भारत भूमि पर राम नाम का यह सतत उच्चारण जितना सुखद है उतना ही स्वाभाविक भी क्योंकि राम में ही तो इस भूमि के प्राण बसते हैं और राम से ही इस भारत भूमि का आदि अखंड है और अंत असंभव है!! भारत के जन-जन, मन-मन, कण-कण, तन-तन, और यहाँ तक कि ब्रह्माण्ड के मूल तत्व क्षिति- जल-पावक-गगन-समीरा में व्याप्त प्रभु श्री राम ही तो इस भूखंड ‘‘भारत-भू’’ के प्रमुख आधार और आराध्य रहें हैं ।
राम शब्द यदि हम भारतवासियों के लिए आराधना और श्रद्धा का परिचायक है तो रामराज्य शब्द अतिशय कौतुक, उत्सुकता और उत्कंठा के साथ साथ सर्वाधिक कामना वाला शब्द है। भारत में जब यहाँ के एक सौ तीस करोड़ लोग बात करतें हैं तो औसतन प्रत्येक छठे वाक्य में एक न एक बार राम नाम का उच्चारण अवश्य होता है और किसी न किसी रूप में राम स्मरण कर लिए जातें हैं। राम नाम के उच्चारण में उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि इस नाम का उल्लेख भारत वासियों के सम्पूर्ण विश्व में प्रभावी ढंग से फैलते जानें के कारण अब वैश्विक स्तर पर राम शब्द सर्वाधिक समझा-बूझा और सुबोध-सुभाष शब्द बनता जा रहा है। आज जब राम नाम का जोर शोर सम्पूर्ण विश्व में हो रहा है तब यह भी आवश्यक और समयानुकूल है कि हम सर्वाधिक चर्चित शासन प्रणाली राम-राज्य की अवधारणा को भी भली- भाँति समझें और इस सर्वाधिक लोक कल्याण कारी राजकीय प्रणाली से अपनी युवा पीढ़ी को भी परिचित कराएँ।
राम राज्य में लोग अपने द्वार पर ताले नहीं लगाया करते थे। लोगों को धन इत्यादि चोरी डकैती का कोई भय नहीं होता था। उनका एक-दूसरे पर अटूट विश्वास होता था। राजा-प्रजा सत्य के मार्ग पर चला करते थे। धर्म का मार्ग प्रबल रूप से अनुसरण किया जाता था। परिवार के ज्येष्ठ की बात सर्वोपरि होती थी। वचन की रक्षा हेतु लोग अपने प्राण भी न्योछावर कर देते थे। सत्यता, नैतिकता, धार्मिकता ऐसी अनेक अच्छी बातों का अनुसरण प्रबल रूप से होता था।
कलयुग में ऐसे रामराज्य की कल्पना करना भी एक कल्पना मात्र ही लगता है। हम जिस युग में रहते हैं वहाँ भाई-भाई पर विश्वास नहीं करता। हर आदमी ऊपर उठने की जिज्ञासा में दूसरे आदमी को नीचे झुकाना चाहता है। आजकल लोग ऊपर उठने के लिए साम, दाम, दंड, भेद कुछ भी कर बैठने को तैयार रहते हैं। सामान्य धारणा जो लोगों ने बनाई है उसके अनुसार सत्य और धर्म के मार्ग पर चल कर सफलता पाने की सोचने वाले किसी और ही युग के वासी कहलाते हैं। झूठ, अधर्म, अनैतिकता इनमें से यदि कुछ भी करना पड़े तो लोग एक पल भी नहीं सोचते। अपनी अंतरात्मा की आवाज को अनदेखा अनसुना कर के सिर्फ अपना स्वार्थ पूरा करना ही अपना उद्देश्य समझते हैं ।
ऐसे समाज में आप रामराज्य की परिकल्पना भी कैसे कर सकते हैं? रामराज्य स्थापित करने के लिए हमें सत्य धर्म और नैतिकता के मार्ग का प्रबल रूप से अनुसरण करना होगा हमें लोगों को दिखाने के लिए नहीं परंतु स्वयं के लिए धर्म के मार्ग को पूर्ण रूप से अपनाना होगा और इसके लिए राम को अपने भीतर जीकर दिखाना होगा।
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
(उत्तरकाण्ड 20ः1)
राम राज्य में किसी को दैहिक, दैविक व भौतिक ताप नहीं व्यापते थे। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते और सभी नीतियुक्त स्वधर्म का पालन किया करते थे।
वहाँ कोई शत्रु नहीं था। इसलिए जीतना शब्द केवल मन को जीतने के लिए प्रयोग में लाया जाता था। कोई अपराध नहीं करता था। इसलिए दण्ड किसी को नहीं दिया जाता था।
राम राज्य की भौतिक व आध्यात्मिक समृद्धि के पीछे कारण क्या था?
जैसे एक हरे भरे वृक्ष का मूल उसकी स्वस्थ जड़ें होती हैं। उसी प्रकार एक राज्य का कर्णधार उसका राजा होता है। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ दृ जैसा राजा वैसी प्रजा। इसलिए प्लूटो ने भी एक आदर्श राज्य की कल्पना करते हुए अपने ग्रन्थ ‘ज्ीम त्मचनइसपब’ में लिखा दृ राजा को आत्मज्ञानी होना चाहिए अन्यथा एक आत्मज्ञानी को राजा बना देना चाहिए।’
ऐसा इसलिए क्योंकि एक आत्मज्ञानी ही निस्वार्थ भावना से समस्त मानवता के कल्याणार्थ परमार्थ कर सकता है। उसकी दूरदर्शिता, उसका उज्जवल चरित्र एवं त्रुटिरहित संचालन ही राज्य को पूर्णरूपेण विकसित व व्यविस्थत कर सकता है। त्रेता के मर्यादित रामराज्य में यही तथ्य पूर्णतः चरितार्थ था।
रामचरित मानस में वर्णित रामराज्य के विभिन्न अंग समग्रतः मानवीय सुख की कल्पना के आयोजन में विनियुक्त हैं। रामराज्य का अर्थ उनमें से किसी एक अंग से व्यक्त नहीं हो सकता। किसी एक को रामराज्य के केन्द्र में मानकर शेष को परिधि का स्थान देना भी अनुचित होगा, क्योंकि ऐसा करने से उनकी पारस्परिकता को सही सही नहीं समझा जा सकता। इस प्रकार रामराज्य में जिस स्थिति का चित्र अंकित हुआ है वह कुल मिलाकर एक सुखी और सम्पन्न समाज की स्थिति है। लेकिन सुख सम्पन्नता का अहसास तब तक निरर्थक है, जब तक वह समष्टि के स्तर से आगे आकर व्यक्तिशः प्रसन्नता की प्रेरक नहीं बन जाती। इस प्रकार रामराज्य में लोक मंगल की स्थिति के बीच व्यक्ति के केवल कल्याण का विधान नहीं किया गया है। इतना ही नहीं, तुलसीदासजी ने रामराज्य में अल्पवय में मृत्यु के अभाव और शरीर के नीरोग रहने के साथ ही पशु पक्षियों के उन्मुक्त विचरण और निर्भीक भाव से चहकने में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की उत्साहपूर्ण और उमंगभरी अभिव्यक्त को भी वाणी दी गई है –
अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।
सीतल सुरभि, पवन वट मंदा।
गुंजत अलि लै चलि-मकरंदा।।’’
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि रामराज्य एक ऐसी मानवीय स्थिति का द्योतक है, जिसमें समष्टि और व्यष्टि दोनों सुखी है।
वर्तमान समय में भी यदि हम ऐसे ही अलौकिक राम राज्य की स्थापना करना चाहते हैं, तो हमें सर्वप्रथम राम राज्य के आधार दृ श्री राम व उनके दिव्य चरित्र को जानना होगा।
ऐसे ब्रह्मस्वरूप श्री राम को केवल आत्म के द्वारा ही जाना जा सकता है। एक तत्वेत्ता गुरु जब हमें आत्मज्ञान प्रदान करते हैं, तभी हमारे भीतर प्रभु का तत्वरूप ज्योति दृ स्वरूप प्रकट होता है और हम उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर पाते हैं। प्रभु श्री राम को जानने के बाद ही हम उनके दिव्य चरित्र व उनकी लीलाओं में निहित आदर्श सूत्रों को भली भाँति समझ कर चरितार्थ कर पाते हैं।
पर्यावरण हितेषी रामराज्य
प्रकृति का सानिध्य, प्रगति का विरोधी नहीं है। प्रकृति और प्रगति के बीच संघर्ष की नहीं, सामन्जस्य की आवश्यकता है। महात्मा गाँधी ने कहा था कि प्रकृति के सहारे हम केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं, विलासिता की नहीं। विलासिता की वृत्ति किसी भी राष्ट्र अथवा समाज को धीरे-धीरे ऊर्जाहीन कर उसे समाप्त प्राय कर देती है। प्रकृति का सानिध्य भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता है। महर्षि वाल्मीकि एवं तुलसीदास जी ने इस रहस्य को भली-भाँति समझा है। जिस रामराज्य की परिकल्पना महात्मा गाँधी ने की थी उसकी वैचारिक आधारशिला बहुत पहले महर्षि वाल्मीकि एवं तुलसीदास जी द्वारा रखी जा चुकी थी।
जब हम अपने किसी मित्र या सम्बन्धी से मिलते हैं तो सभी का हालचाल पूछते हैं। किसी से मिलकर हम उसके बच्चों, परिवार आदि की ही कुशलक्षेम पूछते हैं। हम सबने कभी सोचा ही नहीं कि किसी का हालचाल पूछते समय उस क्षेत्र के वनों, नदियों, तालाबों या वन्यजीवों का समाचार जानने की चेष्टा करें। ऐसा इसलिए है कि अब हम वनों, नदियाँ, तालाबों या वन्यजीवों को परिवार का अंग मानते ही नहीं। पहले ऐसा नहीं था। उस समय लोग एक दूसरे का समाचार पूछते समय वनों, बागों, जलस्रोतों आदि की भी कुशलता जानना चाहते थे। इसका कारण यह था कि उस समय लोग प्रकृति के विभिन्न अवयवों को परिवार की सीमा के अन्तर्गत ही मानते थे। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण चित्रकूट में राम भरत मिलन के समय मिलता है। श्री राम अपने दुखी भाई भरत से पूछते हैं कि उनके दुखी होने का क्या कारण है? क्या उनके राज्य में वन क्षेत्र सुरक्षित हैं? अर्थात् वन क्षेत्रों के सुरक्षित न रहने पर पहले लोग दुखी एवं व्याकुल हो जाया करते थे। वाल्मीकि रामायण में वर्णित उदाहरण निम्न प्रकार है-
कच्चिन्नागवनं गुप्तं कच्चित् ते सन्ति धेनुकाः।
कच्चिन्न गणिकाश्वानां कुन्जराणां च तृप्यसि।।
(2/100/50)
जहाँ हाथी उत्पन्न होते हैं, वे जंगल तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हैं न? तुम्हारे पास दूध देने वाली गाएँ तो अधिक संख्या में हैं न? (अथवा हाथियों को फँसाने वाली हथिनियों की तो तुम्हारे पास कमी नहीं है?) तुम्हें हथिनियों, घोड़ों और हाथियों के संग्रह से कभी तृप्ति तो नहीं होती? अनेक स्थानों पर वाल्मीकि जी ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता को रेखांकित किया है। श्री भरत जी अपनी सेना एवं आयोध्यावासियों को छोड़कर मुनि के आश्रम में इसलिये अकेले जाते हैं कि आस-पास के पर्यावरण को कोई क्षति न पहुँचे-
ते वृक्षानुदकं भूमिमाश्रमेषूटजांस्तथा।
न हिंस्युरिति तेवाहमेक एवागतस्ततः।।
(2/91/09)
वे आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि और पर्णशालाओं को हानि न पहुँचायें, इसलिये मैं यहाँ अकेला ही आया हूँ। पर्यावरण की संवेदनशीलता का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
रामराज्य पर्यावरण की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न था। मजबूत जड़ों वाले फल तथा फूलों से लदे वृक्ष पूरे क्षेत्र में फैले हुए थे-
नित्यमूला नित्यफलास्तरवस्तत्र पुष्पिताः।
कामवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शैं मरुतः।।
(6/128/13)
श्री राम के राज्य में वृक्षों की जड़ें सदा मजबूत रहती थीं। वे वृक्ष सदा फूलों और फलों से लदे रहते थे। मेघ प्रजा की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार ही वर्षा करते थे। वायु मन्द गति से चलती थी, जिससे उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था।
तुलसीदास जी ने वर्णन किया है कि उस समय में पर्यावरण प्रदूषण की कोई समस्या नहीं थी। काफी बड़े भू-भाग पर वन क्षेत्र विद्यमान थे। वन क्षेत्रों में ही ऋषियों एवं मुनियों के आश्रम थे, जो उस समय ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र थे। समाज में इन ऋषि-मुनियों का बड़ा सम्मान था। बड़े-बड़े राजा महाराजा भी इन मनीषियों के सम्मान में नत मस्तक हो जाते थे। श्रीराम को वनवास मिलने के उपरान्त सर्वाधिक प्रसन्नता इसी बात की हुई
कि वन क्षेत्र में ऋषियों का सत्संग का लाभ प्राप्त होगा-
मुनिगन मिलन विशेष वन, सबहिं भाँति हित मोर।
प्राचीन काल में ज्ञान विज्ञान एवं शिक्षा के केन्द्र आबादी से दूर होते थे। प्रकृति की गोद में स्थित इन केन्द्रों से ही हमारी सभ्यता का प्रचार एवं प्रसार हुआ। विभिन्न सामाजिक बुराइयों से ये केन्द्र सर्वथा दूर थे। यहाँ का वातावरण अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल था। वन एवं वन्य जीवों के प्रति प्रेम यहाँ स्वतः उत्पन्न हो जाता था। ऋषियों एवं मुनियों के प्रत्येक कृत्य से सृष्टि के प्रति प्रेम का सन्देश गूँजता था। मानसिक शान्ति एवं आत्मिक प्रसन्नता यहाँ भरपूर मात्रा में विद्यमान थी तथा विद्याध्ययन करने वाले बच्चों के संस्कार का निर्माण इसी परिवेश में होता था। श्रीराम को आने वाले समय में रामराज्य की स्थापना करनी थी, जिसमें सभी सुखी हो सकें इसलिये स्वाभाविक ही था कि उन्होंने लम्बे समय तक ऋषि-मुनियों के सानिध्य में रहने का निर्णय लिया।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में अनेक स्थानों पर वन क्षेत्रों का सजीव वर्णन किया है। वन क्षेत्र घनी आबादी से दूर स्थित होते थे तथा इन क्षेत्रों में भोली-भाली आदिवासी जनता रहती थी। श्री राम ने इन भोले-भाले लोगों से प्रगाढ़ मित्रता स्थापित की और जीवनपर्यन्त उसका निर्वहन किया। निषादराज केवट, वानरराज सुग्रीव एवं गिद्धराज जटायु इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। वनवासी वानरों से राम की मित्रता जगत प्रसिद्ध है। इन्हीं बन्दर-भालुओं की सहायता से उन्होंने लंका पर विजय प्राप्त की। उपेक्षित गिद्ध जटायु को श्रीराम ने अत्यधिक सम्मान दिया। श्रीराम के सानिध्य से अंगद, हनुमान, जामवन्त, नल, नील, सुग्रीव, द्विविद, आदि भालू, कपि तथा जटायु जैसे गिद्ध सदा के लिये अमर हो गये। पूरे रामचरित मानव में हम पाते हैं कि विभिन्न प्राकृतिक अवयवों को उपभोग मात्र की वस्तु नहीं माना गया है। बल्कि सभी जीवों एवं वनस्पतियों से प्रेम का सम्बन्ध स्थापित किया गया है। प्रकृति के अवयवों का उपभोग निषिद्ध नहीं है। उनके प्रति कृतज्ञ होकर हम आवश्यकतानुसार उस सीमा तक उपयोग कर सकते हैं जब तक किसी अवयव के अस्तित्व पर संकट न आए। कोई भी प्रजाति किसी भी दशा में लुप्तप्राय नहीं होनी चाहिये। रामराज्य में प्रकृति के उपहार स्वतः प्राप्त थे।
गोपाल लाल माली
प्रधानाचार्य