होली का पर्व मात्र परंपरागत उत्सव ही नहीं अपितु जीवन का मनोविज्ञान है, इसका एक सामाजिक दर्शन है। पर्व और त्योहारों की सांस्कृतिक स्वीकृति ही इसलिए है कि समाज का प्रबुद्ध वर्ग इसे समझेगा, समाज को समझाएगा। यदि हम बात होली पर्व की करें तो केवल इसी एक पर्व को भली – भांति समझ लिया जाये तो मानव जीवन की आधी उलझने, समस्याएं, उहापोह की स्थिति का शमन, समाधान और निराकरण स्वयं हो जायेगा, इसमें किंचित भी संदेह नहीं।
होली वह शुभ पर्व है जिसके मूल में ‘सत्यमेव जयते’ का सन्देश निहित है। ईश्वर की सत्ता से ऊपर अपने पिता महाराजा हिरण्यकश्यप की सत्ता को न स्वीकार करने वाले भक्त प्रहलाद का भारतीयों को सिखाया गया यह मार्ग है। इस मार्ग में लाखों मुश्किलें आने के बावजूद अन्त में सत्य की विजय का उद्घोष छिपा हुआ है। हम भारतीय इसे रंगों के ऐसे उत्सव के रूप में मनाते हैं जिसे समाज के सभी वर्ग एकाकार होकर अपनी विशिष्ट पहचान खोकर रंगों की आभा में खो जाते हैं। यह रंग भाईचारे और प्रेम से पूरे समाज को अपने आगोश में ले लेता है परन्तु इसके साथ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भक्त प्रहलाद के सत्य को अन्त में ‘अग्नि परीक्षा’ देकर तब खरा उतरना पड़ा था जब हर कदम पर झूठ की शक्ति सम्पन्न आधिकारिक प्रभुता उसे डरा-धमका कर अपनी धाक जमाना चाहती थी।
तो क्या है होली? बात यहीं से प्राम्भ करते हैं। होली का सर्वश्रेष्ठ अर्थ तो इसके अक्षर विन्यास में ही सन्निहित है – (अर्थात होली = हो, ली)। जो हो गया, जो बीत गया.. अच्छा या बुरा, उचित या अनुचित, उस बात को छोड़ दो, ढोते न रहो। छोड़ने का तात्पर्य मात्र यह है कि उससे उत्पन्न निराशा और अवसाद – विषाद को कंधे पर लादे न रहो, मन – मस्तिष्क पर बोझ न बनाओ। घटना के मूल में स्वयं की सहभागिता ढूंढो। यदि उसमे कोई त्रुटि हो और संशोधन की सम्भावना हो तो बेहिचक करो। अपनी लिखी कॉपी का मूल्यांकन स्वयं कीजिए। अपना निरीक्षक- परीक्षक स्वयं बनिए, आधी समस्या का समाधान तो इस प्राथमिक स्तर पर ही हो जायेगा। पूरा नहीं भी हुआ तो मात्र इतने से ही एक सार्थक और समुचित मार्ग मिल जायेगा, यदि परीक्षक की भूमिका बिना पक्षपात, पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ निभाई गयी है! यह सभी व्यक्ति और व्याधियों की अचूक दवा है। स्वयं से प्रारंभ कर परिवार और समाज में निखार लाया जा सकता है। निजत्व के स्तर पर प्रारंभ हुआ यह परिष्कार, सामाजिक परिष्कार और राष्ट्र की अंतर्शक्ति सुदृढ़ कर उसे अंतर्राष्ट्रीय मण्डल के रूप में एक प्रेरणास्रोत बनाया जा सकता है। व्यक्ति विकास की यह प्रगति, राष्ट्रीय प्रगति में परिणित हो सकती है, जिसकी आज महती आवश्यकता है।
होली पर्व मनाने के दो चरण हैं –
(1) होलिका – दहन (2) रंग – गुलाल प्रक्षेपण
क्या है यह ‘होलिका – दहन’? होलिका न तो कोई स्त्री प्रतीक है, न पुरुष प्रतीक। वह हमारी स्वयं की अपनी आतंरिक वृत्ति है, बुराई है, उसी को दहन करना है। विकृति और बुराई को अंकुरित होते ही, पनपते ही नष्ट कर डालना दैनिक साधना और आत्म संस्कार का उद्देश्य है। यह आदत, यह भाव मनोमालिन्य को धो डालता है। जो लोग किसी कारणवश इस दैनिक साधना से नहीं जुड़ पाते हैं, उन्हें इस वार्षिक साधना से तो अवश्य ही जुड़ना चाहिए। सामूहिक बुराइयों का दहन सामूहिक रूप से हो और सभी के समक्ष हो, यही तो है – ‘‘होलिका – दहन’’। यही है इस होलिका – दहन का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष।
इस पक्ष को दूसरे ढंग से भी समझा जा सकता है। अब प्रचलित प्रासंगिक कहानी से जुड़े हम। अग्नि सुरक्षा कवच धारण करने वाली ‘होलिका’ अग्नि के प्रकोप से बच नहीं पाई, क्यों? विचारणीय बिंदु है यह। सत्य के विरुद्ध, लोकमंगल के विरुद्ध, पाप वृत्तियाँ, अनाचार – भ्रष्टाचार चाहे कितने भी सुरक्षा प्रबंध करें, भेद खुल ही जायेगा और अंततः दोषी को परास्त होना ही पड़ेगा। ‘होलिका – दहन’ ध्वंसात्मक और नकारात्मक वृत्तियों की हार और ‘प्रह्लाद की सुरक्षा’, सत्य तथा सृजनात्मक वृत्ति, लोकमंगल की विजय है, इस होली पर्व का तत्त्व-दर्शन है। इसे ही समझने की आवश्यकता है।
होली का पर्व दो महापर्वां के ठीक मध्य घटित होने वाला पर्व है। होली के पंद्रह दिन पूर्व ही संपन्न होता है, महाशिवरात्रि का पर्व और पंद्रह दिन बाद चैत्र नवरात्री का। शिव और शक्ति के ठीक मध्य का पर्व और एक प्रकार से कहा जाएं तो शिवत्व के शक्ति से संपर्क के अवसर पर ही यह पर्व आता है। जहां शिव और शक्ति का मिलन है वहीं ऊर्जा की लहरियां का विस्फोट है और तंत्र का प्रादुर्भाव है, क्योंकि तंत्र की उत्पत्ति ही शिव और शक्ति के मिलन से हुई। यह विशेषता तो किसी भी अन्य पर्व में सम्भव ही नहीं है और इसी से होली के पर्व को श्रेष्ठ पर्व, साधना का सिद्ध मुहूर्त और सौभाग्य की घड़ी कहा गया है।
बुराइयों के उन्मूलन के पश्चात, अच्छाइयों की शुरुआत अपने आप होने लगती है। होलिका के प्रतीक लकड़ियों के ढेर में आग लगते ही हर्षोल्लास से आप – हम क्यों चिल्ला उठते हैं? क्यों हमारे अंग – प्रत्यंग थिरकने लगते हैं? क्योंकि अच्छाइयों और सदगुणों की प्रचंड आंधी ने दिल – दिमाग के कपाट खोल दिए हैं। हम प्रत्येक व्यक्ति से, छोटा हो या बड़ा, बच्चा हो या बूढ़ा, गले से लिपट जाते हैं, रंग – गुलाल पोत देते हैं। हाँ, स्नेह और सद्भाव के रंग में भीगकर दूसरे को भी सराबोर कर देना, सद्भाव में डूब जाना ही होली है! यह होली प्रतिदिन दैनिक निजी – साधना में हो, तो बहुत अच्छी बात है। यदि यह कार्य दैनिक नहीं हो पाता, तो भी कोई बात नहीं यह वार्षिकोत्सव रूप में मनाएं, लेकिन एकल नहीं सामूहिक साधना के रूप में! इस पर्व में तो परिष्कार ही परिष्कार है, उल्लास ही उल्लास, उमंग ही उमंग है। इस उल्लास – परिष्कार – उमंग को वार्षिक ऊर्जा के रूप में तन – मन – आचरण में संचित कर लेना ही इसकी सफलता है। संक्षेप में यही इस पर्व का निहितार्थ, यही इसका सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष है। आपसी मनोमालिन्य दूर कर प्रेम – सौहार्द्र को शुभारम्भ कर उसे परिपुष्ट करने के सामूहिक शुभदिवस का नाम है – ‘‘होली’’।
मानव को अपने अन्दर की मानवता को विकसित करने के लिए होली से बड़ा कोई पर्व हो ही नहीं सकता…! यह किसी एक समुदाय का पर्व नहीं, मानव – समुदाय का, मानव – जाति का पर्व है। इस पर्व के भौंडेपन से, कुरीतियों से, अमर्यादित भाषा प्रयोग से यथासंभव बचें …! अन्दर की विकृतियाँ निकाल बाहर करें। विकृतियो के बहिर्गमन से रिक्त जगह में सभ्यता और संस्कृति का वास होगा, निवास होगा। विरोधियों और शत्रुओं को स्नेह और सद्भाव के रंग में इतना रंग दो कि वह बाहर से ही नहीं, अन्दर से भी रंगीन हो जाये और विरोध का स्वर भूलकर सहयोग का जाप करने लगे। शत्रु को मित्र बना लेने की कला ही इस पर्व की सार्थकता है, यही इस पर्व की पराकाष्ठा भी है।
होली में पलाश (ढाक, टेशू) के फूल के अर्क को निकालकर उसे शरीर पर डाला जाता था। पलाश के पुष्प का अर्क चर्मरोगों के लिए औषधि होता है। जाड़े की समाप्ति के समय शरीर में अनेक चर्मरोगों का प्रकोप हो जाता है। इससे मुक्ति के लिए पलाश के पुष्प के लाल अर्क को शरीर पर डालते थे एवं सरसों के उबटन से शरीर को मालिश करते थे यह शरीर को निरोग एवं हष्ट पुष्ट रखता है। इस प्रकार होली शरीर को निरोग रखने का अच्छा माध्यम है।
होली का एक दूसरा स्याह – धूमिल पक्ष भी है। न जाने कब और कैसे इस पर्व में हुडदंग के साथ – साथ अश्लीलता ने भी अपनी जडें़ जमा लीं ? दावे से साथ कुछ भी कह पाना कठिन है। लेकिन, आज जब हम होली का निहितार्थ जान गए हैं, फिर इसमें फूहड़ता और अश्लीलता का क्या काम? कपड़े यदि गंदे हो जाते हैं तो क्या उन्हें साफ नहीं किया जाता? मकान – दुकान की मरम्मत और रंगाई – पुताई नहीं होती? तन – बदन की मैल को क्या धुला नहीं जाता? तो फिर फूहड़ता को, विकृतियों को निकाल फेंकने में संकोच क्यों? चोर दरवाजे से आ घुसी विकृतियों को निकाल बाहर करने का दायित्व भी तो उन्ही का है, जो इस पथ को जान गए हैं, इसकी उपादेयता और महत्व को पहचान गए हैं। पहला कदम तो वही बढ़ाएंगे…. तो आइये, एक सत्साहस भरा संकल्प लें – ‘‘हम होली मनाएंगे, खूब मनाएंगे… कलुष – कषाय – कल्मश और बुराइयों की होलिका जलाएंगे तथा विकृतियों, फूहड़पन, हुडदंग और अश्लीलता को दूर भगायेंगे…!
हरिदत्त शर्मा