कैदियों को नारियल का रेशा कूटकर निकालने का काम दिया गया। इस काम को करते हुए कैदी आपस में बोलते भी रहते थे। एक बार कलकत्ता से कोई अधिकारी इस जेल में देखने आया, उसे कैदियों का आपस में बोलना भी सहन नहीं हुआ। आदेश दिए गए कि कैदियों से अधिक कठोरता से काम लिया जाए।
उसने खाया या नहीं, इसकी कोई परवाह नहीं थी। कोठरी में जाते ही बाहर से आवाज आने लगती-‘बैठो मत, शाम को तेल पूरा हो, नहीं तो पीटे जाओगे और जो सजा मिलेगी, सो अलग।’’
बहुधा कैदी कौल्हू में जुते-जुते ही खाना खाते जाते। कम तेल निकलने पर डंडों, लातों, घूसों से पशुओं की तरह पीटा जाता। बुखार 102 डिग्री से कम होने पर बारी कोई छूट नहीं देता। सिर दर्द, पेट दर्द आदि रोग जो दिखाई नहीं देते, उनकी शिकायत करने पर तो कैदी की दुर्गति ही कर दी जाती। कैदी द्वारा बुखार की शिकायत करने पर डॉक्टर थर्मामीटर लगाता, किन्तु इन रोगों में कोई पता न लगता। डॉक्टर हिन्दू था। बारी उसके साथ भी दुर्व्यवहार करता और कहता-‘देखो डॉक्टर! तुम हिन्दू हो, यह राजनीतिक कैदी भी हिन्दू है इनकी मीठी बातों से कहीं तुम खटाई में न पड़ जाओ, हमें ऐसा डर है। कोई जाकर शिकायत कर दे कि तुम इनसे बोलते रहते हो तो तुम्हें लेने के देने पड़ जाएंगे। इसलिए संभल जाओ। समझे, नौकरी करो। माना कि तुम डॉक्टरी पढे हो, परंतु हम भी गुणवान हैं। कौन बीमार है, कौन नहीं, मैं देखते ही ताड़ लेता हूं।’
वीर सावरकर के बड़े भाई श्री गणेश सावरकर भी इसी जेल मे थे। एक बार उनके माथे में भयंकर दर्द था। डॉक्टर ने उन्हें अस्पताल ले जाने की अनुमति दे दी। उन्हें अस्तपाल में ले जाने की समस्त कार्यवाही भी हो चुकी थी। उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा था। इतने में बारी वहां पहुंच गया और आते ही, बिगड़ उठा-‘‘मुझसे क्यों नहीं पूछा? वह डॉक्टर कौन होता है? साले ले जाओ इसे वापस। काम में लगाओ। मैं समझ लूंगा डॉक्टर को। बिना मुझसे पूछे इसे कोठरी से बाहर क्यों निकाला? ओ साले! जेलर मैं हूं कि वह डॉक्टर।’ परिणामस्वरूप रोगी को अस्पताल नहीं ले जाया जा सका। भोजन – वस्त्र, मार-पीट, गाली-गलौच यह सब तो था ही इसके अतिरिक्त कैदियों को उनकी प्राकृतिक आवश्यकताओं (मल-मूत्र-परित्याग) की भी स्वतंत्रता नहीं थी। प्रातः, सायं और दोपहर के अतिरिक्त कैदी अपनी इन अनिवार्य क्रियाओं को भी नहीं कर सकते थे। रात्रि में इन क्रियाओं की आवश्यकता होने पर सवेरा होने पर सफाई कर्मचारी का सामना करना पड़ता था और पेशी लग जाती थी। खड़ी हथकड़ी लग जाती थी और आठ घंटे खड़ा रहना पड़ता था। अन्य अपराधी कैदी तो यदा-कदा दीवार पर ही मूत्र त्याग कर देते थे, किन्तु राजनीतिक कैदी तो ऐसा भी नहीं कर पाते।
पुस्तकें पढ़ना और लेना-देना भी अपराध माना जाता था। पुस्तकें पढ़ने के विषय में बारी का दृष्टिकोण एकदम मूर्खतापूर्ण था। वह प्रायः कहता था-नान्सेन्स! शट्! यह कैण्ट-वैण्ट की किताबें मैं नहीं देना चाहता। इन्हीं किताबों को पढ़कर ये लोग हत्यारे हो जाता हैं और यह योग-वोग, फिलोसोफी की पुस्तकें बेकार हैं, किन्तु अधीक्षक इन बातों को सुनता ही नहीं, मैं करूं तो क्या करूं! मैंने आज तक कोई किताब नहीं पढ़ी, फिर भी एक जिम्मेदार व्यक्ति हूं। किताबें पढ़ना औरतों का काम है।’’
एक बार एक राजनीतिक बंदी भूगर्भ शास्त्र की कोई पुस्तक पढ़ रहा था। उसने अपनी कॉपी में कुछ उतारा था, बारी ने उसे देख लिया और चिल्लाया-‘‘पकड़ लिया। यह गुप्त लिपि क्या है?’’ उसने इस विषय में सावरकर से भी पूछा। उन्होंने बताया कि वह बंदी भूगर्भशास्त्र पढ़ रहा था, किंतु बारी के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। आयरिश होने के कारण वह अंग्रेजी नहीं समझता था। दूसरे दिन दंडस्वरूप दो सप्ताह के लिए उसकी पुस्तकें छीन ली गईं।
जेलर बारी के बर्बर और पशुतापूर्ण व्यवहार का शिकार नवयुवक कैदी परमानन्द भी हुआ। बारी ने जैसे ही उसे आदतन गाली दी, परमानन्द का खून खौल उठा। उसने वार्डरों को परे धकेल कसकर दो झापड बारी को रख दिए। बारी अपनी जान बचा भाग खडा हुआ पर यवन वार्डरों ने परमानन्द को लहूलुहान कर दिया। सावरकर के नेतृत्व में राजनीतिक बन्दियों ने इस अत्याचार के विरोध में हडताल कर दी। परिणामतः आने वाले कालखण्ड़ में भीषण यन्त्रणाओं में कमी आई।