भगवान श्री राम से पहले और वामन भगवान के जन्म से पहले भगवान विष्णु का एक अवतार हुआ था। यह अवतार संसार में क्रोध का प्रतीक माना जाता है। इन्होंने स्वयं विष्णु के ही दूसरे अवतार को युद्ध के लिए ललकारा था। भगवान विष्णु के इस अवतार का नाम है परशुराम। भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र थे। वे विष्णु के अवतार और शिव के परम भक्त थे। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये ‘जामदग्नेय’ भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीया, (वैशाख शुक्ल तृतीया) को हुआ था।
जन्म प्रसंग-
पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधु को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो फल देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन फलों का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपनी पुत्रवधु को उत्तम सन्तान होने का फल दिया है तो अपने फल को अपनी पुत्री के फल के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले फल का सेवन कर लिया।
योगशक्ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधु के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ अज्ञानता वश तुम्हारे फल का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे।
बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे – रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और राम। पितामह भृगु द्वारा संपन्न नामकरण-संस्कार के अनन्तर राम, किंतु जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्नेय और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किए रहने के कारण परशुराम कहलाए। आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यपजी से विधिवत अविनाशी वैष्णव-मंत्र प्राप्त हुआ। तदनंतर कैलाश गिरिश्रृंग स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया।
शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्यविजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मंत्र कल्पतरू भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किए कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरांत कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त ‘‘शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र’’ भी लिखा। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृत के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था।
मातृ-पितृ भक्त परशुराम
श्रीमद्भागवत में दृष्टान्त है कि गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्ड स्वरूप अपने पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी।
अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद एवं उन्हें बचाने हेतु आगे आये अपने समस्त भाइयों का वध कर डाला। उनके इस कार्य से प्रसन्न जमदग्नि ने जब उनसे वर माँगने का आग्रह किया तो परशुराम ने कहा कि मेरी मां और भाई पुनः जीवित हो जाए और उनको इस बात की याद नहीं रहे कि उनका सर मैंने काटा था। ऋषि ने वैसा ही किया उनकी माता और भाई को पुनर्जीवित किया और उन्हें इस बात का भी पता नहीं चला। परशुराम अपने माता पिता से आज्ञा लेकर वर्तमान राजस्थान के चित्तौड़ जिले में स्थित मातृ कुंडिया स्थान के जल में स्नान कर अपनी मां की हत्या के पाप से मुक्त हो गए तथा यहीं पर शिवजी की तपस्या में लीन हो गए।
परशुराम ने दिया कर्ण को श्राप
महाभारत काल में, युद्ध कला में सिर्फ मल्ल-युद्ध ही नहीं होता था, बल्कि सभी तरह के शस्त्रों को चलाना भी सिखाया जाता था। इसमें खास रूप से तीरंदाजी पर जोर दिया जाता था। कर्ण जानता था कि परशुराम सिर्फ ब्राह्मणों को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करेंगे। सीखने की चाहत में वह एक ब्राह्मण के रूप में परशुराम के पास चला गया। परशुराम ने उसे अपना शिष्य बना लिया, और वो सब कुछ सिखा दिया जो वे जानते थे। कर्ण बहुत जल्दी सीख गया। किसी भी अन्य शिष्य में उस तरह का स्वाभाविक गुण और क्षमता नहीं थी। परशुराम उससे बहुत खुश हुए।
एक दिन जंगल में अभ्यास करते समय, परशुराम बहुत थक गए। उन्होंने कर्ण से कहा वे लेटना चाहते हैं। कर्ण बैठ गया ताकि परशुराम कर्ण की गोद में अपना सिर रख पाएँ। फिर परशुराम सो गये। तभी एक खून चूसने वाला कीड़ा कर्ण की जाँघ में घुस गया और उसका खून पीने लगा। उसे भयंकर कष्ट हो रहा था, और उसके जाँघ से रक्त की धार बहने लगी। वह अपने गुरु की नींद को तोड़े बिना उस कीड़े को हटा नहीं सकता था। लेकिन अपने गुरु की नींद को तोड़ना नहीं चाहता था। धीरे-धीरे रक्त की धार परशुराम के शरीर तक पहुंची और उसकी गर्माहट से उनकी नींद खुल गई। परशुराम ने आँखें खोल कर देखा कि आस पास बहुत खून था।
परशुराम बोले – ‘ये किसका खून है?’ कर्ण ने बताया – ‘यह मेरा खून है।’ फिर परशुराम ने कर्ण की जाँघ पर खुला घाव देखा। खून पीने वाला कीड़ा कर्ण की मांसपेशी में गहरा प्रवेश कर चुका था। फिर भी वह बिना हिले डुले वहां बैठा था।
परशुराम ने उस की ओर देखकर बोले – ‘तुम ब्राह्मण नहीं हो सकते। इतना दर्द सहकर भी स्थिर बैठे रहना, ऐसा तो कोई क्षत्रिय ही कर सकता है।’
कर्ण अपराधी भाव से बोला – ‘हाँ, मैं ब्राह्मण नहीं हूँ। कृपया मुझ पर क्रोधित न हों।’
परशुराम अत्यधिक क्रोध से भर गए। वे बोले – ‘तुमको क्या लगता है, तुम एक झूँठा जनेऊ पहनकर यहाँ आ सकते हो और मुझे धोखा देकर सारी विद्या सीख सकते हो? मैं तुम्हें श्राप देता हूँ।’
कर्ण बोला – ‘हां मैं एक ब्राह्मण नहीं हूँ। पर मैं क्षत्रिय भी नहीं हूं। मैं सूतपुत्र हूँ, मैंने बस आधा झूठ बोला था।’
पशुराम ने उसकी बात नहीं सुनी। वे बोले – ‘तुमने मुझे धोखा दिया है। ‘जो कुछ मैंने सिखाया है तुम उसका आनंद ले सकते हो, पर जब तुम्हें इसकी सचमुच जरूरत होगी, तब तुम सभी मंत्र भूल जाओगे जिनकी तुम्हें जरूरत होगी, और वही तुम्हारा अंत होगा।’
कर्ण उनके पैरों में गिरकर दया की भीख मांगने लगा। वह बोला – कृपया ऐसा मत कीजिए। मैं आपको धोखा देने की नीयत से नहीं आया था। बस मैं सीखने के लिए बेचैन था और कोई भी सिखाने के लिए तैयार नहीं था। सिर्फ आप ही अकेले ऐसे इंसान हैं, जो किसी ऐसे को सिखाने के लिए तैयार हों, जो कि क्षत्रिय न हो।’
परशुराम का गुस्सा ठंडा हो गया। वे बोले – ‘लेकिन फिर भी, तुमने झूठ बोला। तुम्हें अपनी स्थिति मुझे बतानी चाहिए थी। तुमको मुझसे बात करनी चाहिए थी। पर तुम्हें कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए था। मैं श्राप वापस नहीं ले सकता। पर मैं देख सकता हूं कि तुम्हारी महत्वकांक्षा राजपाट पाने या शक्तिशाली होने की नहीं है। तुम सिर्फ यश चाहते हो, और तुम्हें यश मिलेगा। लोग हमेशा तुम्हें एक यशस्वी योद्धा की तरह याद करेंगे। पर तुम्हारे पास कभी शक्ति या साम्राज्य नहीं होगा, और तुम कभी महानतम धनुर्धर के रूप में भी नहीं जाने जाओगे। पर तुम्हारा यश हमेशा बना रहेगा, जो कि तुम्हारी चाहत भी है।’
हैहयवंशी क्षत्रियों का विनाश-
सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त। महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे।
भार्गव प्रमुख जमदग्नि ऋषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है। कार्तवीर्यार्जुन ने अपनी तपस्या से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।
संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्नि मुनि के आश्रम जा पहुँचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया।
कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से हैहय वंशी क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका। इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।
दन्तकथाएँ-
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथानक मिलता है कि कैलाश स्थित भगवान शंकर के अन्तःपुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्टा की। तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराके भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये।
एक अन्य कथा के अनुसार उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को ‘‘विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही’’ बताते हुए ‘‘बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाये’’ और क्रोधान्ध हो ‘‘सुनहु राम जेहि शिवधनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’’ तक कह डाला। तदुपरान्त अपनी शक्ति का संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए ‘‘अनुचित बहुत कहेउ अज्ञाता, क्षमहु क्षमामन्दिर दोउ भ्राता’’ तपस्या के निमित्त वन को लौट गये।
रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ साक्षी हैं- ‘‘कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू’’। वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा के अनुसार दशरथ नन्दन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया और परशुराम ने रामचन्द्र की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया।जाते जाते भी उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविन्दों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की थी।
कृष्ण मुरारी गौतम