कभी-कभी मन में आता है कि वह समय कितना पवित्र और प्यारा होगा, जब भगवान श्री कृष्ण इस भूमण्डल पर विचरते होंगे? पर अगले ही क्षण मन में यह विचार भी आता है कि उस काल को भी पवित्र और प्यारा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यदि वह काल पवित्र और प्यारा था तो उसमें महाभारत जैसा प्रलंयकारी और महाविनाशकारी युद्ध क्यों हुआ?
निश्चित रूप से उस समय भी मानव मन छल-कपट, ईर्ष्या और द्वेष की अग्नि में धधक रहा था और यही कारण रहा कि अंत में मानव की सारी दुर्बलताएँ उसे घेर-घेरकर युद्ध की भट्टी में लाकर झोंकने में सफल हो गईं।
कैसा काल था वह जब अपने ही बन्धु-बान्धव अपने आप ही एक दूसरे को मार काटने के लिए उद्यत हो गये?…..और इस मारने-काटने को ही उस समय ‘निज-धर्म’ मान बैठे। निज बन्धु-बान्धवों को मारना-काटना मनुष्य का शाश्वत धर्म तो नहीं था। मनुष्य का शाश्वत धर्म तो निज बन्धु-बान्धवों की रक्षा करना था, उनके लिए स्वयं मर मिटना था।…..तो फिर क्या यह मनुष्य का ‘आपद् धर्म’ था कि वह निज बन्धु-बान्धवों को ही मारने-काटने लगे?
हमारा विचार है कि इसे ‘आपद् धर्म’ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि ‘आपद् धर्म’ तो अचानक आयी विपदा के समय अपनाया जाता है। जबकि यहां पूर्ण सोच विचार के साथ दोनों ओर की सेनाएं एक दूसरे को मारने के लिए सन्नद्ध खड़ी हैं। दोनों पक्षों में भीष्म पितामह, योगीराज कृष्ण, धृतराष्ट्र, विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे महामति मनीषी, धर्म के मर्मज्ञ और राजनीति के सूक्ष्म तन्तुओं को जानने वाले राजर्षि उपलब्ध हैं। इसके उपरान्त भी युद्ध अपरिहार्य हो गया, तो इस युद्ध को फिर क्या कहा जाए?
हमारा विचार है कि इस युद्ध को धर्म की संस्थापनार्थ किया गया युद्ध ही माना जाना चाहिए। युद्ध को टालने के लिए कृष्ण, भीष्म पितामह, विदुर और उन जैसे मनीषियों ने भरसक प्रयास किये, किन्तु वे सारे ही प्रयास निरर्थक सिद्ध हुए। तब ऐसी परिस्थितियों में दुर्योधन और शकुनि की नीतियों को बल मिलना स्वाभाविक था। यदि ऐसा होता तो उससे धरती पर दुष्टाचार, दुराचार, पापाचार, अनाचार और अत्याचार के बढ़ने की पूरी-पूरी सम्भावना रहती। दुष्टों के राज्य में अच्छे लोगों का रहना कठिन हो जाता, वह स्थिति अराजकता की स्थिति होती, जिसमें राजा तो होता पर राजधर्म नहीं होता।
ऐसी परिस्थितियों में महाभारत के युद्ध को भारत के सनातन धर्म का ही एक भाग माना जाना चाहिए। भारत का सनातन धर्म कहता है कि अधर्म का नाश करना मनुष्य का धर्म है। यज्ञादि के अवसर पर हम आज तक ‘‘अधर्म का नाश हो’’-ऐसा उद्घोष करते हैं। यह इसी बात का प्रतीक है कि हम अधर्म का नाश और धर्म की संस्थापना के लिए सदैव प्रयासरत रहते हैं।
वैदिक गीता सार सत्य
हमारे भीतर अनेकों दुष्प्रवृत्तियाँ हैं, जबकि ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं। इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों को पाँच पाण्डव और अनेकों आसुरी प्रवृत्तियों को सौ कौरव मानना चाहिए। आसुरी प्रवृत्तियों को जीतने के लिए मानव हृदय में सतत् संघर्ष चल रहा है। यह संघर्ष सनातन है। उतना ही पुराना है-जितना पुराना मानव का इतिहास है। यह जीवन कर्मक्षेत्र है, यही कुरूक्षेत्र है, जिसमें यह युद्ध लड़ा जा रहा है। यह सुरासुर संग्राम भी कहलाता है, जिसका मूल मानव मानस है। मानव मानस ही कौरव वंश है। जिसकी दो शाखाएँ परस्पर लड़ रही हैं। यदि आसुरी प्रवृत्तियों का सामना नहीं किया गया तो अधर्म की वृद्धि और धर्म का नाश हो जाएगा। इसलिए युद्ध अवश्यम्भावी और अनिवार्य हो गया है। इस युद्ध की चुनौती को स्वीकार करना अर्जुन का धर्म है। इसी धर्म का स्मरण कराने के लिए कृष्णजी ने ‘गीता’ ज्ञान-अमृत अर्जुन को दिया।
गीता ज्ञानामृत शाश्वत है, सनातन है। कारण कि मनुष्य के अंतःकरण में चल रहा सुरासुर संग्राम भी शाश्वत और सनातन है, वह मिटने का नाम ही नहीं लेता। इस युद्ध से नित्य प्रति कितने ही ‘अर्जुन’ भागने लगते हैं। तब कोई न कोई ‘कृष्ण’ उन्हें भी आवाज देकर रोकता है। समझाता है कि-‘भागो मत, युद्ध करो। जो सामने चुनौती है-उसे स्वीकार करो और उससे जूझो। यदि चुनौती को बिना जूझे छोड़ दिया तो मिट जाओगे। मिटने से उत्तम है कि चुनौती को ही मिटा दो। यदि चुनौती को मिटा दिया तो अनेक लोगों को जीवन दान मिलेगा। इसलिए जीवनदान के पुण्य के भागी बनने के लिए युद्ध को भी धर्म समझकर लड़ो और अंत में उसे जीतो भी।’
गीता के महत्व को भारत के ही नहीं अपितु विश्व भर के विद्वानों ने स्वीकार किया है। ‘गीताध्यान’ में कहा गया है-
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्ससुधीर्भोक्त दुग्धं गीतामृतं महत।।
अर्थात् जितने उपनिषद हैं वे सबके सब मानो गौएँ हैं, ग्वालों का प्यारा कृष्ण मानो इन गौओं का दूध दूहने वाला है, ग्वाला है, अर्जुन मानो इन गौओं को पौसाने वाला बछड़ा है। गौओं के पौस आने पर उस रस का भोगने वाला हर एक जिज्ञासु है, यह जिज्ञासु जिस अमृत का पान करता है, वह गीता गौमाता का महान ज्ञानामृत रूपी दूध है। बात स्पष्ट है कि गीता ज्ञानामृत हर व्यक्ति के लिए है। इसकी उपलब्धता हर सम्प्रदाय के व्यक्ति के लिए है। इसका ज्ञान पूर्णतः पन्थनिरपेक्ष है, जो विश्व मानवता का भला करेगा, कल्याण करेगा। इसके ज्ञान में किसी प्रकार की साम्प्रदायिकता नहीं है। यह सर्व सुलभ है, और सर्वकल्याणप्रद है।
राकेश कुमार आर्य