी ऐसे शूरवीर से करना चाहते थे जो उन्हें अपनी शूरवीरता का चमत्कार दिखाए।
इसी बीच गोंडवाना के राजकुमार दलपतशाह ने कीरत सिंह को पत्र लिखकर दुर्गावती से विवाह करने का प्रस्ताव भेजा इस पर कीरतसिंह ने उत्तर भेजा कि यदि दलपतशाह महोबा की सेना को हरा दे तो उनका विवाह दुर्गावती से सहर्ष कर देंगे। कीरतसिंह का पत्र पाकर दलपतशाह महोबा पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा। इधर कीरत सिंह एक अन्य राजपुत युवक के साथ दुर्गावती के विवाह की तैयारी कर रहा था। दुर्गावती मन ही मन दलपत शाह के साथ विवाह करना चाहती थी तथा उसे अपने पिता द्वारा वर के रूप में प्रस्तावित अन्य राजपूत कुमार को पसंद नहीं था। अतः दुर्गावती ने दलपतशाह को पत्र लिखकर अपनी इच्छा से अवगत कराया तथा दुर्गावती के पत्र से दलपतशाह की रगों में बिजली दौड़ गयी। उसने सेना एकत्र करके महोबा पर आक्रमण कर दिया। उसके शौर्य के सामने महोबा की सेना ने घुटने टेक दिए। दलपतशाह की विजय हुयी।
कीरत सिंह ने दलपतशाह के शौर्य से मुग्ध होकर दुर्गावती से उसका विवाह कर दिया। एक वर्ष बाद दुर्गावती ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम वीर नारायण रखा गया। जब पुत्र चार वर्ष का हुआ तब दलपतशाह की मृत्यु हो गयी। दलपतशाह की मृत्यु के बाद दुर्गावती ने बड़े साहस एवं धैर्य के साथ राज्य की बागडोर को सम्भाला। वे वीर नारायण की प्रतिनिधि के रूप में सिंहासन पर बैठकर राज्य करने लगी। उन्होंने गोंडवाना राज्य की प्रजा के लिए कई कल्याणकारी योजनाये बनाई। नई नई सड़के, खेती के लिए सिंचाई के प्रबन्धन, बाग-बगीचे, कुए आदि का निर्माण कराया। गोंडवाना की प्रगति को देखकर आसपास के राज्यों के राजाओं को ईर्ष्या हुयी। वे गोंडवाना राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे। जब दुर्गावती को इसका पता चला तो उसने एक-एक राजा को परास्त करके उसका राज्य अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार रानी दुर्गावती ने अपने ही पराक्रम से गोंडवाना राज्य का विस्तार कर दिया।
गोंडवाना के विस्तार एवं वैभव की चर्चा मुगल सम्राट अकबर ने भी सूनी। वह दुर्गावती की सुन्दरता के बारे में पहले ही सुन चुका था अतः उसने गोंड़वाना पर आक्रमण करके रानी को अपने अधीन करने की योजना बनाई परन्तु युद्ध से पूर्व उसने रानी को उपहार स्वरूप “चरखा” भेजा जिसके जवाब में रानी एक मोटा “डंडा” भेजा। एक पर अकबर क्रुद्ध हुआ तथा उसने अपने सेनापति आसफ खां को गोंडवाना पर आक्रमण करके रानी दुर्गावती को बंदी बनाकर दरबार में पेश करने का आदेश दिया।
आसफ खां ने अकबर की आज्ञा का पालन किया। वह बहुत बड़ी सेना के साथ गोंडवाना पर आक्रमण करने जा पहुंचा। उसने बडी सूझबूझ के साथ मोर्चाबंदी की। परंतु युद्ध आरंभ करने से पूर्व उसने दुर्गावती को समझाना उचित समझा। उसने रानी के पास संदेश भेजा- ‘तुम बादशाह की अधीनता स्वीकार कर लो। और आगरा चलो। तुम्हारा राज्य तुम्हारे ही पास रहेगा। बादशाह तुम्हें बहुत सी जागीरें प्रदान करेंगें। आगरा में बड़ी धूम धाम से तुम्हारा स्वागत होगा। तुम्हारा सम्मान किया जाएगा।’ दुर्गावती ने आसफ खां के संदेश का जो उत्तर दिया था। वह बड़ा ही प्रेरक था। उन्होंने कहा था- ‘मेरे देश की धरती को कोई भी दासता की बेड़ियों में नहीं बांध सकता। मैं अपने देश की स्वतंत्रा के लिए अंतिम सांस तक युद्ध करूगी। तुम तो गुलाम हो। तुम अकबर की नौकरी छोड़कर मेरी सेना में आ जाओ। मैं तुम्हें अच्छा वेतन दूंगी।’ रानी की यह बात सुनकर आसफ खां क्रोध से आगबबूला हो गया।उसने गढामंडला के दुर्ग पर चढ़ाई कर दी। रानी दुर्गावती ने आसफ खां का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया परन्तु नदी में बाढ़ आ जाने से रानी की सेना बाढ़ में फंस गयी। उनके साथ उनका 18 वर्षीय पुत्र वीरनारायण भी था। भयंकर युद्ध में रानी के सैनिक आहत हुए या मारे गये। वीरनारायण भी घायल हो गया। दुर्गावती ने वीरनारायण को विश्वस्त सरदारों के साथ चौरागढ़ के किले में भेज दिया। उस समय रानी के पास केवल 300 सैनिक रह गये थे परन्तु अपने अदम्य साहस के बल पर 2000 सैनिकों पर तथा आसफखाँ पर भारी पड़ने लगे।
घोडे़ पर सवार रानी दुर्गावती अपने 300 सैनिकों के साथ आसफ खां की सेना पर बिजली की तरह टूट पड़ी। वे कालिका की तरह मुगल सेना का संहार करने लगी। परंतु अचानक एक सनसनाता हुआ बाण आकर उनकी दाहिनी आंख में घुस गया। रानी ने बाण को खींचकर बाहर फेंक दिया। बाण की नोक टुटकर आंख में ही रह गई। फिर भी रानी ने हिम्मत नही हारी और वीरता के साथ युद्ध करती रही। थोड़ी ही देर बाद एक बाण ओर आया और रानी की दूसरी आंख में भी घुस गया। रानी ने उसको भी निकालकर बाहर फेंक दिया। रानी दुर्गावती की दोनों आंखें फूट चुकी थी वह अंधी हो चुकी थी। फिर भी उन्होंने हिम्मत नही हारी। और घोडे़ की लगाम दातों तले दबाकर दोनों हाथों से तलवार चलाती रही और आसफ खाँ की सेना का संहार करती रही।
फिर एक बाण और आकर रानी की गर्दन में घुस गया और वे घोडे़ से गिर पडी। जब रानी को लगा कि अब वह युद्ध नहीं जीत सकतीं और घायल हो गईं तो अपनी कटार को अपनी छाती में घुसा कर अपने जीवन का अंत कर लिया ताकि उनके शरीर को जीते जी शत्रु न छू सके। 24 जून 1564 रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस के रूप में तब से आज तक मनाया जा रहा है। रानी ने शत्रुओं से युद्ध करते हुए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। आसफ खां ने भी इस अप्रत्याशित घटनाक्रम पर विस्मित होकर कहा ‘‘कोई नारी इतनी शूरवीरा हो सकती है मैंने कभी सोचा तक नहीं था’’। स्वतंत्रता के लिए लड़ते लड़ते रानी दुर्गावती शहीद हो गयी। उनके शौर्यपूर्ण बलिदान ने उन्हें अमर बना दिया तथा सदा के लिए स्मरणीय बना दिया।
ममता शर्मा
प्रधानाचार्य