शबरी संवारे रास्ता, कब आवेंगे राम जी … माँ शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा बताया गया है। इन्हांने शबर जाति में जन्म लिया जिस कारण इनका नाम शबरी पड़ गया। कुछ संत जन कहते हैं कि इन्होंने भगवान श्री राम का इतना सब्र किया कि इनका नाम ही सबरी पड़ गया। शबरी के पिता भीलों के राजा थे। माता शबरी को श्रीराम के प्रमुख भक्तो में गिना जाता है।
माँ शबरी भगवद्भक्ति की साक्षात् प्रतिमा थी। आपका जन्म भीलकुल में हुआ था। ये भीलराज का एकमात्र कन्या थी। उनका विवाह पशु स्वभाव के कू र व्यक्ति से होना निश्चित हुआ था। अपने विवाह के अवसर पर बलि हेतु लाये गये पशु-समुदाय को देखकर इनका हृदय करुणाप्लावित हो उठा। इनके हृदय में दया, अहिंसा और भगवद्भक्ति के संस्कार थे। शबरी अपने पिता के अपयश की परवाह किये बिना चुप-चाप जंगल की राह ली। शबरी वन में निवास करने लगीं, इनके मन में साधु-सन्तों की सेवा करने की बड़ी इच्छा थी, पर शरीर नीच जाति का है, साधु-सन्त सेवा स्वीकार नहीं करेंगे, इसलिये थोड़ी रात रहने पर ही वे ऋ षियों के आश्रम में छिपकर जातीं और लकडिय़ों के बोझ रख आतीं।
प्रात:काल शीघ्र ही उठकर सरोवर पर जाने-आने के मार्ग को झाड-बुहारकर उसकी कंकडिय़ों को बीनकर अलग डाल देती थीं। यह सेवा करते हुए इनको कोई भी नहीं देख पाता था। सवेरे उठकर ऋ षि लोग आपस में कहते कि मार्ग को नित्य कौन झाड़ जाता है और लकडिय़ों के बोझ कौन रख जाता है? वनवासी ऋ षियों में एक मतंग नामक ऋ षि थे। वे परम विरक्त और भक्ति रस के आनन्द से परिपूर्ण थे। लकडिय़ों के बोझ रखे देखकर वे अपने शिष्यों से कहने लगे कि इस तपोवन में ऐसा कौन आ गया? जो नित्य चोरी से सेवा करता है। उसे एक दिन पकड़ो, उस सन्त-सेवा-प्रेमी भक्त के प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिये।
आज्ञा पाकर मतंग जी के शिष्य सावधानी से पहरा देने लगे। जैसे ही शबरी जी ने लकडिय़ों का बोझ रखा, वैसे ही शिष्यों ने उन्हें पकड़ लिया। वे बेचारी भय और संकोचवश काँपने लगी और उनके पैरों पर गिर गयी। उस भक्तिमयी भीलनी को देखते ही मतंग जी के आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। मतंग जी भगवद्भक्ति के प्रभाव को बहुत अच्छी तरह जानते थे। वे सोच-विचारकर शिष्यों से बोले कि भक्ति के प्रताप से यह इतनी पवित्र है कि इसके ऊपर कई कोटि ब्राह्मणता न्यौछावर कर देनी चाहिये।
मतंग जी ने शबरी को आश्रम की एक पर्णकुटी में रहने का स्थान दिया और उसके कान में श्री सीताराम मन्त्र दिया और कहा मैं प्रभु की आज्ञा से उनके धाम को जा रहा हूँ, तुम इसी आश्रम में रहकर भजन करो। यहीं श्रीराम जी का दर्शन प्राप्त करोगी। गुरुदेव श्रीमतंग जी के वियोग ने शबरी जी के हृदय को बड़ा कठोर कष्ट दिया, उनसे जीवित नहीं रहा जाता था, पर श्रीराम जी के दर्शनों की आशा लगी थी, इसीलिये जीवित रहीं। वे नित्य प्रति मुनियों के स्नानमार्ग को थोड़ी रात रहे झाड़-बुहार आती थीं। एक दिन विलम्ब हो गया। स्नान के लिये ऋषि आने-जाने लगे, मार्ग सँकरा था, कोई
ऋषि शबरी जी से किंचित् छू गये। तब वे अनेक प्रकार से शबरी जी को डाँटने-फटकारने लगे। शबरी जी भागकर अपनी कुटी में चली आयीं।
वे ऋषि सोच-विचार करके पुन: स्नान करने के लिये गये। सरोवर में प्रवेश करते ही उसका जल अनेक कीड़ों से भरे हुए रुधिर के समान हो गया। इससे ऋषि को एक नया दु:ख उत्पन्न हो गया। भक्त स्पर्श से अपने को अपवित्र समझने वाले मुनि के अपराध से ही सरोवर का जल अपवित्र हुआ था, पर उस अभागे ने यह रहस्य नहीं जाना। उलटे ऐसा समझा कि शबरी के स्पर्शजन्य दोष से ही जल दूषित हो गया है।
इसी प्रकार प्रभु के आगमन की बाट देखते-देखते जब बहुत दिन बीत गये, तब एक दिन अचानक ही श्रीराम जी आ गये। उनके सभी शोक मिट गये। परंतु उसे अपने शरीर के नीचकुल में उत्पन्न होने की बात याद आ गयी, इसलिये वह संकोचवश भागकर कहीं छिप गयी। भगवान् श्रीराम वनवासी लोगों से ऋषियों से पूछते-पूछते वहाँ आये, जहाँ शबरी जी का स्थान था। वहाँ शबरी को न देखकर भगवान् कहने लगे कि भाग्यशालिनी हरिभक्ता कहाँ है? मेरे नेत्र उसके दर्शनरूपी सुधा के प्यासे हैं।
ताहि देइ गति राम उदारा।
सबरी कें आश्रम पगु धारा।।
सबरी देखि राम गृहँ आए।
मुनि के बचन समुझि जियँ भाए।।
दयानिधान प्रभु श्री रामजी उसे गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचंद्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया। राम आयेगे और प्रभु आज आप आ गए। निष्ठा हो तो शबरी जैसी।
स्वयं सरकार मेरे आश्रम में पधारे यह जानकर शबरी जी भी आश्रम की ओर दौड़ीं। दूर जहाँ से प्रभु को देखा वहीं से सप्रेम साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया। शबरी के नेत्र प्रफुल्लित हो गये। भगवान् ने समीप जाकर शीघ्रता से ललककर उसे उठा लिया। कोमल कर कमल के स्पर्श से तन-मन की सब व्यथा दूर हो गयी। नेत्रों से आनन्द के आँसुओं की झड़ी लग गयी। भगवान् श्रीराम परम सुखी होकर आसन पर विराजे। शबरी जी ने अघ्र्यपाद्य पूर्वक बेर आदि फल अर्पण किये। शबरी एक बेर उठती है उसे चखती है। बेर मीठा निकलता है तो रामजी को देती है। अगर बेर खट्टा होता है तो फेक देती है। भगवान राम एक शब्द भी नही बोले कि मैया क्या कर रही है। तू झूठे बेर खिला रही है। भगवान प्रेम में डूबे हुए है। बिना कुछ बोले बेर खा रहे है। माँ एकटक राम जी को निहार रही है।
भगवान ने बड़े प्रेम से बेर खाए और बार-बार प्रशंसा की है।
(प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि) ।।
उसके बाद माता शबरी हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई और बोली कि प्रभु मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूं ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ। (अधम जाति मैं जड़मति भारी)॥ जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ।
उधर सभी ऋषि आश्रम में बैठकर सोच-विचार कर रहे थे कि सरोवर का जल बिगड़ गया है, उसे शुद्ध करने के लिये यज्ञ-याग, सर्वतीर्थ जलनिक्षेप आदि सब उपाय हमने कर लिये, पर वह शुद्ध नहीं हुआ, अब बताओं वह कैसे सुधरे? सब ने परस्पर विचारकर निश्चय किया कि वन के मार्ग से श्रीरघुपति जी आ रहे हैं, यह सुना है, जब वे आयें, तब हम लोग उनसे कहें कि आप इसका भेद बताइये।
इतने में ही उन ऋषियों ने सुना कि श्रीराम जी तो शबरी के आश्रम में आकर विराजे हैं। तब सबका अहंकार दूर हो गया और वे कहने लगे कि चलो, वहीं चलकर उनके चरणों में प्रणाम करें। वे ऋषिगण शबरी के आश्रम में आकर अभिवादन कर बोले – प्रभो श्रीराम ! आप सरोवर के जल को शुद्ध करने का उपाय बताइये।
भगवान् ने उत्तर दिया कि माँ शबरी के चरणों का स्पर्श करो, उसके बाद सरोवर के जल से इनके चरणस्पर्श कराओ। जल तुरंत पवित्र हो जायगा?
भगवान की आज्ञा से ऋषियों ने ऐसा ही किया। सरोवर का जल अति निर्मल हो गया। भक्ति की ऐसी महिमा देखकर ऋषियों के हृदय प्रेमभाव से द्रवित हो गये। महर्षि मतंग की वाणी आज सत्य हो गयी थी। भगवान् ने उसे नवधा भक्ति का उपदेश दिया। शबरी ने सीता जी के खोज के लिये प्रभु को सुग्रीव से मित्रता करने की सलाह दी और स्वयं को योगाग्नि में भस्म कर सदा के लिये श्रीराम के पाद-पदमो में लीन हो गयी।
राजेष सैनी