उस छोटे-से शहर में लाल बहादुर की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही लेकिन गरीबी की मार पड़ने के बावजूद उनका बचपन पर्याप्त रूप से खुशहाल बीता। उन्हें वाराणसी में चाचा के साथ रहने के लिए भेज दिया गया था ताकि वे उच्च विद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर सकें। घर पर सब उन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे। वे कई मील की दूरी नंगे पांव से ही तय कर विद्यालय जाते थे, यहाँ तक की भीषण गर्मी में जब सड़कें अत्यधिक गर्म हुआ करती थीं तब भी उन्हें ऐसे ही जाना पड़ता था।
लड़के ने किसी की न सुनी
यह छोटे कद का लड़का अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गया। शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो लड़के ने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला। जेब में एक पाई भी नहीं थी। लड़का वहीं ठहर गया। उसने अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेगा।
वह नहीं चाहता था कि उसे अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े। उसका स्वाभिमान उसे इसकी अनुमति नहीं दे रहा था। उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए। जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लड़के ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गया। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी लड़के को रोकने की कोशिश की।
उस लड़के ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह नकारते हुए वह नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह लड़का रुका नहीं, तैरता गया। कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गया। वह स्वाभिमानी बालक आगे चलकर ‘लालबहादुर शास्त्री’ के नाम से विख्यात हुआ।
बड़े होने के साथ-ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए।
गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे। लाल बहादुर ने अपना मन बना लिया था। उनके सभी करीबी लोगों को यह पता था कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह दृढ़ हैं।
काशी में ही शास्त्री जी को शास्त्री की मानद उपाधि मिली थीं। यही से लाल बहादुर शास्त्री ने अपने नाम के पीछे शास्त्री सर नेम लगा दिया था। शास्त्री जी की शादी 1928 में मिर्जापुर के निवासी गणेश प्रसाद की पुत्री ललिता शास्त्री के साथ हुई थी। इस शादी के 6 संतानें हुई थी जिसमें 2 बेटियां और 4 बेटे हुए।
भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री सादगी व महानता की प्रतिमूर्ति थे। उनके जीवन के अनेक प्रसंग हम सबके लिए प्रेरणादायक हैं। उनकी महानता से संबंधित एक प्रसंग प्रस्तुत है …
बात तब की है, जब शास्त्रीजी इस देश के प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित कर रहे थे। एक दिन वे एक कपड़े की मिल देखने के लिए गए। उनके साथ मिल का मालिक, उच्च अधिकारी व अन्य विशिष्ट लोग भी थे।
मिल देखने के बाद शास्त्रीजी मिल के गोदाम में पहुंचे तो उन्होंने साड़ियां दिखलाने को कहा। मिल मालिक व अधिकारियों ने एक से एक खूबसूरत साड़ियां उनके सामने फैला दीं। शास्त्रीजी ने साड़ियां देखकर कहा- ‘साड़ियां तो बहुत अच्छी हैं, क्या मूल्य है इनका?’
‘जी, यह साड़ी 800 रुपए की है और यह वाली साड़ी 1 हजार रुपए की है।’ मिल मालिक ने बताया।
‘ये बहुत अधिक दाम की हैं। मुझे कम मूल्य की साड़ियां दिखलाइए,’ शास्त्रीजी ने कहा।
यहां स्मरणीय है कि यह घटना 1965 की है, तब 1 हजार रुपए की कीमत बहुत अधिक थी।
‘जी, यह देखिए। यह साड़ी 500 रुपए की है और यह 400 रुपए की’ मिल मालिक ने दूसरी साड़ियां दिखलाते हुए कहा।
‘अरे भाई, यह भी बहुत कीमती हैं। मुझ जैसे गरीब के लिए कम मूल्य की साड़ियां दिखलाइए, जिन्हें मैं खरीद सकूं।’ शास्त्रीजी बोले।
‘वाह सरकार, आप तो हमारे प्रधानमंत्री हैं, गरीब कैसे? हम तो आपको ये साड़ियां भेंट कर रहे हैं।’ मिल मालिक कहने लगा।
‘नहीं भाई, मैं भेंट में नहीं लूंगा’, शास्त्रीजी स्पष्ट बोले।
‘क्यों साहब? हमें यह अधिकार है कि हम अपने प्रधानमंत्री को भेंट दें’, मिल मालिक अधिकार जताता हुआ कहने लगा।
‘हां, मैं प्रधानमंत्री हूं’, शास्त्रीजी ने बड़ी शांति से जवाब दिया- ‘पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि जो चीजें मैं खरीद नहीं सकता, वह भेंट में लेकर अपनी पत्नी को पहनाऊं। भाई, मैं प्रधानमंत्री हूं पर हूं तो गरीब ही। आप मुझे सस्ते दाम की साड़ियां ही दिखलाएं। मैं तो अपनी हैसियत की साड़ियां ही खरीदना चाहता हूं।’
मिल मालिक की सारी अनुनय-विनय बेकार गई। देश के प्रधानमंत्री ने कम मूल्य की साड़ियां ही दाम देकर अपने परिवार के लिए खरीदीं। ऐसे महान् थे शास्त्रीजी, लालच जिन्हें छू तक नहीं सका था।
शास्त्री जी राजनैतिक जीवन :
शास्त्री जी ने संस्कृत भाषा ने स्नातक किया था और अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद शास्त्री जी देश की सच्ची सेवा करने का वचन लिया था। अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत में शास्त्री जी एक सच्चे गाँधीवादी थे जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी के साथ बिताया था।
शास्त्री जी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों और आंदोलनों में भागीदारी करते थे। शास्त्री जी ने सन् 1921 में गाँधी के साथ मिलकर असहयोग आन्दोलन, 1930 में दांडी मार्च और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। दूसरे विश्व युद्ध के समय इंग्लैंड को बुरी तरह उलझता देख कर उस समय नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज को एक नारा दिया था ”दिल्ली चलो’’। तब शास्त्री जी ने गाँधी जी के साथ 1942 की रात में ही मुंबई से अंग्रेजों भारत छोड़ो और करो और मरो का आदेश जारी किया था।
1942 के समय में शास्त्री जी ने इलाहाबाद पहुंचकर इस आन्दोलन के गांधीवादी नारे को चतुराई से मरो नहीं मारों में बदल दिया था। देखते ही देखते इस आन्दोलन ने भयंकर रूप धारण कर लिया था। 19 अगस्त 1942 को शास्त्री जी को गिरफ्तार कर लिया गया। 1929 के समय इलाहाबाद आने के बाद शास्त्री जी ने टंडन जी के साथ मिलकर स्वयं सेवक के रूप में काम करना शुरू कर दिया था। उस समय शास्त्री इलाहाबाद में रहते थे यहीं से शास्त्री और पंडित नेहरु के गहरी दोस्ती बढ़ी थी। नेहरू के समय शास्त्री जी मंत्रीमंडल में गृह मंत्री के पद पर कार्यरत थे और नेहरू जी के निधन के बाद शास्त्री जी भारत के दूसरे प्रधानमंत्री बने थे।
अनुशासित कार्यकर्ता से प्रधानमंत्री बनने का सफर
भारत की आजादी के कुछ समय बाद शास्त्री जी को यूपी के संसदीय सचिव पद पर नियुक्त किया गया था। उस समय के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त के मंत्रीमंडल में शास्त्री जी को पुलिस और परिवहन विभाग की जिम्मेदारी सौपीं गयी थी। शास्त्री जी ने अपने विभाग के समय पुलिस डिपार्टमेंट के लोगों से कहा था की लाठी का प्रयोग मत कीजिये और जनता की भीड़ को कण्ट्रोल करने के लिये पानी की बौछारों का प्रयोग शुरू करवाया।
सन 1951 के समय शास्त्री जी पंडित नेहरू के नेतृत्व में अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के महासचिव बनाये गए थे। महासचिव के पद पर रहते हुए शास्त्री जी ने 1952, 57 और 1962 के चुनावों में पार्टी को भारी मतों से विजयी बनाया। इसी बीच पंडित नेहरू का 27 मई 1964 के असमय देहान्त हो गया, तब शास्त्री जी को भारत का दूसरा प्रधानमंत्री बनाया गया। शास्त्री जी सीधे-सादे व्यक्ति थे और उनकी छवि साफ थीं और इसी कारण से उनको 1964 में नेहरू जी के निधन के बाद भारत का दूसरा प्रधानमंत्री बनाया गया। अगर देखा जाय तो उनका प्रधानमंत्री का कार्यकाल काफी मुश्किल भरा रहा था। उस समय पूंजीपति लोग देश में शासन करना चाहते थे और दुश्मन देश पर हमले की तैयारी में थे। सन 1965 के समय में पाकिस्तान ने भारत पर शाम के समय हमले करना शुरू कर दिया था। तब राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुलाई थीं। इस बैठक में भारत के तीनो अंगों के अफसर मौजूद थे।
तब शास्त्री जी ने देश के तीनो अंगों को साफ-साफ कहा था की अब समय आ गया है आप अपने देश की रक्षा कीजिये। युद्ध में पाकिस्तान की हार हुई थी तब भारतीय सेना पाकिस्तान के लाहौर हवाई अड्डे तक पहुँच गयी थीं, लेकिन रूस और अमेरिका ने शास्त्री जी को युद्ध विराम करने उन्हें (ताशकंद) रूस बुलाया था। यहाँ भारत के उस समय के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान दोनों नेता रूस गये थे और युद्ध विराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही समय बाद शास्त्री जी ताशकंद में मृत पाये गये थे।
नेहरू के मुकाबले शास्त्री जी ने देश को एक अलग पहचान दिलाई लेकिन शास्त्री ने मात्र 18 महीनों का थोड़ा सा कार्यकाल किया था, जिसके बाद उनकी रहस्यमय तरीके से मौत हो गयी थी। शास्त्री जी ने एक नारा दिया था ‘‘जय जवान – जय किसान’’ इस नारे से देश की जनता का मनोबल बढ़ा और सभी एकजुटता में दिखे थे। शास्त्री जी का आज भी पूरा देश उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये उन्हें हर साल जन्म दिवस पर याद करता हैं। शास्त्री जी को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।
डॉ. अनिल दशोरा, व.व्या. DIET