भगत सिंह नाम स्मरण से ही भारत के क्रन्तिकारी आंदोलन को एक नई दिशा देने वाले, पंजाब में क्रांति के सन्देश को फैलाने के लिए नौजवान भारत सभा का गठन करने वाले, भारत में गणतंत्र की स्थापना के लिए चंद्रशेखर आजाद के साथ मिलकर हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ का गठन करने वाले, लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए पुलिस अधिकारी सॉन्डर्स की हत्या करने वाली टीम के कमांडर, बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर केन्द्रीय विधान सभा में बम फेकने वाले और मात्र 24 साल की उम्र में देश के लिए बलिदान देने वाले भारत माता के अमर सपूत एक रोबीले नौजवान का चित्र प्रत्येक भारत वासी के दिलो-दिमाग पर अंकित हो उठता है।
सरदार भगतसिंह का नाम अमर शहीदों में प्रमुख रूप से लिया जाता है। भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उनका पैतृक गांव खट्कड़ कलाँ है जो पंजाब, भारत में है। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ, उसी दिन उनके पिता और चाचा जेल से रिहा होकर आये। इसलिए उनकी दादी ने उनका नाम ‘भागो वाला’ रखा था। जिसका मतलब होता है ‘अच्छे भाग्य वाला’। बाद में उन्हें ‘भगतसिंह’ कहा जाने लगा। अपने सभी भाई बहनों में भगत सिंह सबसे प्रखर, तेज और विलक्षण बुद्धि के स्वामी थे। इन्हें देशभक्ति की भावना अपने घर से ही प्राप्त हुई थी, क्यांकि इनके पिता और चाचा अपने देश के आजादी के लिए प्रयासरत थे और इनके दादा जी ने तो अपने देश की आजादी की खातिर इनको ब्रिटिश स्कूल में पढ़ाने से मना कर दिया था। जिसके कारण इनकी पढ़ाई गाँव के आर्य समाज के स्कूल में हुई।
भगत सिंह का पारिवारिक परिपेक्ष्य
भगत सिंह का पूरा परिवार देशभक्ति के रंग में रंगा हुआ था। इनके दादाजी सरदार अर्जुन देव अंग्रेजों के कट्टर विरोधी थे। अर्जुन देव के तीन पुत्र थे (सरदार किशन सिंह, सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह)। ये तीनों भी देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत थे। भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह ने 1905 के बंग-भंग के विरोध में लाला लाजपत राय के साथ मिलकर पंजाब में जन विरोध आन्दोलन का संचालन किया। 1907 में, 1818 के तीसरे रेग्युलेशन एक्ट के विरोध में तीव्र प्रतिक्रियाएँ हुई। जिसे दबाने के लिये अंग्रेजी सरकार ने कड़े कदम उठाये और लाला लाजपत राय और इनके चाचा अजीत सिंह को जेल में डाल दिया गया। अजीत सिंह को बिना मुकदमा चलाये रंगून जेल में भेज दिया गया। जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप सरदार किशन सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह ने जनता के बीच में विरोधी भाषण दिये तो अंग्रेजों ने इन दोनों को भी जेल में डाल दिया। भगत सिंह के दादा, पिता और चाचा ही नहीं, इनकी दादी जय कौर भी बहुत बहादुर महिला थी। वो सूफी संत अम्बा प्रसाद, जो उस समय के भारत के अग्रणी राष्ट्रवादियों में से एक थे, की बहुत बड़ी समर्थक थीं। एक बार जब सूफी संत अम्बा प्रसाद जी सरदार अर्जुन सिंह के घर पर रुके हुये थे, उसी दौरान पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिये आ गयी, किन्तु भगत सिंह की दादी जय कौर ने बड़ी चतुराई से उन्हें बचा लिया। यदि भगत सिंह के बारे में गहनता से अध्ययन करें तो ये बात बिल्कुल साफ है कि भगत पर उस समय की तत्कालिक परिस्थितियों और अपने पारिवारिक परिप्रेक्ष्य का गहरा प्रभाव पङा। ये बात अलग है कि भगत सिंह इन सबसे भी दो कदम आगे चले गये।
जलियाँवाला बाग हत्याकांड
1916 में लाहौर के डी. ऐ. वी. विद्यालय में पढ़ते समय युवा भगत सिंह जाने-पहचाने राजनेता लाला लाजपत राय और रास बिहारी बोस के संपर्क में आये। उस समय पंजाब राजनैतिक रूप से काफी उत्तेजित था। जब जलियाँवाला बाग हत्याकांड हुआ तब भगत सिंह सिर्फ 12 वर्ष के थे। इस हत्याकांड ने उन्हें बहुत व्याकुल कर दिया। वो हत्याकाण्ड की अगली सुबह जलियाँवाला बाग पहुँच गए और वहाँ से एक काँच की शीशी में खून से सनी मिट्टी भरकर ले आये। बहन अमृत कौर के पूछने पर उन्होंने अपने साथ लाई उस मिट्टी को दिखाते हुये बताया कि वो बाग गये थे और उस शीशी को पूजा में रखकर उस पर फूल चढ़ाये। भगत सिंह प्रत्येक दिन नियम से उस पर फूल चढ़ाते थे। इस हत्याकांड ने उनके अंग्रेजों को भारत से निकाल फेंकने के संकल्प को और सुदृढ़ कर दिया।
शादी के लिये इंकार
भगत सिंह अपनी दादी के बहुत लाड़ले थे। उनके कहने पर सरदार किशन सिंह ने पड़ोस के गांव के एक अमीर सिख परिवार में शादी तय कर दी। किन्तु भगत सिंह ने शादी के लिये साफ मना कर दिया। उनके तरह तरह के बहानों को सुनकर किशन सिंह ने झल्लाकर कहा कि तुम्हारी शादी होगी और ये फैसला आखिरी फैसला है। उनकी सगाई तय हो गयी। भगत सिंह सगाई वाले दिन अपने पिता के नाम पत्र छोड़ कर लाहौर से कानपुर भाग आये। उस पत्र में लिखे उनके शब्द निम्न है –
‘‘पूज्य पिताजी
नमस्ते
मेरी जिन्दगी मकसदे आला यानि आजादी-ए-हिन्द के अमूल के लिये वक्फ हो चुकी है। इसलिये मेरी जिन्दगी में दुनियाबी खाहशाहत वायसे कशिश नहीं है।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था तो बापूजी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि खिदमते वतन के लिये वक्फ कर दिया गया है, लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ।
उम्मीद है कि आप मुझे माफ फरमायेंगें।
आपका ताबेदार
भगत सिंह’’
भगत सिंह की क्रान्तिकारी गतिविधियाँ :
भगत सिंह किशोर अवस्था से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे थे। 13 वर्ष की अवस्था में असहयोग आन्दोलन को सफल बनाने के लिये उन्होंने स्कूल छोड़ दिया।
असहयोग आन्दोलन के स्थगन के बाद भगत सिंह ने सिख सम्प्रदाय के आन्दोलन (गुरुद्वारा आन्दोलन) में भाग लिया। ये आन्दोलन सफल भी हुआ। किन्तु इस आन्दोलन में सिखों को सफलता मिल जाने के बाद उनमें रुढ़िवाद और साम्प्रदायिक संकीर्णता का अंहकार बढ़ गया। इस कारण भगत सिंह ने इस से अपना नाता तोड़ लिया।
सन् 1923-24 में गाँधी जी के आन्दोलन समाप्ति के बाद लोगों का उत्साह ठंडा पड़ गया था, लोगों में फिर से स्वाधीनता की भावना को जागृत करने के लिये अपने साथियों सुखदेव और यशपाल के साथ नाटकों का आयोजन करना प्रारम्भ कर दिया। उनका पहला नाटय मंचन कृष्ण विजय था, जो महाभारत की कथा पर आधारित था। उसमें कहीं-कहीं संवादों को बदलकर अपने देशभक्ति से संबंधित संवादों का प्रयोग किया गया। कौरव पक्ष को अंग्रेजों की तरह और पांडवों को भारतवासियों की तरह प्रस्तुत किया गया था।
1923 तक क्रान्तिकारी दल की सदस्यता प्राप्त करके प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के विशेष कृपा पात्र बन गये थे।
देश सेवा में खुद को समर्पित करने के उद्देश्य से 1923 में लाहौर (घर) को छोड़कर सान्याल जी के कहने पर कानपुर चले गये।
अपनी क्रान्तिकारी क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिये अपना नाम बदलकर बलवन्त सिंह रख लिया और गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ ने सम्पादन विभाग में नियुक्त करा दिया और कुछ समय तक वहीं रहकर इसी नये नाम से लेख लिखने लगे।
छः महीने बाद अपनी दादी की अस्वस्था की सूचना मिलने पर शादी न करने की शर्त पर घर वापस आये।
नाभा के राजा रिपुदमन ने ननकाना सहाब में हुये गोली-काण्ड और राक्षसी लाठी चार्ज के विरोध में शोक सभा का आयोजन किया, जिसमें उन शहीदों की शोक-दिवस मनाने के लिये शोक-सभा का आयोजन किया। जिससे क्रोधित होकर अंग्रेजों ने उन्हें राज्य से हटा दिया और देहरादून में नजरबन्द कर दिया । इस घटना के बाद भगत सिंह लाहौर से दिल्ली चले गये और अपने पहले नाम बलवन्त सिंह से ‘वीर अर्जुन’ में लिखने लगे।
मार्च 1926 में नौ जवान भारत सभा का गठन।
साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय को नेतृत्व करने के लिये तैयार करके साइमन के विरोध में आन्दोलन का आयोजन किया।
दिसम्बर 1928 में पंजाब-केसरी लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिये पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या।
काकोरी काण्ड के अभियुक्तों को जेल से छुड़ाकर भगाने का प्रयास।
8 अप्रैल 1929 को असेंम्बली में साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ बम फेंका।
15 जून 1929 को कैदियों के साथ एक जैसा व्यवहार, भोजन और अन्य सुविधाओं के लिये कैदियों के हक में भूख हड़ताल।
नवयुवक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र
‘कौम के नाम सन्देश’ के रूप में प्रसिद्द और ‘नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र ‘ शीर्षक के साथ मिले इस दस्तावेज के कई प्रारूप और हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हैं, यह एक संक्षिप्त रूप है। लाहौर के पीपुल्ज में 29 जुलाई, 1931 और इलाहाबाद के अभ्युदय में 8 मई, 1931 के अंक में इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए थे। यह दस्तावेज अंग्रेज सरकार की एक गुप्त पुस्तक ‘बंगाल में संयुक्त मोर्चा आंदोलन की प्रगति पर नोट’ से प्राप्त हुआ, जिसका लेखक सी आई डी अधिकारी सी ई एस फेयरवेदर था। उसके अनुसार यह लेख भगतसिंह ने लिखा था और 3 अक्टूबर, 1931 को श्रीमती विमला प्रभादेवी के घर से तलाशी में हासिल हुआ था। सम्भवतः 2 फरवरी, 1931 को यह दस्तावेज लिखा गया था।
प्रिय साथियों,
इस समय हमारा आन्दोलन अत्यन्त महत्वपूर्ण परिस्थितियों में से गुजर रहा है। एक साल के कठोर संग्राम के बाद गोलमेज कॉन्फ्रेन्स ने हमारे सामने शासन-विधान में परिवर्तन के सम्बन्ध में कुछ निश्चित बातें पेश की हैं और कांग्रेस के नेताओं को निमन्त्रण दिया है कि वे आकर शासन-विधान तैयार करने के कामों में मदद दें। कांग्रेस के नेता इस हालत में आन्दोलन को स्थगित कर देने के लिए तैयार दिखायी देते हैं। वे लोग आन्दोलन स्थगित करने के हक में फैसला करेंगे या खि़लाफ, यह बात हमारे लिये बहुत महत्व नहीं रखती। यह बात निश्चित है कि वर्तमान आन्दोलन का अन्त किसी न किसी प्रकार के समझौते के रूप में होना लाजिमी है। यह दूसरी बात है कि समझौता जल्दी हो जाये या देरी हो।
वस्तुतः समझौता कोई हेय और निन्दा-योग्य वस्तु नहीं, जैसा कि साधारणतः हम लोग समझते हैं, बल्कि समझौता राजनैतिक संग्रामों का एक अत्यावश्यक अंग है। कोई भी कौम, जो किसी अत्याचारी शासन के विरुद्ध खड़ी होती है, जरूरी है कि वह प्रारम्भ में असफल हो और अपनी लम्बी जद्दोजहद के मध्यकाल में इस प्रकार के समझौते के जरिये कुछ राजनैतिक सुधार हासिल करती जाये, परन्तु वह अपनी लड़ाई की आखिरी मंजिल तक पहुँचते-पहुँचते अपनी ताकतों को इतना दृढ़ और संगठित कर लेती है और उसका दुश्मन पर आखिरी हमला ऐसा जोरदार होता है कि शासक लोगों की ताकतें उस वक्त तक भी यह चाहती हैं कि उसे दुश्मन के साथ कोई समझौता कर लेना पड़े। यह बात रूस के उदाहरण से भली-भाँति स्पष्ट की जा सकती है।
1905 में रूस में क्रान्ति की लहर उठी। क्रान्तिकारी नेताओं को बड़ी भारी आशाएँ थीं, लेनिन उसी समय विदेश से लौट कर आये थे, जहाँ वह पहले चले गये थे। वे सारे आन्दोलन को चला रहे थे। लोगों ने कोई दर्जन भर भूस्वामियों को मार डाला और कुछ मकानों को जला डाला, परन्तु वह क्रान्ति सफल न हुई। उसका इतना परिणाम अवश्य हुआ कि सरकार कुछ सुधार करने के लिये बाध्य हुई और द्यूमा (पार्लियामेन्ट) की रचना की गयी। उस समय लेनिन ने द्यूमा में जाने का समर्थन किया, मगर 1906 में उसी का उन्होंने विरोध शुरू कर दिया और 1907 में उन्होंने दूसरी द्यूमा में जाने का समर्थन किया, जिसके अधिकार बहुत कम कर दिये गये थे। इसका कारण था कि वह द्यूमा को अपने आन्दोलन का एक मंच (प्लेटफार्म) बनाना चाहते थे।
इसी प्रकार 1917 के बाद जब जर्मनी के साथ रूस की सन्धि का प्रश्न चला, तो लेनिन के सिवाय बाकी सभी लोग उस सन्धि के खिलाफ थे। परन्तु लेनिन ने कहा, ‘‘शान्ति, शान्ति और फिर शान्ति-किसी भी कीमत पर हो, शान्ति। यहाँ तक कि यदि हमें रूस के कुछ प्रान्त भी जर्मनी के ‘वारलार्ड’ को सौंप देने पड़ें, तो भी शान्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए।’’ जब कुछ बोल्शेविक नेताओं ने भी उनकी इस नीति का विरोध किया, तो उन्होंने साफ कहा कि ‘‘यह समय बोल्शेविक सरकार को मजबूत करना है।’’
जिस बात को मैं बताना चाहता हूँ वह यह है कि समझौता भी एक ऐसा हथियार है, जिसे राजनैतिक जद्दोजहद के बीच में पग-पग पर इस्तेमाल करना आवश्यक हो जाता है, जिससे एक कठिन लड़ाई से थकी हुई कौम को थोड़ी देर के लिये आराम मिल सके और वह आगे युद्ध के लिये अधिक ताकत के साथ तैयार हो सके। परन्तु इन सारे समझौतों के बावजूद जिस चीज को हमें भूलना नहीं चाहिए, वह हमारा आदर्श है जो हमेशा हमारे सामने रहना चाहिए। जिस लक्ष्य के लिये हम लड़ रहे हैं, उसके सम्बन्ध में हमारे विचार बिलकुल स्पष्ट और दृढ़ होने चाहिए। यदि आप सोलह आने के लिये लड़ रहे हैं और एक आना मिल जाता है, तो वह एक आना जेब में डाल कर बाकी पन्द्रह आने के लिये फिर जंग छेड़ दीजिए। हिन्दुस्तान के मॉडरेटों की जिस बात से हमें नफरत है वह यही है कि उनका आदर्श कुछ नहीं है। वे एक आने के लिये ही लड़ते हैं और उन्हें मिलता कुछ भी नहीं।
भारत की वर्तमान लड़ाई ज्यादातर मध्य वर्ग के लोगों के बलबूते पर लड़ी जा रही है, जिसका लक्ष्य बहुत सीमित है। कांग्रेस दुकानदारों और पूँजीपतियों के जरिये इंग्लैण्ड पर आर्थिक दबाव डाल कर कुछ अधिकार ले लेना चाहती है। परन्तु जहाँ तक देश की करोड़ों मजदूर और किसान जनता का ताल्लुक है, उनका उद्धार इतने से नहीं हो सकता। यदि देश की लड़ाई लड़नी हो, तो मजदूरों, किसानों और सामान्य जनता को आगे लाना होगा, उन्हें लड़ाई के लिये संगठित करना होगा। नेता उन्हें आगे लाने के लिये अभी तक कुछ नहीं करते, न कर ही सकते हैं। इन किसानों को विदेशी हुकूमत के साथ-साथ भूमिपतियों और पूँजीपतियों के जुए से भी उद्धार पाना है, परन्तु कांग्रेस का उद्देश्य यह नहीं है।
इसलिये मैं कहता हूँ कि कांग्रेस के लोग सम्पूर्ण क्रान्ति नहीं चाहते। सरकार पर आर्थिक दबाव डाल कर वे कुछ सुधार और लेना चाहते हैं। भारत के धनी वर्ग के लिये कुछ रियायतें और चाहते हैं और इसलिये मैं यह भी कहता हूँ कि कांग्रेस का आन्दोलन किसी न किसी समझौते या असफलता में खत्म हो जायेगा। इस हालत में नौजवानों को समझ लेना चाहिए कि उनके लिये वक्त और भी सख्त आ रहा है। उन्हें सतर्क हो जाना चाहिए कि कहीं उनकी बुद्धि चकरा न जाये या वे हताश न हो बैठें।
महात्मा गाँधी की दो लड़ाइयों का अनुभव प्राप्त कर लेने के बाद वर्तमान परिस्थितियों और अपने भविष्य के प्रोग्राम के सम्बन्ध में साफ-साफ नीति निर्धारित करना हमारे लिये अब ज्यादा जरूरी हो गया है।
इतना विचार कर चुकने के बाद मैं अपनी बात अत्यन्त सादे शब्दों में कहना चाहता हूँ। आप लोग इंकलाब-जिन्दाबाद (long live revolution) का नारा लगाते हैं। यह नारा हमारे लिये बहुत पवित्र है और इसका इस्तेमाल हमें बहुत ही सोच-समझ कर करना चाहिए। जब आप नारे लगाते हैं, तो मैं समझता हूँ कि आप लोग वस्तुतः जो पुकारते हैं वही करना भी चाहते हैं। असेम्बली बम केस के समय हमने क्रान्ति शब्द की यह व्याख्या की थी – क्रान्ति से हमारा अभिप्राय समाज की वर्तमान प्रणाली और वर्तमान संगठन को पूरी तरह उखाड़ फेंकना है। हम सरकार की मशीन को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। हम इस उद्देश्य के लिये लड़ रहे हैं। परन्तु इसके लिये साधारण जनता को शिक्षित करना चाहिए।
जिन लोगों के सामने इस महान क्रान्ति का लक्ष्य है, उनके लिये नये शासन-सुधारों की कसौटी क्या होनी चाहिए? हमारे लिये निम्नलिखित तीन बातों पर ध्यान रखना किसी भी शासन-विधान की परख के लिये जरूरी है –
शासन की जिम्मेदारी कहाँ तक भारतीयों को सौंपी जाती है?
शासन-विधान को चलाने के लिये किस प्रकार की सरकार बनायी जाती है और उसमें हिस्सा लेने का आम जनता को कहाँ तक मौका मिलता है? भविष्य में उससे क्या आशाएँ की जा सकती हैं? उस पर कहाँ तक प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं? सर्व-साधारण को वोट देने का हक दिया जाता है या नहीं?
भारत की पार्लियामेन्ट का क्या स्वरूप हो, यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। भारत सरकार की कौंसिल आफ स्टेट सिर्फ अमीरों का जमघट है और लोगों को फाँसने का एक पिंजरा है, इसलिये उसे हटा कर एक ही सभा, जिसमें जनता के प्रतिनिधि हों, रखनी चाहिए। प्रान्तीय स्वराज्य का जो निश्चय गोलमेज कान्फ्रेन्स में हुआ, उसके सम्बन्ध में मेरी राय है कि जिस प्रकार के लोगों को सारी ताकतें दी जा रही हैं, उससे तो यह ‘प्रान्तीय स्वराज्य’ न होकर ‘प्रान्तीय जु़ल्म’ हो जायेगा।
इन सब अवस्थाओं पर विचार करके हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि सबसे पहले हमें सारी अवस्थाओं का चित्र साफ तौर पर अपने सामने अंकित कर लेना चाहिए। यद्यपि हम यह मानते हैं कि समझौते का अर्थ कभी भी आत्मसमर्पण या पराजय स्वीकार करना नहीं, किन्तु एक कदम आगे और फिर कुछ आराम है, परन्तु हमें साथ ही यह भी समझ लेना कि समझौता इससे अधिक भी और कुछ नहीं। वह अन्तिम लक्ष्य और हमारे लिये अन्तिम विश्राम का स्थान नहीं।
हमारे दल का अन्तिम लक्ष्य क्या है और उसके साधन क्या हैं-यह भी विचारणीय है। दल का नाम ‘सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’ है और इसलिए इसका लक्ष्य एक सोशलिस्ट समाज की स्थापना है। कांग्रेस और इस दल के लक्ष्य में यही भेद है कि राजनैतिक क्रान्ति से शासन-शक्ति अंग्रेजों के हाथ से निकल हिन्दुस्तानियों के हाथों में आ जायेगी। हमारा लक्ष्य शासन-शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद हो। इसके लिये मजदूरों और किसानों के संगठित करना आवश्यक होगा, क्योंकि उन लोगों के लिये लार्ड रीडिंग या इरविन की जगह तेजबहादुर या पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास के आ जाने से कोई भारी फर्क न पड़ सकेगा।
पूर्ण स्वाधीनता से भी इस दल का यही अभिप्राय है। जब लाहौर कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पास किया, तो हम लोग पूरे दिल से इसे चाहते थे, परन्तु कांग्रेस के उसी अधिवेशन में महात्मा जी ने कहा कि ‘‘समझौते का दरवाजा अभी खुला है।’’ इसका अर्थ यह था कि वह पहले ही जानते थे कि उनकी लड़ाई का अन्त इसी प्रकार के किसी समझौते में होगा और वे पूरे दिल से स्वाधीनता की घोषणा न कर रहे थे। हम लोग इस बेदिली से घृणा करते हैं।
इस उद्देश्य के लिये नौजवानों को कार्यकर्ता बन कर मैदान में निकलना चाहिए, नेता बनने वाले तो पहले ही बहुत हैं। हमारे दल को नेताओं की आवश्यकता नहीं। अगर आप दुनियादार हैं, बाल-बच्चों और गृहस्थी में फँसे हैं, तो हमारे मार्ग पर मत आइए। आप हमारे उद्देश्य से सहानुभूति रखते हैं, तो और तरीकों से हमें सहायता दीजिए। सख्त नियन्त्रण में रह सकने वाले कार्यकर्ता ही इस आन्दोलन को आगे ले जा सकते हैं। जरूरी नहीं कि दल इस उद्देश्य के लिये छिप कर ही काम करे। हमें युवकों के लिये स्वाध्याय-मण्डल (study circle) खोलने चाहिए। पैम्फलेटों और लीफलेटों, छोटी पुस्तकों, छोटे-छोटे पुस्तकालयों और लेक्चरों, बातचीत आदि से हमें अपने विचारों का सर्वत्र प्रचार करना चाहिए।
हमारे दल का सैनिक विभाग भी संगठित होना चाहिए। कभी-कभी उसकी बड़ी जरूरत पड़ जाती है। इस सम्बन्ध में मैं अपनी स्थिति बिलकुल साफ कर देना चाहता हूँ। मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसमें गलतफहमी की सम्भावना है, पर आप लोग मेरे शब्दों और वाक्यों का कोई गूढ़ अभिप्राय न गढ़ें।
यह बात प्रसिद्ध ही है कि मैं आतंकवादी (terrorist) रहा हूँ, परन्तु मैं आतंकवादी नहीं हूँ। मैं एक क्रान्तिकारी हूँ, जिसके कुछ निश्चित विचार और निश्चित आदर्श हैं और जिसके सामने एक लम्बा कार्यक्रम है। मुझे यह दोष दिया जायेगा, जैसा कि लोग राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ को भी देते थे कि फाँसी की काल-कोठरी में पड़े रहने से मेरे विचारों में भी कोई परिवर्तन आ गया है। परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरे विचार अब भी वही हैं। मेरे हृदय में अब भी उतना ही और वैसा ही उत्साह है और वही लक्ष्य है जो जेल के बाहर था। पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम बम से कोई लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। यह बात हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के इतिहास से बहुत आसानी से मालूम हो जाती है। केवल बम फेंकना न सिर्फ व्यर्थ है, अपितु बहुत बार हानिकारक भी है। उसकी आवश्यकता किन्हीं ख़ास अवस्थाओं में ही पड़ा करती है। हमारा मुख्य लक्ष्य मजदूरों और किसानों का संगठन होना चाहिए। सैनिक विभाग युद्ध-सामग्री को किसी ख़ास मौके के लिये केवल संग्रह करता रहे।
यदि हमारे नौजवान इसी प्रकार प्रयत्न करते जायेंगे, तब जाकर एक साल में स्वराज्य तो नहीं, किन्तु भारी कुर्बानी और त्याग की कठिन परीक्षा में से गुजरने के बाद वे अवश्य ही विजयी होंगे।
इंकलाब-जिन्दाबाद!
(2 फरवरी,1931)
तरुण शर्मा