वीर दुर्गादास राठौड़ भारत के इतिहास के धवल पृष्ठ हैं। मेवाड़ के इतिहास में स्वामीभक्ति के लिए जहाँ पन्ना धाय का नाम आदर के साथ लिया जाता है वहीं मारवाड़ के इतिहास में त्याग, बलिदान, स्वामीभक्ति व देशभक्ति के लिए वीर दुर्गादास का नाम स्वर्ण अक्षरों में अमर है।
ठाकुर आसकरण जी राठौड़ के पुत्र दुर्गादास का जन्म 13 अगस्त 1638 ई. को सलवा कलन नामक गांव में हुआ था। उनकी निर्भीकता से प्रभावित होकर एक बार महाराजा जसवंत सिंह ने कहा था ‘‘यह बालक भविष्य में मारवाड़ राज्य का संरक्षक बनेगा“। 17वीं शताब्दी में महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद राठौड़ वंश की संरक्षा का श्रेय वीर दुर्गादास को ही जाता है।
प्रारंभिक जीवन :
वीर दुर्गादास राठौड़, सूर्यवंशी राजपूत (राठौड़) वंश के करनोत शाखा से थे। वे आसकरण राठौड़ और नेतकँवर के पुत्र थे, जो मारवाड़ में राठौड़ वंश के शासक महाराजा जसवंत सिंह की सेना में सेनापति थे। आसकरण की अन्य पत्नियाँ नेतकँवर से जलती थीं। अतः मजबूर होकर आसकरण ने उसे सालवा के पास लूणवा गाँव में रखवा दिया। छत्रपति शिवाजी की तरह दुर्गादास का लालन-पालन उनकी माता ने ही किया। उन्होंने दुर्गादास में वीरता के साथ-साथ देश और धर्म पर मर-मिटने के संस्कार डाले थे।
जब दुर्गादास छोटे थे, एक दिन एक चरवाहा, जो महाराज के ऊँट चरा रहा था, ऊँट लेकर उनके खेतों में घुस गया। ऊँटों ने पूरा खेत बर्बाद कर दिया। दुर्गादास ने चरवाहे से अपने जानवर बाहर ले जाने और उनकी फसल बर्बाद न करने को कहा। चरवाहे ने उनकी बात को अनसुना कर दिया। इस पर दुर्गादास ने क्रोधित होकर अपनी तलवार से चरवाहे को वही मौत के घाट उतार दिया। यह बात जब महाराज को पता चली तो उन्होंने दुर्गादास को अपने दरबार में बुलाया और उनसे पूछा कि क्यों उसने चरवाहे को मार डाला। इस पर दुर्गादास ने कहा ‘‘महाराज ! राज चरवाहा आम लोगों की फसल बर्बाद कर के आपके नाम पर कलंक लगा रहा था।’’ अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए, आसकरण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे भी सकपका गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुआ कि यह तो आसकरण जी का पुत्र है। इस पर महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम तलवार भेंट की और उसी दिन से दुर्गादास राठौड़ महाराज जसवंत सिंह के विश्वासपात्र और स्वामी भक्त व्यक्ति बन गए।
भावी महाराज अजीत सिंह की सुरक्षा :
उस समय उत्तर भारत में औरंगजेब प्रभावी था। उसकी कुदृष्टि मारवाड़ के विशाल राज्य पर भी थी। उसने षड्यन्त्रपूर्वक जसवन्त सिंह को अफगानिस्तान में पठान विद्रोहियों से लड़ने भेज दिया। इस अभियान के दौरान 28 नवम्बर 1678 में जमरूद में उनकी मृत्यु हो गयी। जब महाराज जसवंत सिंह की मृत्यु हुई, तब उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। उनके निधन के समय उनके साथ रह रही दो रानियाँ गर्भवती थी। इसलिए वीर शिरोमणि दुर्गादास सहित जोधपुर राज्य के अन्य सरदारों ने इन रानियों को महाराजा के पार्थिव शरीर के साथ सती होने से रोक लिया और इन गर्भवती रानियों को गुप्त रूप से सैनिक चौकी से लाहौर ले आया गया। जहाँ इन दोनों रानियों ने 19 फरवरी 1679 को एक-एक पुत्र को जन्म दिया। बड़े राजकुमार नाम अजीत सिंह व छोटे का दलथंभन रखा गया। दुर्भाग्य से दलथंभन की रास्ते में ही मौत हो गयी।
इधर तत्कालीन मुग़ल शासक औरंगजेब ने इस परिस्थिति का लाभ लेकर जसवन्त सिंह के मरते ही जोधपुर रियासत पर कब्जा कर वहाँ शाही हाकिम बैठा दिया। इस घटना ने पूरे राठौड़ वंश को बहुत प्रभावित और क्रोधित कर दिया। कुछ समय बाद सरदारों की माँग पर औरंगजेब ने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के बहाने दिल्ली बुलाया। वस्तुतः वह उसे मुसलमान बनाना या मारना चाहता था। इस कठिन घड़ी में दुर्गादास अजीत सिंह के साथ दिल्ली पहुंचे। औरंगजेब से कहा गया कि वो अजीत सिंह को उसके पिता का राज्य और उपाधि दे दे। औरंगजेब ने पूरी तरह मना नहीं किया परन्तु उसने शर्त रखी कि अजीत सिंह का पालन उसके सामने ही अर्थात् दिल्ली में ही मुस्लिम महल में हो। वीर दुर्गादास औरंगजेब के इस षड्यंत्र से भली-भांति परिचित थे। राठौड वंश के महाराजा का पालन एक मुस्लिम के यहाँ हो ये बात राठौड़ वंश को स्वीकार नहीं था। औरंगजेब से कहा गया कि राजकुमार अजीत सिंह महारानी के साथ ‘भूली भटियारी’ नामक एक जगह (जो कि अभी आधुनिक दिल्ली में झंडेवाला के पास है) में रुक रहे हैं।
एक दिन अचानक मुगल सैनिकों ने अजीत सिंह के आवास को घेर लिया। अजीत सिंह की धाय गोरा टांक ने पन्ना धाय की तरह अपने पुत्र को वहां छोड़ दिया और उन्हें लेकर गुप्त मार्ग से बाहर निकल गयी। उधर दुर्गादास ने हमला कर घेरा तोड़ दिया और वे भी जोधपुर की ओर निकल गये। उन्होंने अजीत सिंह को सिरोही के पास कालिन्दी गाँव में पुरोहित जयदेव के घर रखवा कर मुकुनदास खींची को साधु वेश में उनकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। कई दिन बाद औरंगजेब को जब वास्तविकता पता लगी, तो उसने बालक की हत्या कर दी। इधर अजीत सिंह को मारवाड़ की सुदूर दक्षिणी सीमा से लगे, अरावली की पहाडियों में एक गाँव आबू सिरोही में भेज दिया गया, जहाँ वे बड़े हुए।
इस घटना के बीस साल बाद तक मारवाड़ मुग़ल शासन के अधीन रहा। इस बीच में दुर्गादास मारवाड़ के सामन्तों के साथ छापामार शैली में मुगल सेनाओं पर हमले करते थे। उन्होंने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह तथा मराठों को भी जोड़ना चाहा; पर इसमें उन्हें पूरी सफलता नहीं मिली। इसके बावजूद भी दुर्गादास ने मुग़ल सेना खिलाफ अथक संघर्ष जरी रखा। राज्य से गुजरने वाले व्यापारिक रास्तों पर दुर्गादास के लगातार गुरिल्ला हमलों से मुग़ल साम्राज्य को बहुत आर्थिक नुक्सान झेलना पड़ा। जिससे मुग़लों की आर्थिक व्यवस्था खराब हो गयी। ई. 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो गयी। दुर्गादास ने इस स्थिति का लाभ लेते हुए मुग़ल सेना को विस्थापित कर दिया और जोधपुर को अपने कब्जे में लेकर मारवाड़ राज्य को पुनः स्थापित किया। अजीत सिंह को जोधपुर का महाराजा घोषित किया गया। इसके बाद दुर्गादास ने पूरे राज्य में मुसलमानों द्वारा खंडित किये गए मंदिरों का पुनः निर्माण कराया। आज भी उनके सम्मान में ये गया जाता हैः
माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास
मार गण्डासे थामियो, बिन थाम्बा आकास।।
(माता यदि तुझे पुत्र जन्म देना है तो ऐसा दे जैसा दुर्गादास, जिसने अकेले, बिना किसी सहायता के मुगलों को इतने दिन बांध रखा)
‘‘उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुगलों की शक्ति उनके दृढ़ निश्चय को पीछे हटा सकी, बल्कि वो ऐसा वीर था जिसमें राजपूती साहस और कूटनीति मिश्रित थी।’’
– कर्नल टॉड
अंतिम समय :
महाराजा अजीत सिंह के कुछ लोगों ने दुर्गादास राठौड़ के खिलाफ कान भर दिए थे। जिससे महाराज अजीत सिंह दुर्गादास राठौड़ से घृणा करने लगे। अविश्वास इतना बढ़ गया कि महाराज अजीत सिंह ने दुर्गादास राठौड़ की मृत्यु का षड्यंत्र रच डाला। परंतु अजीत सिंह उसमें असफल हो हुए। सफलता पूर्वक अपना कर्तव्य निभाने और महाराज जसवंत सिंह को दिया वचन पूरा करने के बाद अजीतसिंह के षड़यंत्रों से आहत हो वीर दुर्गादास जोधपुर छोड़ कर कुछ समय सादड़ी, उदयपुर, विजयपुर, रामपुर में रहे और बाद में भगवान महाकाल की आराधना करने शिप्रा नदी के किनारे अवंतिका नगरी (उज्जैन) चले गये। 22 नवंबर 1718 को 82 वर्ष कि उम्र में शिप्रा नदी के किनारे ही उनका स्वर्गवास हुआ। लाल पत्थर से बना उनका अति सुंदर छत्र आज भी उज्जैन में चक्रतीर्थ नमक स्थान पर सुशोभित है। दुर्गादास हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए वीरता, देशप्रेम, बलिदान व स्वामीभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे।
राजेश सैनी