हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय हुई थी। उस समय की फारसी तवारिखों में अकबर के चाटुकार लेखनीकारों ने गलत व मनगढंत तथ्यों की रचना की है। मेवाड़ में उपलब्ध शिलालेखों, ख्यातों, प्रशस्तियों में तथा आधुनिक इतिहासकारों ने भी प्रताप विजय का वर्णन किया है, उसे क्रमबद्ध रखने का प्रयास किया गया है । उक्त साक्ष्यों के अध्ययन के पष्चात आप स्वतः ही निष्कर्ष पर पहुँच जायेंगे।
1 सूरखण्ड (सुरपणखेड़ा) का शिलालेख
(ज्येष्ठ शुक्ला -11 वि.सं. 1642) महाराणाधिराज प्रताप सीगं जी ने राठड़ का रा, ज पराजि कर सिसोदीय, ण का राज संवत 1642, मं राज प्रताप की, आ सुरषंड नगेर पर, राज काद उस समे, मुगल अकबर, के विषात सेनापती रा, मानसेह को सात जुद, था महाराणाजी अस वज, पइ ऊ षुसी में रनसड़, जी का मदीरा डोरी थ 3, स का प्रसद की आ लु, बी हल 4 पुजारी कुव, र को दा जेठ सुकल-11।
अर्थ : महाराणाधिराज प्रतापसिंह ने राठौड़ का राज्य पराजित कर सिसोदियों का राज संवत् 1642 में राज का प्रताप (प्रभाव) किया उस समय अकबर के विख्यात सेनापति मानसिंह के साथ युद्ध किया। महाराणा जी इस युद्ध में विजयी हुए। इसी प्रसन्नता में रणछोड़ जी का मंदिर की डोहली का प्रसाद किया। लुबी (भूमि) 4 हल पुजारी के पुत्र को दी। ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी।
2 जगन्नाथराय (जगदीश) मंदिर उदयपुर की प्रशस्ति
(वैशाखी पूर्णिमा, वि.सं. 1708 – 13 मई 1652 ई.)
कृत्वा करे खड्गलतां स्वबल्लभां, प्रतापसिंहे समुपागत प्रगे।
सा खण्डिता मानवती द्विषच्चम्ः संकोचयन्ती चरणं पराड्. मुखी।
श्लोक सं. 41
अर्थ – अपनी प्रियतमा खड्गलतां (तलवार रूपी वल्लरी) को हाथ में लेकर प्रतापसिंह के रण भूमि में आ जाने पर खण्डिता नायिका के समान मानिनी (रुठी हुई) मानसिंह से मुक्त शत्रु सेना अपने पैर सिकोड़ते हुए परांगमुखी (पीछे मुंह कर भागने वाली) हो गई।
3 वैद्यनाथ मंदिर प्रशस्ति, सीसारमा
(1715 ई. माघ सुदी 12, गुरुवार)
प्रतापसिंह होऽथ व भूव तस्माद्धनुर्धरो धैर्यधरो धरिण्याम्।
म्लेच्छाधिपात् क्षत्रिकुलेन मुक्तोधर्मोप्यथैनं शरणं जगाम् ।।34।।
प्रतापसिंहेन सुरक्षितोऽसौ पुष्ठः परं तुंदिलतामगछत्।
अकब्बर म्लेच्छगणधिपस्य परं मनः शल्यमिवाभवद्यः ।।35।।
अर्थ – उदयसिंह से प्रतापसिंह हुए । यह पृथ्वी पर धनुर्धारी तथा धैर्यवान् के रूप में (प्रसिद्ध) हुए। क्षत्रिय कुल के द्वारा म्लेच्छ शासक से धर्म को मुक्त कराया, इस धर्म ने इसकी (प्रताप की) शरण ली। ।।34।। प्रतापसिंह के द्वारा धर्म को सुरक्षित रखा गया। पुष्ट किया गया, जिससे वह तोंद वाला (बड़ा) हो गया। म्लेच्छाधिपति अकबर के लिए प्रताप मन में घुसा हुआ कांटा हो गया।
4 रणछोड़ भट्ट प्रणत अमरकाव्यम्
(सर्ग-16, श्लोक सं. 35)
रणभुवि समुपेतं धन्य सेना समेत् वरागत यवनेशं भूपतिर्मानसिंहम्।
पवन बल निदानं म्लेच्छनाथैकतानं्, दलित समरमानं शौर्यशाणं ततान।
अर्थ – प्रतापसिंह समुपेतं धन्य सेना सहित आये हुए यवनपति को वश में करने वाले, यवन सेना के निदान (पहचान), यवनपति को एकमात्र तान (मुखिया) मानसिंह का युद्ध में अभिमान चूर्ण कर वीरता रूपी शान का विस्तार किया।
5 राज रत्नाकर : महाकवि सदाशिव (वि.सं. 1734)
सप्तम सर्ग – श्लोक 42
अरिपट भवनाद् गृहीतवितः, पुनखलोकित सम्पराय भूमिः।
स समर विजयी यर्यो महीश, उदयपुरणभिमुखः प्रतापसिंहः।।
अर्थ – शत्रुओं के तम्बुओं से धन लेकर तथा युद्ध-भूमि का पुनः अवलोकन कर वह पृथ्वीपति प्रतापसिंह युद्ध में विजयी होकर उदयपुर की ओर चल पड़ा।
6 प्रो. आर.पी. व्यास, जोधपुर
(महाराणा प्रताप पृ. 135)
‘‘परिणामतः मुगलों के लिए यह युद्ध असफल ही रहा। युद्ध के बाद न तो राणा का पीछा किया जा सका, न उसे बंदी बनाया जा सका और न मेवाड़ को मुगल साम्राज्य का अंग बनाया जा सका। मुगलों ने कुछ समय के लिए जो क्षेत्र अधीन किया, वह निर्जन, उजाड़ और पथरीला था। इससे मुगल तनिक भी लाभान्वित नहीं हुए। हल्दीघाटी के युद्ध और लूट के नाम पर जो मानसिंह को प्राप्त हुआ वह केवल राणा का प्रसिद्ध हाथी रामप्रसाद था। इस युद्ध में मुगल विफलता के कारण अब यह भ्रम ध्वस्त हो गया कि मुगल सेना अजेय है।’’
7 डॉ. देवीलाल पालीवाल, उदयपुर
(महाराणा प्रताप महान्, पृ.सं. 43)
‘‘अपने कई योद्धाओं के खो जाने के बावजूद प्रताप और उसकी सेना अपराजित रह कर सुरक्षित पहाड़ों में लौट गई, मानसिंह उसका पीछा नहीं कर सका। वस्तुतः इस युद्ध का अंत गोगुन्दा में हुआ, जहां मुगल सेना की बड़ी दुर्दशा हुई और उसको विफल हो कर लौटना पड़ा। इस भांति जो लड़ाई 18 जून के दिन खमनोर के मैदान में शुरू हुई उसका अंत सितम्बर में गोगुन्दा में हुआ जब मुगल सेना विफल हो कर लौट गई।’’
8 डॉ. के. एस. गुप्ता, उदयपुर
‘‘हल्दीघाटी युद्ध में मुगलों को अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय ने भारतीय राजनैतिक क्षितिज में मुगलों के अपराजेय होने के भ्रम को ध्वस्त कर दिया। इस युद्ध में प्राप्त सफलता ने प्रताप के नेतृत्व के प्रति जन मानस की आस्था को और अधिक प्रगाढ़ कर दिया।
9 केसरीसिंह, पाली (The Hero of Haldighati)
‘‘बिना किसी संदेह के यह कहा जा सकता है कि खमनोर में मुगल सेना को हार का सामना करना पड़ा। प्रताप ने आक्रामक सेना को अच्छी तरह से खमनोर में पराजित किया। इस युद्ध में प्रताप ने अपने दुश्मन के मन में भय उत्पन्न कर दिया जिससे उनका मनोबल गिर गया। इस युद्ध के कारण प्रताप का नाम और यश देश के दूरवर्ती इलाकों तक फैल गया। इस प्रकार अपनी स्वतन्त्रता के लिए जिस निर्भीकता से प्रताप लड़ा उससे देश की जनता में उनका सम्मान बढ़ गया और उसके राज्य में स्वतन्त्रता की भावना में अत्यधिक वृद्धि हुई।’’
10 डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा
(उदयपुर राज्य का इतिहास भाग एक पृ. 442)
हिन्दुओं के साथ मुसलमानों की लड़ाई का मुसलमानों द्वारा लिखा वर्णन एकपक्षीय होता है, तो भी मुसलमानों के कथन से निश्चित है कि शाही सेना की बुरी तरह दुर्दशा हुई और प्रतापसिंह के लौटते समय भी उस सेना की स्थिति ऐसी नहीं रही थी कि वह पीछा कर सके और उसका भय तो उस सेना पर यहाँ तक छा गया था कि वह यही स्वप्न देखती थी कि राणा पहाड़ के पीछे रह कर हमें मारने की घात लगाए बैठा है। दो दिन बाद 21 जून को मुगल सेना के गोगुन्दा पहुँचने पर भी शाही अफसरों को यही भय बना रहा कि कहीं राणा आ कर हमारे पर टूट ना पड़े, इसी से उस गांव के चौतरफा खाई खुदवा कर घोड़ा न फांद सके इतनी ऊँची दीवार बनवाई और गांव के तमाम मौहल्लों में आड़ खड़ी करवा दी गई। फिर भी शाही सेना गोगुन्दा मे कैदी की भांति सीमाबद्ध रही और अन्न तक ना ला सकी जिससे उसकी और भी अधिक दुर्दशा हुई। इन सब बातों पर विचार करते हुए यही मानना पड़ता है कि युद्ध में प्रतापसिंह की ही प्रबलता रही थी।
11 कर्नल जेम्स टॉड
(उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ. सं. 334)
18 जून 1576 ई. सन् का दिन आर्य कुल की वीरता का एक प्रसिद्ध दिवस है। यह आर्य गौरव का एक पवित्र पर्व हुआ। जितने दिन तक मनुष्य वीरता और महानता की पूजा करेंगे, जितने दिन जगत में राजपूत जाति रहेगी, उतने दिन तक इस उपरोक्त दिन का वृतांत मनुष्यों के इतिहास में प्रकाशमान और रक्त मिश्रित अक्षरों से लिखा रहेगा। यह दिन अनन्त काल तक प्रकाश करेगा। उस दिन उस पुण्य भूमि हल्दीघाटी के शैलगात्र और समस्त गिरिमार्ग मेवाड़ के साहसी पुत्रों के पवित्र शोणित से भीग गये थे। हल्दीघाटी का युद्ध राजस्थान का थर्मोपल्ली था ।
12 डॉ. देव कोठारी, उदयपुर
(महाराणा प्रताप और उनका युग, पृ.सं. 13)
मेवाड़ के इतिहास, शिलालेख, प्रशस्तियों आदि में प्रताप की विजय होना लिखा है। मुगल इतिहासकारों के विवरण खुशामद भरे हैं। उनके इन विवरणों से अकबर की विजय संदिग्ध ही लगती है क्योंकि युद्ध के बाद शाही सेना का भयभीत रहना, गोगुन्दा में खाइयां खुदवाना, दीवारें व बाड़े बना कर भीतर कैद रहना, उन्हें रसद सामग्री उपलब्ध नहीं होना, प्रताप को जीवित या मृत नहीं पकड़ पाना, बदायूँनी द्वारा अकबर के विजय के कथन पर जनता का विश्वास नहीं करना, मेवाड़ पर कब्जा नहीं कर सकना, मुगल सेना की दुर्दशा और मानसिंह व आसफ खाँ की गलतियों के कारण उनकी ड्योढी बंद कर देना आदि अकबर की विजय सिद्ध नहीं करती।
13 अल बदायूँनी
(मुन्तखबु तवारीख के अनुसार)
‘‘इस वक्त हमारी सेना की पूरी तरह हार हो गई। राणा ने घाटी से निकलकर गाजी खाँ की सेना पर हमला किया और उसकी सेना का संहार कर उसके मध्य तक जा पहुँचा, जिससे सीकरी के शहजादे, शेख मंसूर, गाजी खाँ आदि भी भाग निकले। हमारी फौज तो पहले हमले में भाग निकली। बनास नदी के उस पार तक भागती रही। ….जब युद्ध के समाचार लेकर मैं अकबर के पास जा रहा था तब मार्ग में मुगल विजय के बारे मे बताता तो कोई उस पर विश्वास नहीं करता।’’
उपरोक्त कारणों से प्रतीत होता है कि हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप विजयी हुए। उनकी इस विजय ने सम्पूर्ण देश में उनकी ख्याति फैला दी।
राजेष सैनी