11 सितंबर 1893 यानि अब से लगभग 125 साल पहले का ये दिन स्वामी विवेकानंद के उस भाषण को याद करके मनाया जाता है जो उन्होंने शिकागो के धर्म संसद में बोला था। ये वो भाषण है जिसने पूरी दुनिया के सामने भारत को एक मजबूत छवि के साथ पेश किया। स्वामी विवेकानंद के इस उदबोधन ने लोगों का दिल जीत लिया था।
स्वामी विवेकानंद अपने समय से बहुत आगे के महापुरुष थे। उनकी सोच, उनके विचार और उनका दृष्टिकोण आज की दुनिया से भी आगे का था। उनके विचार सदैव ही न सिर्फ युवाओं का अपितु हर उम्र और हर देश के लोगों का मार्गदर्शन करते है। स्वामी विवेकानंद की सोच वैश्विक थी, वो पूरे विश्व को एक रूप में देखते थे। विवेकानंद ने भारतीय आध्यात्म और वेदांत दर्शन को पूरे विश्व में पहुँचाया। रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा लेने के बाद विवेकानंद ने अपने विचारों को ना सिर्फ देश अपितु विश्वभर में फैलाया।
विवेकानंद का युवाओं से खास लगाव था, उनका कहना था कि किसी भी देश की प्रगति,शक्ति और उन्नति उस देश के युवाओं में ही निहित है। आज के समय में जब पूरे विश्व में धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है और लोगों की वैचारिक क्षमता घटती ही जा रही है ऐसे समय में तो विवेकानंद के विचार और भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं।
बताया जाता है कि रामकृष्ण परमहंस ने ही विवेकानंद से कहा था कि जब तक वह दक्षिण नहीं जाएंगे, उनका ज्ञान पूरा नहीं होगा। गुरु के इस कथन पर विवेकानंद ने दक्षिण भारत की यात्रा की। उनकी शिकागो यात्रा में भी दक्षिण का अहम योगदान है। बताया जाता है कि दक्षिण गुजरात के काठियावाड़ के लोगों ने सबसे पहले विवेकानंद से शिकागो में आयोजित होने वाले विश्वधर्म सम्मेनल में जाने का आग्रह किया था। इसके बाद जब वह चेन्नई लौटे तो उनके शिष्यों ने भी उनसे यही निवेदन किया था। खुद विवेकानंद ने लिखा था कि तमिलनाडु के राजा भास्कर सेतुपति ने पहली बार उन्हें धर्म सम्मेलन में जाने का विचार दिया था। इसके बाद विवेकानंद कन्याकुमारी पहुंचे। उन्हें ध्यान लगाने के लिए किसी एकांत स्थल की तलाश थी। वह समुद्र में तैरकर भारत के उस अंतिम चट्टान तक पहुंच गए, जिसे आज विवेकानंद रॉक (कन्याकुमारी में) कहा जाता है। यहां विवेकानंद ने तीन दिन तक भारत के भूतकाल और भविष्य पर ध्यान किया था।
ये सपना बना था धर्म सम्मेलन में जाने की वजह
स्वामी विवेकानंद ने एक दिन सपने में देखा कि उनके दिवंगत गुरू रामकृष्ण परमहंस समुद्र पार जा रहे हैं और उन्हें अपने पीछे आने का इशारा कर रहे हैं। नींद खुली तो विवेकानंद सपने की सच्चाई जानने को परेशान हो गए। उन्होंने गुरू मां शारदा देवी से इस पर मार्ग दर्शन मांगा। उन्होंने विवाकनंद को थोड़ा इंतजार करने को कहा। तीन दिन बाद शारदा देवी ने भी सपने में देखा कि रामकृष्ण गंगा पर चलते हुए कहीं जा रहे हैं और फिर ओझल हो जाते हैं। इसके बाद शारदा देवी ने विवेकानंद के गुरुभाई से कहा कि वह उन्हें विदेश जाने को कहें, ये उनके गुरू की इच्छा है। इसके बाद ही विवेकानंद ने धर्म सम्मेलन में जाने का फैसला लिया।
शिकागो यात्रा के लिए शिष्यों ने किया था चंदा
स्वामी विवेकानंद जब चेन्नई लौटे, तब तक उनके शिष्यों ने उनकी शिकागो यात्रा के सारे इंतजाम कर लिए थे। शिष्यों ने अपनी गुरू की यात्रा के लिए चंदा कर धन जुटा लिया था। हालांकि, स्वामी विवेकानंद ने शिष्यों का जुटाया हुआ धन लेने से इंकार कर दिया था। उन्होंने शिष्यों से कहा कि वह ये सारा धन गरीबों में बांट दें। बताया जाता है कि इसके बाद विवेकानंद की अमेरिका यात्रा का पूरा खर्च राजपूताना के खेतड़ी नरेश ने उठाया था। कहा ये भी जाता है कि खेतड़ी नरेश ने ही धर्म सम्मेलन में जाने के लिए नरेंद्र को विवेकानंद का नाम दिया था। हालांकि, कुछ लोगों का ये भी मानना है कि नरेंद्र को विवेकानंद का नाम उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस ने दिया था।
ऐसे पहुंचे थे शिकागो
स्वामी विवेकानंद ने मात्र 25 साल की आयु में गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था। इसके बाद उन्होंने पैदल ही पूरे भारत की यात्रा की। विवेकानंद ने 31 मई 1893 को मुंबई से अपनी विदेश यात्रा शुरू की। मुंबई से वह जापान पहुंचे। जापान में नागासाकी, कोबे, योकोहामा, ओसाका, क्योटो और टोक्यो का उन्होंने दौरा किया। इसके बाद वह चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो शहर में पहुंचे थे। सन 1893 में अमेरिका के शिकागो नगर में विश्व धर्म सम्मलेन का आयोजन किया गया। इस आयोजन में दुनिया भर से विद्वान आये थे। भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भी कई विद्वान् आये थे, उनमें स्वामी विवेकानंद भी एक थे। सम्मलेन के दौरान उनको सबसे आखिरी में अपने विचार व्यक्त करने का मौका दिया गया। लेकिन जब विवेकानंद ने बोलना शुरू किया तो हर कोई भावविभोर होकर इस युवा संन्यासी की बातें सुनने में लीन हो गया। आने वाले दिनों में इस सम्मलेन में विवेकानंद की लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी थी कि अधिकतर लोग केवल उन्हें सुनने के लिए ही सम्मलेन में आते थे। प्रस्तुत है स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो धर्म सम्मलेन में दिए गए व्याख्यान का हिंदी सार …
अमेरिकावासी बहनो तथा भाईयो,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ। और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं।
मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है
मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था ।
मैं गर्व का अनुभव करता हूं
ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी
आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं-
रुचिनां वैचिर्त्याद्दजुकुटिलनानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
‘‘जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’’
सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक :
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
‘‘जो कोई मेरी ओर आता हैं – चाहे किसी प्रकार से हो – मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।’’ धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
डॉ. अनिल कुमार दषोरा