उदयपुर, 8 सितम्बर। समुत्कर्ष समिति द्वारा मासिक विचार गोष्ठी के क्रम में ” नर सेवा-नारायण सेवा “ विषयक मासिक विचार गोष्ठी का आयोजन फतह स्कूल में किया गया। गोष्ठी में अपने विचार रखते हुए वक्ताओं ने स्पष्ट किया कि मनुष्य जीवन वही सार्थक है जो निष्काम भाव से सेवा साधना में संलग्न है l भारतीय दर्शन में सेवा भाव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, जो हमें निष्काम कर्म के लिए प्रेरित करती है। सेवा धर्म ही अध्यात्म का प्रतिफल है। परमार्थ पथ पर अग्रसर होने वाले को सेवा-धर्म अपनाना ही होता है।
विषय का प्रवर्तन करते हुए समुत्कर्ष पत्रिका के सम्पादक वैद्य रामेश्वर प्रसाद शर्मा ने बताया कि सेवा का उद्देश्य समाज को समर्थ बनाना है। व्यक्ति की कोई अपेक्षा, आकांक्षा नहीं होनी चाहिए l व्यक्ति को कुछ पाना नहीं है, केवल सेवा ही करनी है का भाव रखकर सेवाकार्य में जुट जाना चाहिए l मुझे क्या करना है, यह सोचकर सेवा नहीं करनी चाहिए पर सेवितजन की क्या आवश्यकता है, उसके अनुसार सेवा करनी चाहिए, और लक्ष्य यह रहे कि आज का सेवितजन समर्थ बन सेवा करने वाला बने।
समुत्कर्ष के परामर्शद् तरुण शर्मा ने जयपुर की मनन चतुर्वेदी और उनकी सुरमन संस्था का उद्दरण देकर अपनी बात रखते हुए कहा कि दूसरों की सेवा से हमें पुण्य मिलता है- यह सही है, पर इससे तो हमें भी संतोष और असीम शांति प्राप्त होती है। परोपकार एक ऐसी भावना है, जिससे दूसरों का तो भला होता है, खुद को भी आत्म-संतोष मिलता है। हमारा सबके साथ आत्मीयता का रिश्ता है। हम अपने आस पास के लोगों के दुख, दारिद्रय, अभाव को दूर करने के लिये प्रयास करें ।
सेवा भारती चिकित्सालय के निदेशक यशवन्त पालीवाल ने सेवा के विभिन्न आयामों का एवं हृदयस्पर्शी संस्मरणों उल्लेख करते हुए बताया कि स्वार्थहीन कर्म से शुभ प्रयोजन, आनन्द और अमरत्व पाया जा सकता है। स्वार्थहीन सेवा का प्रेम और सौंदर्य हमारे अंदर सदा रहता है, हमें केवल उसे खोज कर उजागर करना होता है। स्वार्थहीन कर्म के बिना आध्यात्मिक आचरण नहीं प्राप्त किया जा सकता। वास्तव में स्वार्थहीन सेवा उपासना का ही दूसरा रूप है। संसार में आकर सेवा भाव के साथ काम करना किसी साधना से कम नहीं है। यदि हम अपने अन्दर के छिपे शत्रुओं से छुटकारा पाना चाहते हैं, तो संसार में रहकर सेवा करने का बहुत महत्व है।
शिवशंंकर खण्डेलवाल ने अपनी अभिव्यक्ति में कहा कि जो लोग भूखे है उन्हें खाना खिलाना और जो लोग प्यासे हैं, उन्हें पानी पिलाना ही हमारा मानव धर्म है और यही हमारी मानव सेवा यानी सच्ची सेवा है। जो निर्बल है,उनकी मदद करना ही हम सबके लिए सच्ची सेवा है l हमारे कर्मों से सर्वस्व मानव समाज का भला हो। लाभ अधिक से अधिक लोगों का हो, लेकिन उसके बदले में कुछ पाने की आशा नहीं रखनी चाहिए।
बाल साहित्यकार तरुण कुमार दाधीच ने बताया कि सेवा धर्म है, मेरे जीवन से सभी का जीवन सुखी हो, निरामय हो मनुष्य की यही कल्पना होना चाहिये। यह हमारी प्राचीन परंपरा का आदेश है। अपने साथ सबको सुखी, सुरक्षित बनाना ही मानव धर्म है। यदि केवल अपने हित की चिंता की तो वह धर्म नहीं है ।
रतन लाल कलाल ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि मानव की कल्याण भावना पर ही निहित है। वास्तव में परोपकार के समान दूसरा कोई धर्म और पुण्य नहीं है। मानवता का उद्देश्य और हमारे जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम सदैव दूसरों के काम आये। हमारे व्यस्तमय जीवन में से थोडा सा समय असहाय्य लोगों के लिए खर्च करे, उनकी सेवा में बिताए, यही जीवन की सार्थकता है। सच्चा आनंद तो पाने की बजाय किसी को देने से ही उपलब्ध होता है, क्योंकि मानव सेवा की माधव सेवा है ।
समुत्कर्ष के वरिष्ठ कार्यकर्ता गोपाल लाल माली ने आभार व्यक्त किया ।
इस अवसर पर पप्पू लाल प्रजापत,पुष्कर माली, कैलाश पाटीदार, दुर्गेश मेनारिया, रितुराज चौबीसा, देवेन्द्र मेनारिया , कविता शर्मा, , विनोद सेन, राकेश शर्मा, प्रवीण, विद्यासागर, गिरीश चौबीसा आदि उपस्थित थे ।
लोकेश जोशी
94147 32617
विचार गोष्ठी संयोजक
समुत्कर्ष समिति, उदयपुर
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B-7, हिरण मगरी सेक्टर – 14, उदयपुर
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