शक, कुषाण और हूणों के पतन के बाद भारत का पश्चिमी छोर कमजोर पड़ गया था। तबके पश्चिमी भारत के कुछ हिस्से फारस साम्राज्य के अधीन थे तो बाकी भारतीय राजाओं के, जबकि बलूचिस्तान एक स्वतंत्र सत्ता थी। इतिहासकारों अनुसार इस्लाम के प्रवेश के पहले अफगानिस्तान (कम्बोज और गांधार) में बौद्ध एवं हिन्दू धर्म यहां के राजधर्म थे। मोहम्मद बिन कासिम ने बलूचिस्तान को अपने अधीन लेने के बाद सिन्ध पर आक्रमण कर दिया। ’चचनामा’ के ऐतिहासिक वर्णन के अनुसार सिन्ध के राजा दाहिरसेन का बेरहमी से कत्ल कर उसकी पुत्रियों को बंधक बनाकर ईरान के खलिफाओं के लिए भेज दिया गया था। कासिम ने सिन्ध के बाद पंजाब और मुल्तान को भी अपने अधीन कर लिया था।
भारत के पश्चिमी प्रांत सिंध पर राजपूत क्षत्रिय राजा साहसी राय का शासन था, जिसके पुरखे पिछले 600 वर्षों से सिंध पर राज कर रहे थे। साहसी राय के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने ब्राह्मण मंत्री चच को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। साहसी राय के बाद चच सिंध का राजा बन गया। राजा साहसी राय की रानी सोहन्दी ने दरबारियों की सलाह से उससे विवाह कर लिया। इस प्रकार राजा दाहिर सेन ब्राह्मण पिता चच और क्षत्रिय माता सोहन्दी के पुत्र थे।
दुर्भाग्य से चच अधिक दूरदर्शी नहीं था। अपने दम्भ में उसने सिंध के प्रमुख समुदायों लोहाणों, गुर्जरों और जाटों को अपमानित करके ऊँचे पदों से हटा दिया, जिससे ये समुदाय उनसे रुष्ट हो गये। चच अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा। उसके बाद उसके छोटे भाई चन्दर ने शासन सँभाला। उसने एक नयी गलती यह की कि बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया और बौद्ध को अपना राज धर्म घोषित कर दिया। परन्तु वह भी केवल सात वर्ष ही शासन कर सका।
उसके बाद सन् 679 ई. में दाहिर सेन राजा बने। वे बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने सभी समुदायों को साथ लेकर चलने का संकल्प लिया और फिर से सनातन हिन्दू धर्म अपना लिया और सनातन धर्म को राज्यधर्म घोषित किया । हालांकि उनके राज्य में बौद्धों को भी पूरी धार्मिक स्वतंत्रता थी। राजा दाहिर अपना शासन राजधानी आलोर से चलाते थे। उन्होंने देवल बंदरगाह पर प्रशासन की दृष्टि से अपना सूबेदार नियुक्त किया हुआ था। उनके शासन काल में सिंध बहुत समृद्ध था और समुद्र के रास्ते दूर-दूर के देशों से उनका व्यापार होता था।
सिंध का समुद्री मार्ग पूरे विश्व के साथ व्यापार करने के लिए खुला हुआ था। सिंध के व्यापारी उस काल में भी समुद्र मार्ग से व्यापार करने दूर देशों तक जाया करते थे और इराक-ईरान से आने वाले जहाज सिंध के देवल बन्दरगाह होते हुए अन्य देशों की तरफ जाते थे। ईरानी लोगों ने सिंध की खुशहाली का अनुमान व्यापारियों की स्थिति और आने वाले माल अस्बाब से लगा लिया था। हालांकि जब कभी वे व्यापारियों से उनके देश के बारे में जानकारी लेते तो उन्हें यहीं जवाब मिलता कि पानी बहुत खारा है, जमीन पथरीली है, फल अच्छे नहीं होते और आदमी विश्वास योग्य नहीं है। इस कारण उनकी इच्छा देश पर आक्रमण करने की नहीं होती, किन्तु मन ही मन वे सिंध से ईर्ष्या अवश्य करते थे। अरब निवासी सिन्ध प्रदेश के लोगों का सुख चैन न देख सके और उन्होने हिंदुस्तान पर जिहाद की घोषणा कर दी।
राजा दाहिर सेन एक प्रजावत्सल राजा थे। गोरक्षक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी इससे कुढ़कर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में नौ खलीफाओं ने सिंध पर 15 बार आक्रमण किया पर हिंदू बहादुरों से पराजित हुए। जब अरब के खलीफा ने देखा कि उसके सैनिक सिन्धी बहादुरों से जीतने में असमर्थ हैं तो अंत में उस अरब खरीफा ने अपने युवा भतीजे और नाती, इमाम अदादीन मुहम्मद बिन कासिम को 710 ई. में सिन्ध प्रदेश की ओर रवाना किया। यह सेना समुद्री मार्ग से मकरान के रास्ते से सिन्ध राज्य की ओर बढ़ती चली आ रही थी और मोहम्मद बिना कासिम सिन्ध के देवल बंदरगाह पर पहुंचा। वहां पहुंचने के उपरान्त मोहम्मद बिन कासिम ने सोचा कि जांबाज सम्राट दाहर सेन से सीधे तरीके से तो वह कदापि विजयी नहीं हो पाएगा, उसने एक चाल चली।
वह यह कि उस समय भारत देश के अन्य प्रांतों की तरह सिन्ध प्रदेश में भी बौद्ध धर्म का प्रचार हो रहा था। उसने बौद्ध धर्म को मानने वाले मोक्षवास नामक हैदरपोल के राज्यपाल को अपने चंगुल में फंसा लिया, इस कदर कि मोक्षवास और देवल राजा ज्ञानबुद्ध ने अरबी सेनापित मोहम्मद बिन कासिम को अपना क्षेत्र,खाना पानी सौंपने के अलावा सिन्ध पर जीत हासिल करने के लिए अपनी सेनाएं तक सौंप दीं और मोक्षवास देशद्रोही हो गया।
मोहम्मद बिना कासिम के वारे-न्यारे हो गए और उसने हैदराबाद सिन्ध के नीरनकोट पर हमला कर दिया। फिर कासिम रावनगर की ओर बढ़ा। तदुपरान्त चित्तौर में बहादुर दाहिर सेन का अरबी सेनाओं से युद्ध हुआ। यह भयंकर युद्ध नौ दिन तक चलता रहा। इसमें क्षत्रिय, जाट और ठाकुरों ने भी सहयोग दिया और इन नौ दिनों में बहादुर सम्राट दाहिर सेन की सेना अरबियों का सफाया करती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। अरबी सेना पराजय के कगार पर थी। रात हुई तो युद्ध रुका और सब अपने सूबे में सो रहे थे, तभी गद्दार राजा मोक्षवास अरबों की मदद के लिए अपनी फौज लेकर रणभूमि में पहुंच गया। यह युद्ध 21 दिनों तक चलता रहा परन्तु अंत में मुगलों की हार हुई।
सीधे रास्ते से अपनी दाल न गलती देखकर कासिम ने सोचा दाहिर महिलाओं की इज्जत करते हैं इसलिए उसने सैंकड़ों सैनिकों को हिन्दू महिलाओं जैसा वेश पहना दिया। लड़ाई छिड़ने पर वे महिला वेशधारी सैनिक रोते हुए राजा दाहर सेन के सामने आकर मुस्लिम सैनिकों से उन्हें बचाने की प्रार्थना करने लगे। राजा ने उन्हें अपनी सैनिक टोली के बीच सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और शेष महिलाओं की रक्षा के लिए तेजी से उस ओर बढ़ गये, जहां से रोने के स्वर आ रहे थे।
इस दौड़ भाग में वे अकेले पड़ गये। उनके हाथी पर अग्निबाण चलाये गये, जिससे विचलित होकर वह खाई में गिर गया। यह देखकर शत्रुओं ने राजा को चारों ओर से घेर लिया। राजा ने बहुत देर तक संघर्ष किया; पर अंततः शत्रु सैनिकों के भालों से उनका शरीर क्षत-विक्षत होकर मातृभूमि की गोद में सदा के लिये सो गया।
इधर महिला वेश में छिपे मुस्लिम सैनिकों ने भी असली रूप में आकर हिन्दू सेना पर बीच से हमला कर दिया। इस प्रकार हिन्दू वीर दोनों ओर से घिर गये और मोहम्मद बिन कासिम का पलड़ा भारी हो गया।
राजा दाहिर सेन के बलिदान के बाद कासिम की सेना उसके बाद सिंध पहुँची जहाँ राजा दाहिर सेन की पत्नी रानी लाड़ी, बहिन पद्मा और किले की महिलाओं ने उनका सामना तीरों और भालों से किया। ये देख कर कासिम की सेना फिर से पीछे हट गयी। पर रानियों को नहीं पता था की मोक्षवास एक गद्दार हो चुका था उसने महल में प्रवेश किया सहानुभूति लेकर और रात को धोखे से अलोर के किले का दरवाजा खोल दिया ये जानकार ब्रह्मिनी रानी और सभी महिलाए जोहर के अग्निकुंड में कूद गयी और पीछे रह गयी दाहिर सेन की 2 बेटिया सूर्य और परमाल। सूर्य और परमाल का खून बदला लेने को उबाल खा रहा था।
कासिम ने सोचा इन दोनों लड़कियों को खलिफा को उपहार में भेज देगा तो खुश होंगे। उसने राजा का कटा सिर, छत्र और उनकी दोनों पुत्रियों (सूर्य और परमाल) को बगदाद के खलीफा के पास उपहार स्वरूप भेज दिया। वहाँ पहुंचकर अरब के खलीफा ने दोनों राजकन्याओं को देखा तो फ़िदा हो गया। जब खलीफा ने उन वीरांगनाओं का आलिंगन करना चाहा, तभी सूर्य और परमाल ने अपनी नीति चलायी और उन्होंने रोते हुए कहा कि आपके सेनापति कैसे हैं, खलीफा। आपको ये खुबसूरत फूल तो भेजें हैं पर उससे पहले वो खुद इन फूलों की खुशबू ले चुका है। कासिम ने हमें अपवित्र कर आपके पास भेजा है।
ये सुनकर खलीफा तिलमिला गया और हुक्म दिया की मीर कासिम को बैल के ताजा चमड़े की बोरी में सीकर दमिश्क लाया जाए। चमड़े के बोरे में जब कासिम को सीकर लाया गया तो बदबू और दम घुटने से वो रास्ते में ही मर गया। जब लाश दमिश्क पहुंची तब दरबार में खलीफा के सामने रहस्य खोलते हुए सूर्य और परमाल ने जोर से हँसते हुए कहा कि हमने अपने देश के अपमान का बदला ले लिया है। यह कहकर उन्होंने एक दूसरे के सीने में विष से बुझी कटार घोंप दी और अपने देश पर हुए हमले का, अपने परिवार के विनाश का प्रतिशोध ले लिया।
ये देख कर खलीफा बोला निश्चित ही हमने सिंध जैसा देश नहीं देखा जहाँ की महिला भी इतनी वफादार है, सिंध को पाने में हमने बहुत कुछ खो दिया।
अरबों का राज्य केवल सिंध के कुछ भाग और पंजाब के दक्षिणी भाग तक ही सीमित रहा। वह सारा क्षेत्र आजकल पाकिस्तान में शामिल है। लेकिन अरबों का राज्य सिंध के पूर्व में बिल्कुल नहीं बढ़ सका, क्योंकि मेवाड़ के बप्पा रावल ने उनको ऐसी करारी हार दी कि अगले 500 वर्षों तक मुसलमान शासकों की हिम्मत भारत की ओर आँख उठाकर देखने की भी नहीं हुई।
संदीप आमेटा
कार्यक्रम अधिकारी