नारी सृष्टि का आधार है। नारी के बिना संसार की हर रचना अपूर्ण तथा रंगहीन है। नारी मृदु होते हुए भी कठोर है। उसमें पृथ्वी जैसी सहनशीलता, सूर्य जैसा ओज तथा सागर जैसा गांभीर्य एक साथ दृष्टिगोचर होता है। नारी के अनेक रूप हैं। वह समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता जहां नारी को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता।
जयशंकर प्रसाद ने लिखा है-
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पगतल में ।।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में ।।
समाज और संस्कारों के निर्माण में नारी की अहम् भूमिका है। वैदिक काल में प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में नारी की उपस्थिति आवश्यक थी। मैत्रेयी, गार्गी जैसी स्त्रियों की गणना ऋषियों के साथ होती थी। अतः सृष्टि के आदिकाल से ही नारी की महत्ता अक्षुण्ण है। नारी सृजन की पूर्णता है, उसके अभाव में मानवता के विकास की कल्पना असंभव है। समाज रचना, सामाजिक संस्कारों में नारी के माँ, प्रेयसी, पुत्री एवं पत्नि अनेक रूप हैं। वह समपरिस्थितियों में देवी है तो विषम परिस्थितियों में दुर्गा भवानी है। वह समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है, जिसके बिना समग्र जीवन पंगु है। सृष्टि चक्र में स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। नारी का सम्मान करना एवं उसके हितों की रक्षा करना हमारे देश की सदियों पुरानी संस्कृति है। सदियों से ही भारतीय समाज में नारी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा है। नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्र के समग्र विकास तथा उसके निर्माण में महिलाओं का लेखा-जोखा और उनके योगदान का दायरा असीमित है। तथापि देश के चहुँमुखी विकास तथा समाज में अपनी भागीदारी को उसने सशक्त ढंग से पूरा किया है। अपने अस्तित्त्व की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखते हुए वह पुरुषों से भी चार कदम आगे निकल गई हैं। संकीर्णता, जात-पात, धार्मिक कट्टरता, भेदभाव, मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोड़कर महिलाओं ने देश को एक नई सोच, नया विचार प्रदान किया है।
सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक जगत में नारी के विविध स्वरूपों का न केवल बाह्य, अपितु अंतर्मन के गूढ़तम भाव- सौन्दर्यात्मक स्वरूप का भी रहस्योद्घाटन हुआ है। नारी, प्रकृति एवं ईश्वर द्वारा प्रदत्त अद्भुत ‘पवित्र साध्य’ है, जिसे महसूस करने के लिए ‘पवित्र साधन’ का होना जरूरी है। इसका न तो कोई ओर है और ना ही कोई छोर! यह तो एक विराट स्वरूप है, जिसके आगे स्वयं विधाता भी नतमस्तक होता है। नारी ही वह सौंधी मिट्टी की महक है, जो जीवन-बगिया को महकाती है और न केवल व्यक्तिगत बल्कि राष्ट्र-निर्माण एवं विकास में अपनी महत्ती भूमिका निभाती है। नारी के लिए यह कहा जाए कि यह- ‘‘विविधता में एकता है’’ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि महिलाओं के बाह्य स्वरूप, सौन्दर्य और पहनावे में विविधता तो होती है, लेकिन उनके मानस में एकाकार और केन्द्रित शक्ति ईश्वर की तरह ‘एक’ ही होती है। इसी शक्ति के इर्द-गिर्द सूर्य और अन्य ग्रहों की भाँति अनेक प्रकार के सद्गुण निरन्तर गतिमान रहते हैं। जैसे- विश्वास, प्रेम, करूणा, निष्ठा, दया, समर्पण, त्याग, बलिदान, ममता, शीतलता, स्नेह, कुशलता, कर्तव्य-परायणता, सहनशीलता, मर्यादा, समता, सृजनशीलता और सहिष्णुता इत्यादि – इत्यादि।
इन्हीं शक्तियों को सहेजकर महिलाएँ प्राचीन से लेकर अर्वाचीन भारत में जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का स्थान प्राप्त करती आई हैं। ऋग्वेद और उपनिषद् जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के आप्त वचनों से भरे पड़ें हैं। व्यक्ति से लेकर परिवार, समाज तथा राष्ट्र तक के चहुँमुखी विकास की जिम्मेदारी में पुरुषों के साथ मातृशक्ति की अपेक्षाकृत अधिक भागीदारी है। इस भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए ही उनका सशक्तीकरण जरूरी है और सशक्तीकरण के लिए उनकी शिक्षा। आज महिलाएं राजनीति, समाज सुधार, शिक्षा, पत्रकारिता, साहित्य, विज्ञान, उद्योग, व्यावसायिक प्रबन्धन, शासन- प्रशासन, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, पुलिस, सेना, कला, संगीत, खेलकूद आदि क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं। इन्हीं विविध योग्यताओं के परिणामस्वरूप महिलाओं का राष्ट्र-निर्माण और विकास में अद्भुत और अतुलनीय योगदान है।
भारतीय समाज में नारी को मातृशक्ति के पद पर प्रतिष्ठित रखा है। उसने ऐसे श्रेष्ठ मानव रत्न और समाज का निर्माण किया है, जो आज भी विश्व पटल पर अमर हैं। जब-जब उसे गृहस्वामिनी, गृहलक्ष्मी, कुलमाता के रूप में आदर दिया है, तब-तब भारत का नाम विश्व में गूंजा है। परिवार और समाज को संभालते हुए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नारी ने हमेशा से ही विजय-पताका लहराते हुए राष्ट्र-निर्माण और विकास में अपना विशेष और अभूतपूर्व योगदान दिया है। यही कारण है कि वह सृजना, अन्नपूर्णा, देवी, युगदृष्टा और युग-सृष्टा होने के साथ ही ‘‘स्वयं-सिद्धा’’ भी है।