भारतीय संस्कृति नव जागरण के पुरोधा, सुप्त पड़ी राष्ट्रीय चेतना को झकझोर कर जाग्रत कर देने वाले, सभी देवी देवताओं को भूलकर भारत माता की आराधना का संदेश देने वाले समाज को विघटित, करते सभी वर्गों को एक सामाजिक समरसता के सूत्र में पिरोने का प्रयत्न करने वाले ज्योति पुरुष स्वामी विवेकानन्द ने अस्पृश्यता का उल्लेख अपने सम्भाषणो में ही नहीं किया वरन् इसके उन्मूलन का सही दिशा बोध भी कराया।
वामीजी ने कहा था – हे भारत! मत भूलना कि तुम्हारा जीवन अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं है, मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, चमार, मेहतर, तुम्हारे भाई है।
हे वीर! साहस का अवलम्बन करो, गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूँ भारतवासी मेरे भाई, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी मेरे भाई हैं, भारतवासी मेरे प्राण है, भारत का समाज मेरे बचपन का बिछौना है, मेरे यौवन का उपवन है, बोलो भाई भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत का कल्याण मेरा कल्याण है।
स्वामीजी के विचारों से लगता है कि वे जातिभेद तथा अस्पृश्यता की समाप्ति के संस्कार को लेकर ही पैदा हुए थे। ‘‘जब नरेन्द्र छह-सात वर्ष के ही थे, उनके पिता की बैठक में कई प्रकार के हुक्के रखे थे। एक दिन यह बालक प्रत्येक हुक्के की नली को मुंह में लगाकर गुड़-गुड़ करने का आनन्द उठा रहा था। अकस्मात् नरेन्द्र के पिताजी आ गए और उन्होंने पूछा, क्या कर रहे हो? बालक नरेन्द्र ने उत्तर दिया, मैं देख रहा हूं कि हुक्का पीने से जाति कैसे समाप्त होती है? पुत्र के अनूठे और बाल सुलभ उत्तर को सुनकर पिताजी आश्चर्यचकित रह गये। वे बाल्यकाल से ही नटखट, जिज्ञासु और विद्रोही बालक थे। उनको छुआ-छूत में अन्याय और भेद-भाव की बू आती थी।’’
उन्होंने अपने अनेक भाषणों में बल देकर कहा कि सभी मनुष्यों के साथ अपने भाइयों के समान व्यवहार करना चाहिये। उन्होंने अपने देश भ्रमण-काल में एक चर्मकार बन्धु के हाथ की बनी रोटी खायी और कहा- ऐसी रोटी के सामने राजसी खाना भी तुच्छ है। वे कहते थे कि समाज को संगठित होना है तो इस अस्पृश्यता के विचार का समूल नाश करना होगा। उन्होंने समाज-व्यवस्था को भी नवीन दृष्टि से देखा। स्वामीजी का विचार था कि ज्ञान का अधिकार समाज के अन्तिम वर्ग तक के व्यक्ति को मिले।शिक्षा प्रणाली पर उनका मानना था कि हमें ऐसी शिक्षा की जरूरत है जिसका अनुसरण करने से व्यक्ति अपने परिवार, समाज और देश का गौरव बढ़ा सकें हमे ऐसी शिक्षा की जरूरत है जिससे चरित्र निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित होने के साथ हमारे देश के युवाओं को ऐसी प्रचंड इच्छा शक्ति की आवश्यकता है, जिसका अवरोध दुनिया की कोई ताकत न कर सके। स्वामी जी का चिंतन समाज के साथ राष्ट्र चिंतन का था। स्वामीजी ने भारत निर्माण में एक तरफ नव युवकों को दिशा बोध दिया तो दूसरी तरफ अपने देश की धरती पर व्याप्त कुरीतियों की जमकर आलोचना के साथ उसे दूर करने का मार्ग प्रशस्त किया और साथ ही विदेशी धरती पर भारत के गौरव को स्थापित किया। वे कहते थे कि मैं विध्वंस के लिए नहीं आया हूं। मेरा कार्य निर्माण और सुधार का है। उन्होंने समाज को एक रस बनाने के लिए भावनात्मक तथा सकारात्मक सुझाव दिये हैं। वे कहते थे कि सर्वप्रथम तुम हृदय से अनुभव करो कि सभी हिन्दू सहोदर भाई हैं।
वे आज भटके और बिछुडे़ हुये हैं। उनके जीवन को सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कराकर सुसम्पन्न बनाओ। ऊँच – नीच का भाव मिटाकर, अस्पृश्यता को लेशमात्र भी न रहने दो। स्वामीजी की यह समरसतापूर्ण समाज की अवधारणा आज भी युगानुकूल है। स्वामीजी ने एक स्थान पर अपने विचार व्यक्त किये कि उच्च-वर्ग को चिकित्सक की भावना से वंचित समाज की सेवा करनी होगी। स्वामीजी के शब्दों में भाग्यवानों! मेरा भी यही विश्वास है कि यदि कोई भारत की पददलित, भूखी जनता को हृदय से स्नेह करेगा तो देश पुनः उठ खड़ा होगा। वर्तमान सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार सुसंगत हैं। परम्पराग्रस्त अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों को सुधारने का सिर्फ कानून बनाने से ही लाभ नहीं होगा। समाज के सभी वर्ग उन्हें सम्मानित घटक के रूप में स्वीकार करें और सम्मान दें तभी हम इस घातक कुरीति से छुटकारा पा सकेंगे। आरएसएस के द्वितीय सर संघचालक पूज्य श्री गुरुजी ने भी समाज की इस दशा को देखकर भारी मन से कहा था, कि आज समाज का चित्र ऐसा है कि हृदय पीड़ा से भर जाता है। बहुत बड़ा दुःख चारों ओर छाया हुआ है। अभावग्रस्त, वंचित व पीड़ित दूर दूर तक दिखायी देते हैं। इन सबका भार कोई कहे कि मैं अकेला वहन करूँगा, तो सम्भव नहीं है। हाँ, हम सब मिलकर कहेंगे कि हम इस दुःख-दैन्य को हटाने के लिए अपने बन्धुओं की सहायता के लिए प्रयत्न करेंगे, तो यह सम्भव है। सामाजिक समरसता मात्र सिद्धांत नहीं है, बल्कि एक व्यवहार का सूत्र है। सभी वर्गों की समाज-कार्य में सहभागिता हो।उनका मानना था कि समाज में उच्च वर्ग उच्चता का अहंकार और वंचित वर्ग हीनता के भाव को छोड़े तभी समाज में स्वाभाविक समरसता का भाव जागृत होगा। उनके विचारों व व्यवहार में वंचित, बिछुडे़ भाई-बहनों को गले लगाकर पूर्णता का भाव देना होगा । निश्चित ही ऐसा करने के लिए समय, श्रम की आवश्यकता है। हम अपने स्नेह, संवेदना, व्यक्तिगत सम्पर्क से इस समस्या पर विजय प्राप्त करने में सफल होंगे। निचले धरातल पर सहज रूप से परिवर्तन प्रारम्भ हुआ तो समाज में परिवर्तन की लहर आयेगी ही।
मीना चौबे