एसएसएम काॅलेज ऑफ इंजीनियरिंग, नामक्कल में थर्ड ईयर का एक छात्र अक्सर रात में भूखा सो जाता। दोस्त साथ खाने को कहते, तो वह बहाने बनाकर टाल जाता। दरअसल, रात के खाने के लिए उसके पास जो 15-20 रुपये होते थे, वह उन्हें किसी फैली हुई हथेली पर रख आता था।
तब उसकी उम्र सिर्फ 19 वर्ष रही होगी। बढ़ती उम्र को ठोस खुराक की दरकार थी और जहीन दिमाग को कुछ समझने के लिए तृप्त मन की। मगर वह किशोर इतनी तकलीफों में पला-बढ़ा था कि भूख से लरजती किसी पुकार को अनसुना ही नहीं कर पाता।
तिरुचिरापल्ली के मुसिरी में जन्मे पी नवीन कुमार को बिस्तर से लगी माँ और विकलांग पिता की हालत ने छुटपन से ही काफी संवेदनशील बना दिया था। शायद नियति उन्हें जहाँ ले जाने वाली थी, उसके लिए बचपन से ही उन्हें तैयार कर रही थी। उनमें अपार धैर्य भर रही थी। नवीन पढ़ने में होशियार थे, इसलिए गरीबी शिक्षा में बाधा न बन सकी। तमिलनाडु की सरकारी सुविधाएँ उन्हें सहारा देती गईं और वह सपनों की राह पर आगे बढ़ते चले गए। साल 2010 में नवीन का पड़ाव था- एसएसएम काॅलेज आॅफ इंजीनियरिंग। किशोर से बालिग बनने के वे अहम साल थे।
नवीन धार्मिक रुझान वाले युवा हैं। काॅलेज की पढ़ाई के बाद वह प्रायः मंदिर चले जाया करते थे। लेकिन मंदिरों के आगे का एक दृश्य उन्हें बेचैन करता रहा। फिर वह शहर के जिस भी हिस्से में जाते, वहाँ कुछ लोग उन्हें भीख माँगते दिख ही जाते। कई भिखारियों की अमानुषिक हालत देखकर उसका दिल काँप उठता था। मन में बार-बार एक ही ख्याल आता कि अगर ये मेरे परिजन होते, तो क्या मैं इन्हें यँू ही दरगुजर कर बढ़ पाता? इस सवाल की पीड़ा घनीभूत होती गई। उन्होंने भिखारियों की मदद का संकल्प कर लिया।
नवीन ने अपने इरादे का जिक्र सबसे पहले कुछ सहपाठियों और शिक्षकों से किया, मगर ज्यादातर ने यह कहते हुए उन्हें हतोत्साहित करने की कोशिश की कि तुम खुद गरीब हो, उनकी क्या मदद करोगे? अपने करियर पर फोकस करो। परिवार का भी दबाव बढ़ रहा था, पढ़ाई पर ध्यान दो। मगर नवीन निराश नहीं हुए। उनके मकसद को मजबूती मिली लगभग 60 साल के एक भिक्षुक राजशेखर से।
साल 2014 की बात है। राजशेखर सेलम में भीख माँग रहे थे। नवीन ने उनसे संवाद कायम करने की कोशिश की, मगर राजशेखर खुलने को तैयार न थे। वे पिछले दो महीने से बीमार थे, इसलिए मिजाज भी चिड़चिड़ा हो चला था। राजशेखर काफी बेरुखी के साथ नवीन को नकारते रहे। लेकिन दयालु नौजवान ने भी हार नहीं मानी। लगभग 22 दिनों की कोशिशों के बाद राजशेखर पिघल गए। हिचकियों के बीच जो कहानी सामने आई, वह बेहद दर्दनाक थी। एक दुर्घटना में पत्नी और बेटे को गँवा चुके राजशेखर के सारे पहचानपत्र भी गुम हो गए थे। वह सेलम में काम तलाशने आए थे, मगर बगैर पहचानपत्र के उन्हें किसी ने कोई काम न दिया। जो भी मिला, बस चंद रुपये थमा दिए। हताश राजशेखर कब शराब के लती हो गए, पता न चला और फिर हाथ सड़क पर फैलते रहे, आँखें दाता के आगे झुकती चली गईं।
उस रोज नवीन ने राजशेखर के साथ शाम के तीन घंटे बिताए। अपनी भीख के पैसे से राजशेखर ने उनके लिए चाय मँगाई और उस चाय में घुले अपनत्व ने नवीन के जीवन को नई मंजिल दे दी। काफी प्रयास करने के बाद प्रबंधन की इजाजत लेकर वह हरेक कक्षा में गए और भिखारियों की मदद के लिए सबसे अपील की। सात साथियों ने नवीन की सदारत में एक टीम बनाई, ताकि इसे व्यवस्थित तरीके से अंजाम दिया जा सके। उन्हें राजशेखर के लिए एक ‘चिल्डेªन होम’ में वाॅचमैन की नौकरी मिल गई। इस कामयाबी से नवीन के मनसूबे को नई उड़ान मिली। यही वह समय था, जब नवीन काॅलेज से विदा होने वाले थे। उन्हें अंतिम वर्ष का सर्वश्रेष्ठ छात्र चुना गया था। काॅलेज प्रबंधन के चेयरमैन का भरोसा वह पहले ही जीत चुके थे। प्रबंधन की इजाजत लेकर वह हरेक कक्षा में गए और भिखारियों की मदद के लिए सबसे अपील की। सात साथियों ने नवीन के नेतृत्व में एक टीम बनाई, ताकि इसे व्यवस्थित तरीके से अंजाम दिया जा सके।
दोस्तों और शिक्षकों की सलाह पर मार्च 2014 में नवीन ने ‘आचयम् ट्रस्ट’ की स्थापना की। जाहिर है, नेक कामों में हिस्सा लेने वालों की कोई कमी नहीं। देखते ही देखते काफी सारे छात्र-छात्राएँ और पेशेवर नौजवान बतौर स्वयंसेवी नवीन से जुड़ते चले गए। शुरू-शुरू में जिस नौजवान का उसके सहपाठी ‘भिखारी’ कहकर मजाक उड़ाते और अपने घर के अंदर तक नहीं आने देते थे, वही नवीन आज जेकेके नटराज काॅलेज आॅफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलाॅजी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। अपने ट्रस्ट के जरिए उन्होंने तमिलनाडु के विभिन्न शहरों के 5,000 से अधिक भिखारियों का अब तक उद्धार किया है। उनमें से 572 को तो छोटी-मोटी नौकरी-काम दिलाकर जीवन की मुख्यधारा में वापसी कराई है। 26 साल के नवीन को अब तक 30 से अधिक सम्मानों से नवाजा जा चुका है। इनमें राष्ट्रीय युवा सम्मान भी शामिल है।
प्रतिमा सामर