कबीर के माता – पिता और जन्म के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना संभव नहीं है। फिर भी माना जाता है कि काशी के इस अक्खड़, निडर एवं संत कवि का जन्म लहरतारा के पास सन् 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ था। कबीर का पालन दृ पोषण नीरू और नीमा नामक जुलाहे दम्पत्ति ने किया था।
इमका विवाह लोई नाम की कन्या से हुआ जिससे एक पुत्र कमाल तथा पुत्री कमाली का जन्म हुआ। कबीर ने अपने पैतृक व्यवसाय (कपड़ा बुनने का काम) में हाथ बँटाना शुरू किया। धार्मिक प्रवृतियो के कारण कबीर रामानंद के शिष्य बन गये। कबीर पढ़े दृ लिखे नहीं थे इसलिए उनका ज्ञान पुस्तकीय या शास्त्रीय नहीं था। अपने जीवन में उन्होंने जो अनुभव किया, जो साधना से पाया, वही उनका अपना ज्ञान था। जो भी ज्ञानी विद्वान उनके संपर्क में आते उनसे वे कहा करते थे-
‘तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखों की देखी’
सैकड़ो पोथियाँ (पुस्तकें) पढ़ने के बजाय वे प्रेम का ढाई अक्षर पढ़कर स्वयं को धन्य समझते थे। कबीर को बाह्य आडम्बर, दिखावा और पाखंड से चिढ़ थी। मौलवियों और पंडितो के कर्मकांड उनको पसंद नहीं थे। मस्जिदों में नमाज पढ़ना, मंदिरों में माला जपना, तिलक लगाना, मूर्तिपूजा करना रोजा या उपवास रखना आदि को कबीर आडम्बर समझते थे। कबीर सादगी से रहना, सादा भोजन करना पसंद करते थे। बनावट उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। अपने आसदृपास के समाज को वे आडम्बरो से मुक्त बनाना चाहते थे।
साधुदृसंतो के साथ कबीर इधरदृउधर घूमने जाते रहते थे। इसलिए उनकी भाषा में अनेक स्थानों की बोलियों के शब्द आ गये है। कबीर अपने विचारो और अनुभवों को व्यक्त करने के लिए स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग करते थे। कबीर की भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ भी कहा जाता है।
कबीर अपनी स्थानीय भाषा में लोगो को समझाते, उपदेश देते थे। जगहदृजगह पर उदाहरण देकर अपनी बातो को लोगो के अंतरमन तक पहुँचाने का प्रयास करते थे। कबीर की वाणी को साखी, सबद और रमैनी तीनो रूपों में लिखा गया है जो ‘बीजक’ के नाम से प्रसिद्ध है। कबीर ग्रन्थावली में भी उनकी रचनाएँ संग्रहित हैं। कबीर की दृष्टि में गुरु का स्थान भगवान से भी बढ़कर है। एक स्थान पर उन्होंने गुरु को कुम्हार बताया है, जो मिटटी के बर्तन के समान अपने शिष्य को ठोक दृ पीटकर सुघड़ पात्र में बदल देता है। सज्जनों, साधुदृसंतो की संगति उन्हें अच्छी लगती थी। यद्यपि कबीर की निन्दा करने वाले लोगो की संख्या कम नहीं थी लेकिन कबीर निन्दा करने वाले लोगो को अपना हितैषी समझते थे-
निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
उस समय लोगो के बीच में ऐसी धारणा फैली हुई थी कि मगहर में मरने से नरक मिलता है। इसलिए कबीर अपनी मृत्यु निकट जानकर काशी से मगहर चले गये और समाज में फैली हुई इस धारणा को तोड़ा। सन 1518 ई. में उनका निधन हो गया। कहा जाता है कि उनके शव को लेकर विवाद हुआ। हिन्दू अपनी प्रथा के अनुसार शव को जलाना चाहते थे और मुस्लिम शव को दफनाना चाहते थे। शव से जब चादर हटाकर देखा गया तो शव के स्थान पर कुछ फूल मिले। हिन्दू दृ मुसलमान दोनों ने फूलों को बाँट लिया और अपने विश्वास और आस्था के अनुसार उनका संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है जिसे हिन्दू मुसलमान दोनों पूजते हैं।
कबीर सत्य बोलने वाले निर्भीक व्यक्ति थे। वे कटु सत्य भी कहने में नहीं हिचकते थे। उनकी वाणी आज के भेदभाव भरे समाज में मानवीय एकता का रास्ता दिखाने में सक्षम है।
-ः कबीर वाणी :-
माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो
आया है किस काम को किया कौन सा काम
भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम
कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी
झूठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी
कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी
मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी
चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
साबित बचा न कोय लंका को रावण पीसो
जिसके थे दस शीश पीस डाले भुज बीसो
कहिते दास कबीर बचो न कोई तपधारी
जिन्दा बचे ना कोय पीस डाले संसारी
कबिरा खड़ा बाजार में सबकी माँगे खैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगावे
भूला भटका जो होय राह ताही बतलावे
बीच सड़क के माँहि झूठ को फोड़े भंडा
बिन पैसे बिन दाम ज्ञान का मारै डंडा
दर्शना शर्मा