समुत्कर्ष समिति द्वारा मासिक विचार गोष्ठी के क्रम में ‘‘जलियाँवाला बाग हत्याकांड’’ विषय पर 61 वीं समुत्कर्ष विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस दुःखान्तिका के शताब्दी वर्ष (2019) पर आयोजित गोष्ठी में वक्ताओं ने अपने विचार रखते हुए स्पष्ट किया कि 1919 में पंजाब के अमृतसर में हुआ जलियाँवाला बाग हत्याकांड जालिम अंग्रेज हुकूमत का नृशंस और अमानवीय चेहरा था। कुटिल अंग्रेजों ने भारत के हर कोने में इसी प्रकार के अवर्णनीय लोमहर्षक अत्याचार किये थे। राजस्थान के वागड़ क्षेत्र का मानगढ़ धाम और झारखण्ड का मुन्डा आन्दोलन भी इसी का प्रत्यक्ष उदहारण है।
विषय का प्रवर्तन करते हुए समुत्कर्ष पत्रिका के सम्पादक वैद्य रामेश्वर प्रसाद शर्मा ने कहा कि भारत की आजादी की आकांक्षा रखने वाले कोटि कोटि लोगो को अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित होने पर किस प्रकार के भयावह परिणाम हो सकते हैं, इसकी प्रत्यक्ष चेतावनी देने हेतु सुनियोजित रूप से ब्रिगेडियर जनरल डायर ने इस नृशंस हत्याकाण्ड को अंजाम दिया। इस शर्मनाक हत्याकाण्ड की तत्कालीन पंजाब प्रान्त के गवर्नर ओ ड्वायर ने पुष्टि करते हुए अपनी सहमति प्रदान की थी।
संचालन करते हुए संदीप आमेटा ने कहा कि जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने ब्रिटिशों के अमानवीय चेहरे को सामने ला दिया। ब्रिटिश सैनिकों ने एक लगभग बंद मैदान में हो रही जनसभा में एकत्रित निहत्थी अहिंसक भीड़ पर बगैर किसी चेतावनी के जनरल डायर के आदेश पर गोली चला दी क्योकि वे प्रतिबन्ध के बावजूद जनसभा कर रहे थे। 13 अप्रैल 1919 को यहाँ एकत्रित यह भीड़ दो राष्ट्रीय नेताओं डॉ. सत्यपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी का विरोध कर रही थी। अचानक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी जनरल डायर ने अपनी सेना को निहत्थी भीड़ पर, तितर-बितर होने का मौका दिए बगैर गोली चलाने के आदेश दे दिए और 10 मिनट तक या तब तक गोलियां चलती रहीं जब तक वे खत्म नहीं हो गयीं।
सहायक निदेशक डॉ. नरेन्द्र टांक ने बताया कि जलियाँवाला बाग में जमा लोगों की भीड़ पर कुल 1,650 राउंड गोलियां चलीं जिसमें सैंकड़ों अहिंसक सत्याग्रही शहीद हो गए, और हजारों घायल हुए। घबराहट में कई लोग बाग में बने कुंए में कूद पड़े। कुछ ही देर में जलियाँवाला बाग में बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों सहित सैकड़ों लोगों की लाशों का ढेर लग गया था। ब्रिटिश आंकड़ों के अनुसार 379 तो तत्कालीन अनाधिकृत आंकड़ों के अनुसार यहाँ 1000 से भी ज्यादा लोग मारे गए थे। इस बर्बरता ने भारत में ब्रिटिश राज की नींव हिला दी थी।
प्राध्यापक सरोज जैन ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि दुनिया के इतिहास में शायद ही 13 अप्रैल 1919 से ज्यादा काली तारीख दर्ज हो, जब एक बाग में शांतिपूर्ण तरीके से सभा कर रहे निहत्थे-निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसा दी गई थीं। वह जगह थी अमृतसर का जलियाँवाला बाग और इस अत्याचार का सबसे बड़ा गुनहगार था जनरल डायर। उस नरसंहार को आज सौ साल हो गए। हर भारतीय का मन उस त्रासदी के जख्मों से आहत है। ब्रिटिश सरकार ने लंबा वक्त लगा दिया इस घटना पर शर्मिंदगी जताने में, माफी अभी भी नहीं मांगी है। परामर्शद तरुण शर्मा ने कहा कि अंग्रेजों के रौलेट एक्ट (न वकील, न दलील और न अपील वाला काला कानून) के विरोध में लोग जलियाँवाला बाग में सभा के लिए एकत्र हुए थे।
वहां आए लोगों में अंग्रेज सरकार के प्रति गुस्सा था, फिर भी वे शांत थे और लोकतान्त्रिक तरीके से अपना मत प्रदर्शन कर रहे थे। इसी विरोध की बौखलाहट में अंग्रेज शासन ने जलियांवाला बाग में मानवता-सभ्यता की हदें पार कर दीं। इन्हीं जख्मों की टीस से भगत सिंह और शहीद ऊधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों का जन्म हुआ, जिन्होंने जंग-ए-आजादी की ज्वाला और तेज कर दी।
लोकेश जोशी