1905में जिस समय सावरकर बी.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, उसी समय उन्होंने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का निर्णय लिया। इस निर्णय पर नरम विचारों वाले कांग्रेसी नेताओं का स्पष्ट मत था कि इनका परिणाम शुभ नहीं होगा। इससे सरकार, शान्तिप्रिय जनता तथा एंग्लो-इण्डियनों के विरोध का सामना करना पड़ेगा। इसके साथ ही गरम विचारों वाले कांग्रेसी चाहते थे कि स्वदेशी चीजों का प्रचार कार्य युवकों को अवश्य करना चाहिए, किन्तु विदेशी कपड़ों की होली न जलाकर, उन्हें गरीबों में बांट देना चाहिए। सावरकर का स्पष्ट मत था कि सरकार के विरुद्ध जनता में तीव्र आक्रोश उत्पन्न करने हेतु विदेशी वस्त्रों की होली जलाना आवश्यक था। अतः 22 अगस्त, 1906 को उन्होंने पूना में पहली बार सार्वजनिक रूप में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वयं लोकमान्य तिलक ने की।
पूणे के बीच बाजार में विदेशी वस्त्रों का ढ़ेर लगाया गया। क्रांतिपुंज तिलकजी की उपस्थिति में सावरकर ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की आवश्यकता पर ओजस्वी भाषण दिया। इसके पश्चात विदेशी वस्त्रों के उस पहाड़ को अग्नि को समर्पित कर दिया गया।
सावरकर के इस साहसिक कार्य का समाचार समस्त विश्व में फैल गया। यह घटना समाचार पत्रों में भी चर्चा का विषय रहा। इसी घटना के परिणामस्वरूप उन्हें कॉलेज से भी निष्कासित होना पडा था।
पुणे के कॉलेज से निष्कासित होने के बाद बम्बई विश्वविद्यालय ने किसी प्रकार सावरकर को बी.ए. की परीक्षा देने की अनुमति दे दी।