शिवाजी महाराज को शक्तिशाली योद्धा बनाने में जिस व्यक्ति का सबसे बड़ा योगदान था, वो थी उनकी माँ जीजाबाई। वही जीजाबाई, जिनके शब्दों के सम्मान के लिए शिवाजी ने सिंहगढ़ किले को जीतने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया। यहाँ तक कि अपने अनन्य मित्र तानाजी तक को खो दिया।
छोटी ही उम्र से गुरु, समर्थ रामदास की मदद से उन्होंने शिवाजी महाराज को एक सैनिक की तरह बड़ा किया। साथ ही उनके अंदर वीरता के बीज रोपित करती रहीं। जब भी जीजाबाई कोंडाणा के किले पर मुगलों के झंडे को देखती थीं, तब उनका कलेजा दुःख से भर जाता था।
एक दिन उन्होंने शिवाजी को अपने पास बुलाया और कहा, ‘‘बेटा शिवा! तुम्हें किसी भी कीमत पर कोंडाणा जीतना है। वह यहीं नहीं रुकी। उन्होंने शिवाजी के अंदर जोश भरते हुए कहा, बेटा अगर तुमने इसके ऊपर लहराते हुए विदेशी झंड़े को उतार कर नहीं फेंका दिया, तो कुछ भी नहीं किया। मैं तुम्हें उसी समय अपना पुत्र समझूँगी, जब तुम ऐसा करने में सफल होगे।’’
उस समय शिवाजी इतने परिपक्व नहीं थे। उन्होंने जीजाबाई के सामने सिर झुकाते हुए कहा, ‘‘माता! मुगलों की सेना हमारी तुलना में बहुत विशाल है। हमारी मौजूदा स्थिति भी उनकी तुलना में कमजोर है। ऐसे में उनसे युद्ध करना और कोंडाणा से उनका झंडा उतारना आसान नहीं होगा। यह एक कठिन लक्ष्य है।’’ शिवाजी का यह जवाब जीजाबाई के गले से नहीं उतरा। वो आवेश में आ गईं और गुस्से में कहा, ‘‘धिक्कार है तुम्हे बेटा शिव! तुम्हें खुद मेरा बेटा कहना छोड़ देना चाहिए। तुम चूड़ियाँ पहनकर घर में बैठो। मैं स्वयं फौज के साथ कोंडाणा के दुर्ग पर आक्रमण करूँगी और विदेशी झंडे को उस पर से उतार कर फेंक दूँगी।’’
माँ की बातें सुनकर शिवाजी लज्जित हो गए। उन्होंने सबसे पहले अपनी माँ से क्षमा मांगी। फिर बोले, ‘‘माता, मैं आपकी यह इच्छा जरूर पूरी करूँगा, चाहे जो कुछ हो जाए। अगले ही पल उन्होंने तानाजी को बुलवाया और युद्ध की तैयारी करने के लिए कहा।’’
शिवाजी के आदेश पर तानाजी कोंडाणा जीतने के लिए बढ़ गए और योजनाबद्ध तरीके से सैनिकों के साथ किले के नीचे इकट्ठे हुए। किले की दीवारें बहुत ऊँची और बिलकुल सीधी थी। उस पर चढ़ाई मुश्किल भरी थी। ऐसे में तानाजी ने सूझ-बूझ से काम लिया और चार-पाँच सैनिकों के साथ अपनी किले की दीवार पर चढ़ना शुरू कर दिया।
अंततः तानाजी किले के नजदीक पहुँच में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने रस्सी की मदद से बाकी साथियों को भी किले के ऊपर बुला लिया। आगे सीधे मोर्चे पर वह विरोधी के साथ वीरता से लड़े और कोंडाणा पर अधिकार कर लिया, पर वे स्वयं नहीं रहे।़
शिवाजी जो जब यह समाचार मिला, तो उनकी आँखें नम हो गईं। इस जीत के बाद उनके मुँह से बस यही निकला था कि ‘गढ़ आला, पन सिंह गेला’ यानी किला तो जीत लिया, लेकिन अपना शेर खो दिया। शिवाजी की यह जीत इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों से दर्ज है। उन्होंने तानाजी की स्मृति में कोंडाणा का नामकरण सिंहगढ़ कर दिया।
राजेश जैनी