महापुरुषों का आदर्शमयी जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि हौंसलों की गर्जना के आगे प्रत्येक परेशानी सहम कर उलटे पाँव लौट जाती है। संयम और धैर्य की शीतलता के आगे धधकते ज्चालामुखी भी शांत हो जाते हैं। मनुष्य की सकारात्मक सोच दुःख की कालिमा में भी सुख का उजाला कर देती है।
भारतभूमि अनन्तानन्त तीर्थो की भूमि, मनुष्यों की कर्मभूमि, ऋषि-मुनियों की तपोभूमि, धर्माचार्यों की साधनाभूमि एवं भगवान श्रीहरि की अवतार लीला भूमि है। दिव्य लोकों में अवस्थित देववृंद भी भारत की महिमा गाते हैं। ‘गायन्ति देवाः किल गीतकानि’ इत्यादि। यहाँ भगवान के विविध अवतारों में से श्रीकृष्णावतार परिपूर्णतम् अवतार माना गया है। जैसे एक दीपक से दूसरे दीपक को प्रज्वलित करने पर उसके प्रकाश में किसी प्रकार का न्यूनाधिक्य नहीं रहता, उसी प्रकार नित्यविभूति से लीलाविभूति में अवतीर्ण होने पर प्रभु की समस्त गुणशक्तियाँ यथावत रहती हैं। श्रीकृष्ण की लीलाओं को सुनना, गाना और वर्णन करना एक उत्सव, सतत अनुभूति है। इसलिए श्रीकृष्ण स्वयं ही नित्य उत्सवरूप हैं। तभी कोई भक्त जब प्रभु के दर्शन करता है तो उसे धारावाहिक, एक जैसी अनुभूति नहीं होती। भक्त को रसस्वरूप प्रभु प्रतिक्षण अपने आलौकिक सौंदर्य का, दिव्यातिदिव्य भावों और अर्थों का नया-नया बोध करवाते रहते हैं।
द्वापर में भी ऐसे ही एक महान् अवतार का प्राकट्य हुआ था, जिन्हें आज तक संसार भगवान श्री कृष्ण के नाम से पूजता है। उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्ष की एक खुली किताब है। जन्म से लेकर अवसान तक, शायद ही उनके जीवन में कभी सुख-चैन की घड़ियाँ आईं हों। लेकिन अपने बुलंद इरादों से उन्होंने हर विलापमय क्षण को मांगल्य के क्षणों में बदल कर रख दिया। हर ढल चुकी शाम को दोपहर की तरह स्वर्णिम बना दिया। उन्होंने इस निराश दुनिया को दिखा दिया कि कैसे सर्प के सिर से जहर की जगह मणि की प्राप्ति की जा सकती है। कैसे सागर की उफनती लहरों में डूबने की जगह, उन पर तैरा जा सकता है! आइए, हम भी उनकी जीवन-लीला से अपने लिए प्रेरणा के कुछ रत्न चुनें।
सबसे पहले, हम उनके जन्म का समय देखें। रात्रि बारह बजे। यह ऐसा समय है, जब विराट प्रभासमान सूर्य भी अंधकार की गहरी खाई में खो जाता है। कहीं कोई चिड़ियों की चहचहाहट नहीं होती। अगर होती है तो मात्रा उल्लू और चमगादड़ों के उड़ने की फड़फड़ाहट या कुत्तों के भौंकने और रोने की आवाजें। यह ऐसा अपवित्र समय है, जब पवित्र धार्मिक स्थलों के दीये भी थककर बुझ जाते हैं। अगर कहीं कोई महफिल जगमगाती है, तो वह है मयशाला। कहीं कोई जागता है, तो वे हैं चोर और लुटेरे। यह समय देवताओं के रमण का नहीं, अपितु भूत-प्रेतों के नग्न तांडव का होता है। चंद शब्दों में समेटें तो, रात्रि के बारह बजे संसार की प्रत्येक क्रिया काली होती है।
लेकिन भगवान कृष्ण ने यह कालिमा नहीं देखी। अगर कुछ देखा तो वह थी चंद्रमा की धवल चाँदनी! चोर-लुटेरों की वासना उनको नजर नहीं आई। लेकिन हाँ! चकोर का शुद्ध प्रेम भा गया। कमल का फूल भले ही सूर्यास्त के साथ मुरझा गया था, लेकिन उनकी दृष्टि ने रात की रानी नामक फूल को खिले देखा। भगवान कृष्ण को मानो दिन में अकेला-तन्हा भटकता सूर्य पसंद नहीं था। तभी असंख्य तारों से जगमगाते आसमां को तरजीह दी। उन्होंने घोर रात्रि को अपने जन्म का लग्न चुनकर, यह दिखा दिया कि इंसान की सोच ही समय को अनुकूल या प्रतिकूल बनाती है। हम समय के गुलाम नहीं, बल्कि वह ही हमारा गुलाम है।
भगवान कृष्ण का जन्म स्थल भी क्या था? कारागार। अत्यंत अशोभनीय स्थान। ऐसा स्थान जहाँ केवल आहें और सिसकियाँ गूँजती हैं, किसी शिशु की किलकारियाँ नहीं। जहाँ प्रभु की कथा नहीं बाँची जाती बल्कि कत्ल, डकैती और अपहरण के षड्यंत्र रचे जाते हैं। एक बार यदि सूर्य की उजली किरणें भी यहाँ चली आएँ तो शायद दागदार हो जाएँ। यहाँ आकर कोई भी सज्जन व्यक्ति उम्र भर सिर उठाने के काबिल नहीं रहता। लेकिन प्रभु कृष्ण ने अद्भुत कार्य किया। यहीं पर जन्म लेकर उन्होंने सारी दुनिया को दिखा दिया कि जन्म-स्थान के कारण कोई महान् नहीं होता। महान् होता है तो अपने कर्मों से। आप संसार के कैदखाने में जन्म लेकर भी कैदी की तरह नहीं, एक जेलर की तरह जी सकते हैं। जो कारागार में होते हुए भी बंधन में नहीं है। मुक्त है।
इसके बाद प्रभु कृष्ण वसुदेव जी के संग गोकुल की ओर बढ़े। पर यहाँ भी आसन कौन सा मिला? बाँस की टोकरी! बाँस देखने में तो गन्ने की तरह लगता है। लम्बा, सीधा। गन्ने की ही तरह उसमें भी बीच-बीच में गाँठें होती हैं और गाँठों के बीच में पोरियाँ। फिर भी यदि किसी को दोनों में से कोई एक चुनने को कहा जाए, तो वह गन्ना ही चुनेगा। क्यों? क्योंकि गन्ने में रस है, मिठास है। वहीं बाँस रसविहीन है।
लेकिन भगवान कृष्ण के भाग्य में यही बाँस आया। फिर भी वे हिम्मत नहीं हारे। उन्होंने इस खोखले बाँस में ही रस पैदा कर दिया। बाँस की बाँसुरी बना डाली। और मानो यही कहा कि, ‘गन्ने का रस तो केवल खानेवाले की जिह्ना को स्वाद देता है, लेकिन अब इस बाँस के मधुर रस का स्वाद तो हजारों कान लेंगे। इससे भी बड़ी बात कि गन्ने को तो होंठ एक बार ही छूते हैं और रस समाप्त होने पर थूक देते हैं। लेकिन बाँस निर्मित बाँसुरी तो जितनी बार होठों से लगाई जाएगी, उसके स्वरों की मिठास उतनी ही बढ़ती जाएगी।’
बाँस का एक और अवगुण है- खोखलापन। खोखला अर्थात् खाली होना। संसार में लोग खाली चीज को अच्छा नहीं मानते। जैसे अगर रास्ते मे कोई खाली घड़ा लेकर आता दिख जाए, तो अपशकुन माना जाता है। लेकिन हमारे कृष्ण तो उलट ही हैं। उन्हें भरे हुए मटके पसंद नहीं। वे अक्सर अपनी गुलेल से भरे घडे फोड़ दिया करते थे। कारण? ये भरे घडे़ अहं का प्रतीक थे। और कृष्ण को अहं पसंद नहीं। वे अपने भक्त में खालीपन ही चाहते हैं। उसमें ‘कुछ होने’ का अहंकार नहीं।
इसके बाद जब वसुदेव शिशु कृष्ण को लेकर यमुना पार करने लगे, तो भयंकर तूफान और बारिश होने लगी। प्रभु ने एक विशालकाय सर्प द्वारा अपने पर छाया करवाई। सर्प काल का प्रतीक माना जाता है। उसका कार्य ही मृत्यु देना है। लेकिन भगवान कृष्ण ने काल को अपना रक्षक बनाया। इस लीला द्वारा उन्होंने समाज के समक्ष एक बहुत विस्फोटक विचार रखा कि, यदि काल से भागना चाहोगे, तो भी नहीं भाग पाओगे। इसलिए उसे अपना मित्र बना लो। जब दुश्मन को ही दोस्त बना लिया, तो उससे भय कैसा? बल्कि अब दुश्मन ही तुम्हारी रक्षा करेगा। जिसका काल ही रक्षक हो जाये, उसे भला कैसे कोई हरा सकता है? उसकी जीत तो निश्चित ही है।
तत्पश्चात् भगवान कृष्ण नंद बाबा के घर पहुँचे। अब यहाँ, पूरा-का-पूरा गाँव उनके दर्शन करने के लिए उमड़ पड़ा। सब उनके रूप-रंग पर मंत्रमुग्ध हो गए। कृष्ण शब्द का अर्थ ही होता है- आकर्षित करने वाला। लेकिन अगर गौर करें, तो भगवान कृष्ण का रंग कैसा था? काला! उनकी त्वचा श्याम रंग की थी और यह तो जगजाहिर है, कि काला रंग अच्छा नहीं माना जाता। यह सब रंगों में सबसे अशुभ और उपेक्षित रंग है। लेकिन श्री कृष्ण ने यही रंग अपने लिए चुना। न केवल चुना, बल्कि अपने महान् दृष्टिकोण से इस रंग में भी गुण ढूँढ़ निकाले।
उन्होंने मानो समाज को यह समझाना चाहा कि काला रंग निन्दनीय नहीं, पूजनीय है। इसमें बहुत सी विशेषताएँ हैं। जैसे कि यह एक पूर्ण रंग है। यही एकमात्र ऐसा रंग है, जिस पर कभी कोई और रंग नहीं चढ़ता। अन्य सभी रंग तो किसी भी रंग में रंगे जा सकते हैं। पर श्याम, श्याम ही रहेगा। बल्कि अपने संसर्ग में आने वाले हर रंग को भी अपने जैसा ही कर लेगा। इसलिए मीराबाई जी ने भी कहा-
लाल न रंगाउँ मैं हरी न रंगाउँ।
श्याम रंग में मोहे रंग दे सांवरिया।।
ऐसी और भी अनेक लीलाएँ हैं, जैसे छठी के दिन ही राक्षसी पूतना का वध, मात्र सात साल की आयु में गोवर्धन पर्वत उठाना, महाभारत युद्ध आदि- जो भगवान कृष्ण के बुलंद हौंसलों और स्वस्थ सोच को प्रदर्शित करती हैं। पर सभी का यहाँ विवरण देना न तो संभव है, और न ही शायद आवश्यक। जिस प्रकार किसी पेड़ के मात्र एक फल को चखने पर हमें पूरे पेड़ की जानकारी हो जाती है। उसी प्रकार भगवान कृष्ण के जीवन से प्रेरणा लेने के लिए मात्र कुछेक घटनाओं का अध्ययन ही पर्याप्त है। सभी लीलाओं के द्वारा भगवान कृष्ण ने यही आदर्श रखा कि हर परिस्थिति में हम हौंसला रखते हुए, सकारात्मक सोच रखते हुए जीत हासिल करें।
लेकिन यह हौंसला और सकारात्मक सोच इंसान के भीतर तभी जन्म लेती है, जब उसका अंतस् प्रकाशित होता है। जब उसकी जाग्रत आत्मा से उसे आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त होती है। यह सम्भव है मात्र ब्रह्मज्ञान से! एक पूर्ण सतगुरु हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर परमात्मा के दिव्य प्रकाश रूप से जोड़ देते हैं। फलतः हमारा अंतस् आलोकित होता है और हम भगवान कृष्ण की तरह जीवन जीने की कला सीख पाते हैं।