भारत में भूदान तथा सर्वोदय आन्दोलनों के लिए सुपरिचित सन्त विनोबा भावे भगवद गीता से प्रेरित जनसरोकार वाले नेता थे। वे महात्मा गाँधी से बहुत प्रभावित थे तथा गाँधीजी के साथ उन्होंने देश के स्वाधीनता संग्राम में बढ़ चढ़कर भाग लिया था। उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज से जुड़ी थी। इसी कारण सन्त स्वभाव के बावजूद उनमें राजनैतिक सक्रियता भी थी। उन्हांने सामाजिक अन्याय तथा धार्मिक विषमता का मुकाबला करने के लिए देश की जनता को स्वयंसेवी होने का आह्वान किया। विनोबा भावे के इन्हीं सामाजिक सरोकारों के दायित्वपूर्ण कामों के लिए 1958 में उन्हें सामुदायिक नेतृत्व का पहला मैग्सेसे पुरस्कार तथा मृत्योर्परांत 1983 में भारत रत्न प्रदान किया गया।
महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी एवं महान स्वतंत्रता सेनानी विनोबा भावे ने देश में अपने भूदान आंदोलन की शुरुआत ऐसे समय की जब देश में जमीन को लेकर रक्तपात होने की आशंका उत्पन्न हो गई थी। विनोबा भावे के इस आंदोलन को अपार जनसमर्थन मिला तथा जनजागरूकता के साथ ही समाजिक निर्णय में लोगों की भागीदारी बढ़ी। विनोबा भावे का मानना था कि भारतीय समाज के पूर्ण परिवर्तन के लिए ‘अहिंसक क्रांति’ छेड़ने की आवश्यकता है।
विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक गांव है, गागोदा। यहां के चितपावन ब्राह्मण थे, नरहरि भावे। गणित के प्रेमी और वैज्ञानिक सूझबूझ वाले। रसायन विज्ञान में उनकी रुचि थी। उन दिनों रंगों को बाहर से आयात करना पड़ता था। नरहरि भावे रात-दिन रंगों की खोज में लगे रहते। बस एक धुन थी उनकी कि भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सके। उनकी पत्नी रुक्मिणी बाई विदुषी महिला थीं। उदार-चित्त, आठों याम भक्ति-भाव में डूबी रहतीं, पूरा घर भक्ति रस से सराबोर रहता था। इसी सात्विक वातावरण में 11 सितंबर 1895 को विनोबा का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम था विनायक। माँ ने इनका नाम ‘‘विन्या’’ रखा था। उसे क्या पता था कि आगे चलकर इसका पुत्र विनय की साक्षात् मूर्ति बन जाएगा। विनोबा के अलावा रुक्मिणी बाई के दो और बेटे थेरू वाल्कोबा और शिवाजी। विनायक से छोटे वाल्कोबा। शिवाजी सबसे छोटे। विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का जो चलन है, उसके अनुसार- तुकोबा, विठोबा और विनोबा। विनोबा के आध्यात्मिक विकास पर उनकी माँ रुक्मिणी देवी का गहरा प्रभाव था। विनोबा भावे ने इसी प्रभाव में महाराष्ट्र के सभी सन्त तथा दार्शनिकों को पढ़ा था। विनोबा भावे की गणित में विशेष रुचि थी।
आचार्य विनोबा भावे का स्वातंत्र्योतर समय में महत्वपूर्ण कार्य अर्थात भूदान आंदोलन। इस आंदोलन में जमीनदारों ने उनके जमीन का छटवां हिस्सा उन्हें दान में देना, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है, ऐसी विनोबा ने मांग की। 1951 में नक्सलवादी समूह ने आंध्रप्रदेश के तेलंगाना हिस्से में जमीनदारों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू करने के बाद विनोबा ने अपना ‘भूदान आंदोलन’ व्यापक किया। पंथप्रधान पं. जवाहरलाल नेहरू को मिलने के लिये वो दिल्ली को चलकर गये। उसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, ओरिसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र ऐसे अनेक राज्यों से 1951 से 1964 तक 14 साल विनोबा ग्रामदान के आंदोलन के लिये देशभर पैदल घूमे। उम्र के 55 से 68 साल में 40 हजार मील चलकर उन्होंने देश का बड़ा सवाल जनता के पास जाकर सुलझाने का प्रयास किया। ग्रामदान, संपत्तिदान ये आंदोलन चलाये और दूसरी तरफ कंचनमुक्ति, ऋषिशेती जैसे खेत के विषय में प्रयोग भी किये।
विनोबाजी का दिया हुआ ‘सब भूमि गोपाल की’ का नारा उस समय में भारत में बहुत गूंजा। वे खुद को विश्व नागरिक समझते थे इसी लिए अपने किसी भी लेख अथवा संदेश के अन्त में वो ‘जय जगत’ ऐसा लिखते थे। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि सभी धर्म को लोगों में संघर्ष के अलावा प्रेम, बंधुभाव और शांतता की शिक्षा उन्होंने दी। इसी दृष्टिकोण के वजह से उन्होंने हिंदू के धर्म ग्रथों के जैसे ही मुस्लिम, और ईसाई धर्म ग्रंथों का भी उन्होंनें अध्ययन किया। लोगों-लोगों में का फर्क भुलकर शांति और प्रेम का मार्ग दिखाने वाले विश्वधर्म की स्थापना होनी चाहिये इसलिये विनोबाजी ने सर्वोदय की योजना बनायीं।
वो हाजिर जवाब भी थे और एक बार उनके नाखून नहीं कटे होने की वजह से साथ वाले मित्रों ने चुटकी ली कि क्या बात है विनोबा तुम्हारे नाखून क्यों नहीं कटे हैं। इस पर विनोबा ने सहज भाव से उत्तर दिया- ”तुम्हे क्यों चिंता हो रही है तुम नाई हो क्या?’’ सुनकर सब लड़के हँस पड़े और वो बालक जिसने सवाल किया था, बहुत लज्ज्ति हुआ। वो जितने पढाई में तेज थे उतने ही अन्य कार्यो में भी थे गणित में तो खासतौर पर वो अपनी कक्षा में सबसे आगे रहते। उसी तरह वो देशभक्ति में भी खूब आगे थे एक दिन उनके गाँव में उनके किसी मित्र के यहां खेत में एक अंग्रेज अफसर आया जिसने विनोबा के मित्र के यहां खेत में अपना तम्बू गाडा और अपने काम पर चला गया। विनोबा को जब मालूम हुआ तो अपने अन्य मित्रों को लेकर वो अपने मित्र के यहां पहुंचे और अपने मित्र से कहा जिन लोगों ने हम गुलाम बना रखा है, तुमने उसी को अपने यहां ठहरा रखा है। इस पर उनके मित्र ने कहा मुझे तो कुछ मालूम नहीं। इस पर वो अपने मित्रों के साथ उस खेत में पहुंचे और उस अंग्रेज का तम्बू बातों ही बातों में उखाड़ कर फेंक दिया और वो अंग्रेज अधिकारी उन साहसी बालकों का विरोध भी नहीं कर पाया।
वर्ष 1916 में विनोबा भावे अपनी इन्टरमीडियेट की परीक्षा देने मुम्बई जा रहे थे। रास्ते में ही उनका मन बदला और वह बनारस की ओर चल पड़े। उनके मन में अनश्वर ज्ञान तथा अनादि ब्रह्म को जानने की अदम्य इच्छा जागी। बनारस में उन्होंने संस्कृत के पौराणिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। दरअसल, इस घटना ने उनके जीवन की धारा बदल दी।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में विनोबा भावे ने गाँधीजी का प्रवचन सुना। वह उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने गाँधी जी को पत्र लिखा। कुछ पत्राचार के बाद गाँधी जी ने विनोबा भावे को अहमदाबाद के कोचराब आश्रम में मिलने के लिए बुलाया। 7 जून 1916 को विनोबा भावे गाँधी जी से मिले। इस भेंट ने विनोबा भावे को इतना प्रभावित किया कि उनका गाँधी जी से अटूट बंधन जुड़ गया। वह गाँधी जी के आश्रम में उनके सभी काम जैसे पठन-पाठन, चरखा कताई तथा जन सेवा आदि करने लगे।
इंटरमीडियट करने के पश्चात् वे अहमदाबाद स्थित गांधीजी के आश्रम में पहुंचे। वहां से कुछ समय पश्चात् सूरत, उत्तरप्रदेश पहुंचकर भिक्षुक की तरह जीवन बिताया। 1920 में वर्धा आश्रम के संचालन का कार्य उन्होंने अपने कन्धों पर ले लिया। गांधीजी की तरह सत्य, अहिंसा तथा सत्याग्रह के माध्यम से अंग्रेज विरोधी आन्दोलनों का नेतृत्व किया। इस समय उन्होंने जो साधना,तपस्या और अध्ययन किया, उससे वे संतों की श्रेणी में आ बैठे। इसके अतिरिक्त उन्होंने गांधीजी के अन्य कार्यों जैसी खादी ग्रामोद्योग, बेसिक शिक्षा, सफाई और अन्य रचनात्मक कार्यो में भी पूरी तरह भाग लिया। 1932 तक वहाँ रहने के बाद वर्धा से थोड़ी दूर हरिजनों के एक गाँव नलवाडी में जाकर रहने लगे। वहाँ उन्होंने यह नियम बनाया कि वह अपने कते सूत के पारिश्रमिक से ही जीवन निर्वाह करेंगे परन्तु उससे गुजारा नही चलता था।
पूर्ण पौष्टिक आहार नही मिलने के कारण वे अस्वस्थ हो गये। गांधीजी ने उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए किसी पहाड़ी स्थान पर जाने का परामर्श दिया। वे वर्धा से थोड़ी दूर पवनार नदी के किनारे इसी नाम के गाँव के एक टीले पर जाकर रहने लगे। वहा उन्हें कुछ स्वास्थ्य लाभ हुआ। उसके बाद से पवनार आश्रम ही उनका प्रमुख केंद्र बन गया। विनोबा जी ने गांधीजी द्वारा चलाए अनेक सत्याग्रह आंदोलनों में भाग लिया। नागपुर झंडा सत्याग्रह में 1923 में उन्हें 12 महीने का कारावास दंड दिया गया।
आध्यात्मिक ज्ञान का उनके भीतर कितना आवेग था, यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 1932 में उन्हें ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के अपराध में जेल में डाल दिया गया। जेल में विनोबा भावे ने अपनी मातृभाषा मराठी में साथ के दूसरे कैदियों को एकत्र करके गीता पर शृंखलाबद्ध प्रवचन किए। बाद में यही प्रवचन उनकी पुस्तक ‘गीता प्रवचन’ में संकलित होकर प्रकाशित हुए तथा सभी भारतीय भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ। भारत के बाहर भी यह प्रवचन पहुंचे और विविध भाषाओं में अनूदित हुए।
संसार में ऐसे अनेक उदाहरण है जहा समाज सुधारकों, समाजसेवियों तथा परामर्थ के कार्यो में लगे हुये लोगों के सामने भाँती-भाँती की कठिनाईयाँ आयी है। विनोबा जी के सामने भी इस प्रकार के अवसर आये। विनोबा जी का ध्येय हरिजनों को केवल भूमि देना ही नहीं था वरन उनका मानसिक और सामाजिक स्तर सुधारना भी था। वे जहाँ भी जाते हरिजनों को मन्दिरों में प्रवेश दिलवाने के लिए प्रयत्न करते। अनेक स्थानों पर उनका इस बात के लिए विरोध हुआ क्योंकि धर्मान्ध और रूढ़िवादी लोग नहीं चाहते थे कि हरिजन भी सवर्णों के समान मन्दिरों में प्रवेश करे।
एक बार मन्दिर के एक पंडे ने एक भाड़े के लठैत को लेकर उन पर आक्रमण करवा दिया जिसमे विनोबा जी घायल हो गये और आयु शेष भर के लिए उनकी श्रवण शक्ति जाती रही। विनोबा जी अपनी इस पद यात्रा में अनेक स्थानों पर अनेक आश्रमों की भी स्थापना की। उनका यह कार्य शंकराचार्य के कार्य के समान ही था। गांधीजी के उत्तराधिकारी के रूप में विनोबा जी उनके आध्यात्मिक पक्ष को केवल जीवित ही नहीं रखा, उसे आगे बढाने के साथ साथ उसे नया रूप भी दिया।
विनोबा भावे ने नागपुर में झण्डा सत्याग्रह कर सजा काटी। 1940 में प्रथम सत्याग्रही के रूप में विनोबा ने अपना भाषण पवनार में दिया। 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन के सिलसिले में जेल चले गये। 9 जुलाई 1945 को जेल से रिहा होकर पवनार आश्रम का भार पुनः अपने कन्धों पर ले लिया। 15 अगस्त को आजादी मिलते ही बंगाल में दीन-दुखियों के कष्ट निवारण के लिए निकल पड़े।
विनोबाजी ने शिक्षा को एक आन्तरिक प्रक्रिया माना है, बाह्य ज्ञान नहीं। वे शिक्षा का उद्देश्य बालक को उत्तम संस्कार देने के साथ-साथ शरीर, मन, आत्मा का विकास मानते थे। सामाजिक विकास सभी व्यक्तियों का विकास, आर्थिक स्वावलम्बन का विकास, जीवन जीने की कला का विकास, आध्यात्मिक विकास उनके शैक्षिक उद्देश्य थे। बालक के पाठ्यक्रम में सामाजिकता के विकास तथा वर्धा शिक्षा योजना के पाठ्यक्रम को महत्त्व दिया। क्रियात्मक विधि, श्रुत विधि, विश्राम सहित शिक्षण, भ्रमण विधि को श्रेष्ठ शिक्षण विधि माना। स्त्रियों की शिक्षा पर उन्होंने विशेष बल दिया।
विनोबा भावे का ‘भूदान आंदोलन’ का विचार 1951 में जन्मा, जब वह आन्ध्र प्रदेश के गाँवों में भ्रमण कर रहे थे। भूमिहीन अस्पृश्य लोगों या हरिजनों के एक समूह के लिए जमीन मुहैया कराने की अपील के जवाब में एक जमींदार ने उन्हें एक एकड़ जमीन देने का प्रस्ताव किया। इसके बाद वह गाँव-गाँव घूमकर भूमिहीन लोगों के लिए भूमि का दान करने की अपील करने लगे और उन्होंने इस दान को गांधीजी के अहिंसा के सिद्धान्त से संबंधित कार्य बताया। भावे के अनुसार, यह भूमि सुधार कार्यक्रम हृदय परिवर्तन के तहत होना चाहिए न कि इस जमीन के बँटवारे से बड़े स्तर पर होने वाली कृषि के तार्किक कार्यक्रमों में अवरोध आएगा, लेकिन भावे ने घोषणा की कि वह हृदय के बँटवारे की तुलना में जमीन के बँटवारे को ज्यादा पसंद करते हैं। हालांकि बाद में उन्होंने लोगों को ‘ग्रामदान’ के लिए प्रोत्साहित किया, जिसमें ग्रामीण लोग अपनी भूमि को एक साथ मिलाने के बाद उसे सहकारी प्रणाली के अंतर्गत पुनर्गठित करते।
इस कार्यक्रम में विनोबा, पदयात्री की तरह गाँव-गाँव घूमे और इन्होंने लोगों से भूमिखण्ड़ दान करने की याचना की, ताकि उसे कुछ भूमिहीनों को देकर उनका जीवन सुधारा जा सके। उनका यह आह्वान कितना प्रभावी रहा, वह विस्मित करता है। विनोबा भावे की जन नेतृत्व क्षमता का अंदाज इसी घटना से लगता है कि इन्होंने चम्बल के डाकुओं तक को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित किया और वह विनोबाजी से प्रभावित होकर आत्म-समर्पण के लिए तैयार हो गए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब गांधीजी की हत्या कर दी गयी तो देश के महान सुधारक नेता के रूप में उनका उदय हुआ। देश के अनेक बड़े बड़े नेता और प्रधानमंत्री समय समय पर आध्यात्मिक और सामाजिक तथा अनेक बार राजनीतिक समस्याओं के परामर्श के लिए उनके पास जाते रहे। परन्तु विनोबा जी यह अनुभव करते रहे कि अब उनका कोई विशेष उपयोग नही है, इसलिए उन्होंने खान-पान त्यागकर निर्वाण की तैयारी की। 14 नवम्बर 1982 को उनकी हालत बहुत खराब हो गयी। तब तक उन्होंने पानी भी लेना त्याग दिया था। 15 नवम्बर को उनके प्राण अनंत में विलीन हो गये।
प्रतिमा सामर, प्रधानाचार्य