एक बार स्वामी विवेकानन्द हिमालय की यात्रा कर रहे थे, उन्होंने देखा कि एक वृद्ध थका हुआ, हारा हुआ-सा मार्ग में खड़ा अपने सामने स्थित ऊँची चढ़ाई वाले मार्ग को देख रहा था। स्वामीजी ने उससे पूछा-‘‘क्या हुआ महाशय, आप यहाँ क्यूँ रूके हुए हैं?’’ वह वृद्ध पूर्ण हताश स्वर में स्वामी जी से बोला- ‘‘श्रीमान्, इस चढ़ाई को कैसे पार करुँ। मैं थक गया हूँ, एक कदम भी और नहीं चल सकता, मेरी छाती फट जाएगी। अब मेरे लिए आगे चल पाना संभव ही नहीं है।’’
स्वामी जी ने वृद्ध की बात शांतिपूर्वक सुनी और कहा- ‘‘अच्छा महाशय, आप एक बार नीचे अपने पैरों की ओर देखो। आपके पैरों के नीचे जो सड़क है, यह वही मार्ग है जिसे आप पार करके यहाँ तक आ गए हैं और तनिक नीचे देखिये, आप कितनी ऊँचाई तक चढ़कर आ गए हैं, अब यह जो मार्ग शेष बचा है वह तो बहुत थोड़़ा है। इसलिए आगे बढ़ि़ये, सामने भी आप जो मार्ग देख रहे हैं, वह भी बहुत जल्द आपके पैरों के नीचे होगा।’’ इन शब्दों ने उस वृद्ध को उत्साह से भर दिया, वह आगे बढ़ चला और शीघ्र ही ऊँची चढ़ाई को पार कर गया।
कभी-कभी ऐसा होता है कि मन को निराशा घेर लेती है। हमें अपना लक्ष्य, अपनी मंजिल बहुत दूर और बहुत विशाल दिखाई पड़ती है और इसी कारण हम निराश हो जाते हैं, थककर बैठ जाते हैं। हमें लगता है कि लक्ष्य को हासिल करने जितना सामथ्र्य अब हममें नहीं रह गया है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ‘‘तब भी एक नजर पीछे प्राप्त उपलब्धियों पर डालो और तुम पाओगे कि हमने इतना बड़ा मार्ग तो तय कर ही लिया है, आगे तो बहुत थोड़ा बचा है। यही तुम्हें नई ऊर्जा और आगे बढ़ने की ताकत देगा।’’
‘‘हमें जो चाहिए वह है शक्ति। इसलिए स्वयं पर विश्वास रखो। अपनी नसों को ताकतवर बनाओ। हमें चाहिए लोहे की माँसपेशियाँ और स्टील की नसें। हम बहुत रो लिए, अब और नहीं। अपने पैरों पर दृढ़ता से खड़े हो जाओ और मनुष्य बनो।’’ ये ही वे ऊर्जावान पंक्तियाँ हैं, जो युवा पीढ़ी में जोश व उत्साह का नवसंचार कर सकती हैं। जीवन में शिखर की ओर आगे बढ़ने की लालसा है, बड़े लक्ष्य को चुनने और पाने की दृढ़ इच्छा है, तो फिर पहले उन्हें शक्तिवान बनना होगा। सशक्त-प्रभावी व्यक्तित्व के लिये शारीरिक शक्ति, बौद्धिक शक्ति और नैतिक शक्ति को समाहित करने वाली समग्र शक्ति की आज उन्हें आवश्यकता है।
शारीरिक शक्ति पौष्टिक भोजन, नियमित योग व खेल अभ्यासों से, बौद्धिक शक्ति जागरूकता, गहन अध्ययन व सार्थक-सकारात्मक विचारों से तथा नैतिक शक्ति चरित्र, वाणी व कर्म में पवित्रता से प्राप्त की जा सकती है। कभी यह मत सोचो कि कुछ भी असंभव है। स्वयं को दुर्बल समझना सबसे बड़ा पाप है। अपनी क्षमताओं को पहचानो, उन्हें जागृत करो और बलशाली बनकर जीवन संघर्षांे का सामना करते हुए लक्ष्य को प्राप्त करो।
बचपन से ही स्वामी विवेकानन्द अपने शारीरिक सौष्ठव पर पूर्ण ध्यान देते थे। वे आमोद-प्रमोद और अध्ययन के साथ-साथ नियमित रूप से लाठी-चलाना, मुक्केबाजी, घुड़सवारी, योग व अन्य कई प्रकार के खेल और शारीरिक अभ्यास किया करते थे। इन सब गतिविधियों से ही उनकी शक्ति और सामथ्र्य के विकास में महत्वपूर्ण सहयोग मिला। वे सदैव कठिन परिश्रम के लिये ताकतवर माँसपेशियों की आवश्यकता पर बल देते थे।
वे कहते थे- ‘‘पहले अपने शरीर का निर्माण करो, केवल तभी तुम अपने मस्तिष्क पर नियंत्रण प्राप्त कर सकोगे।…….आप जिसे चाहें उसका ध्यान कर सकते हैं, पर मैं केवल सिंह के हृदय पर ध्यान केन्द्रित करूँगा। वह मुझे शक्ति देगा।’’ बनना है जो सिंह के समान वीर और बलवान बनो, भेड़ की तरह डरपोक नहीं। शक्ति ही जीवन है और दुर्बलता मृत्युु। इसलिए ‘दुर्बल नहीं, सबल बनो।’
उमेश कुमार चैरसिया
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