मानव के समग्र विकास में खेलों की अहम् भूमिका रही है। खेल, मनोरंजन के साधन और शारीरिक दक्षता पाने के एक माध्यम के साथ-साथ लोगों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना विकसित करने और उनके बीच के संबंधों को अच्छा बनाने में भी सहायता करते हैं। खेल मन को रमाते हैं।उत्फुल्लता का संचार करके भावनात्मक संतुष्टि प्रदान करते हैं। सामूहिक खेल बौद्धिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे आपसी-तालमेल और सूझ-बूझ विकसित होती है। सारे तनावों को भुलाकर मन जब खेल में रम जाता है तो व्यक्ति जीवन के दुःख-दर्द भूल जाता है। इस प्रकार खेल तनाव-मुक्त कर हमें मानसिक शांति भी प्रदान करते हैं।
खेलों का एक उद्देश्य संघर्षो से उबरने और उनका सामना करने की क्षमता पैदा करना भी है। ‘खेल-भावना’ जीवन में विपरीत स्थितियों का मुकाबला करने का साहस देती है। विषम परिस्थितियों में भी निराशा और उदासी उसे नहीं घेरती है। संघर्षपूर्ण और तनावों से घिरे जीवन में खेल टॉनिक का काम करते हैं। खेल हर आयु वर्ग के लिए बहुत ही लाभदायक हैं क्योंकि वे हमें समयबद्धता, धैर्य, अनुशासन, समूह में कार्य करना और लगन सिखाते हैं। खेलना हमें, आत्मविश्वास के स्तर का निर्माण करना और सुधार करना सिखाता है। यदि हम खेल का नियमित अभ्यास करें, तो हम अधिक सक्रिय और स्वस्थ रह सकते हैं। खेल गतिविधियों में शामिल होना, हमें बहुत से रोगों से सुरक्षित करने में मदद करता है। जैसे – गठिया, मोटापा, हृदय की समस्याओं, मधुमेह, आदि। राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखें तो किसी राष्ट्र की प्रतिष्ठा खेलों में उसकी उत्कृष्टता से बहुत कुछ जुड़ी होती है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलों में अच्छा प्रदर्शन केवल पदक जीतने तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह किसी राष्ट्र के स्वास्थ्य, मानसिक अवस्था एवं लक्ष्य के प्रति सजगता को भी सूचित करता है।
स्पष्ट है कि खेल हमारे स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है।स्वस्थ व्यक्ति न केवल अपना जीवन सँवारता है, बल्कि दुनिया से अन्याय, शोषण और हर बुराई से लड़ने की हिम्मत भी प्राप्त करता है।
‘सामाजिक समरसता’ का व्यापक सन्दर्भों में अर्थ है ‘सामाजिक समानता’। यदि विस्तार में जाएँ तो इसका अर्थ है – जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता का जड़मूल से उन्मूलन कर लोगों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाना तथा समाज के सभी वर्गों एवं वर्णों के मध्य एकता स्थापित करना। सृष्टि में सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है इस बात को हृदय से स्वीकार करना। पूज्यवर माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ‘श्री गुरूजी’ ने कहा था कि हिन्दू समाज के सभी घटकों में परस्पर समानता की भावना के विद्यमान रहने पर ही उनमें समरसता पनप सकेगी। दलित, उपेक्षित जैसे शब्दों का उपयोग कर समाज के एक बहुत बडे़ वर्ग की सामाजिक दशा के उल्लेख पर ‘श्री गुरूजी’ ने कहा कि समाज के पिछले कुछ वर्षों में जैसी दशा रही है उसके परिणामस्वरूप समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग व्यावहारिक शिक्षा से वंचित रह गया है। इसलिए इस उपेक्षित समाज की अर्थ – उत्पादन क्षमता भी कम हो गई है और उसे दैन्य – दारिद्रय का सामना करना पड़ रहा है।समाज में समरसता किसी विभाजन से नहीं आती अपितु उनके साथ रोटी – बेटी का संबंध रखने से आती है।
समय के साथ-साथ इन सामाजिक व्यवस्थाओं में अनेक विकृतियाँ आती गई जिसके परिणामस्वरूप अनेक कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का जन्म हुआ। इन सबके कारण जातिगत भेद-भाव, छूआछूत आदि की प्रवृति बढ़ती गई। मंदिरों में प्रवेश पर रोक, शिक्षण संस्थानों में भेदभाव, सार्वजनिक समारोहों में उनकी अनदेखी ऐसे कई कारण हैं जिसके कारण ये बन्धु उपेक्षित होते गये। जाति-भेद का दोष ही हैं जिससे समरसता का अभाव उत्पन्न होता है। जब हम जाति के आधार पर किसी व्यक्ति का अपमान करते हैं तो इससे उसकी मानसिक क्षति होती है, मन में कुंठा का भाव उत्पन्न होता है। उसकी सोच केवल अपने तक ही सीमित हो जाती है और वह अपनी इस संकुचित सोच के आवरण में अपने देश या समाज का हित नहीं सोच पाता। इस विकृति को दूर करने के लिए पिछले अनेक काल खण्डों से कई संत, ऋषि समाज-सुधारक एवं कई समाज सेवी संस्थाएँ निरन्तर कार्यरत रहती आई हैं। डा. अम्बेडकर ने इसे संवैधानिक रूप दिया जिससे समाज में समानता लाने के प्रयासों को काफी सफलता भी मिली है।
जाति भेद के संदर्भ में यहाँ एक छोटी सी घटना उल्लेखनीय है। एक ब्राह्मण देवता थे। वे छूआछूत को बहुत मानने वाले थे किन्तु उनकी पत्नी बिल्कुल विपरीत स्वभाव वाली थी। एक दिन घर पर पानी न होने के कारण पण्डिताईन ने पड़ोसी कुम्हार के घर से पानी लाकर पण्डित जी को दे दिया, पता चलने पर पण्डित बहुत क्रोधित हुए और पानी का गिलास दूर फैंक दिया। जब भोजन करने बैठे तो पण्डिताईन ने केवल रोटी परोसी, पण्डित जी ने पूछा कि सब्जी नहीं है तो उनकी पत्नी ने उत्तर दिया कि सब्जी तो फैंक दी क्योंकि सब्जी जिस हाँडी में बनी थी वो हाँडी कुम्हार के घर की बनी थी। उन्होंने जब दूध की माँग की तब भी यही उत्तर मिला। जैसे तैसे भोजन कर विश्राम के लिए चारपाई ढूँढने लगे तो पंडिताईन ने कहा वो तो मैंने तोड़ दी क्योंकि वह भी तो निम्न जाति के व्यक्ति ने बनायी थी। अब तो पण्डित जी अत्यन्त क्रोधित हुए और बोले ऐसा कर कि सारे घर को ही आग लगा दे।
इस पर पण्डिताईन ने बड़े शान्त भाव से उत्तर दिया कि मैं भी यही सोच रही हूँ क्योंकि यह घर भी तो निम्न जाति के मजदूरों द्वारा ही तो निर्मित है। इस पर पण्डित जी की आँखें खुली कि हम अपनी हर छोटी-छोटी आवश्यकता के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। यदि वे लोग यह सब कार्य न करें तो इनके अभाव में जीवन कठिन हो जायेगा। इन लोगों के साथ भेदभाव या ईर्ष्या द्वेष रखना बहुत बड़ी भूल है। इसके लिए उन्होंने पण्डिताईन जी को धन्यवाद भी दिया।
यहाँ इस कहानी का अर्थ यह लेना चाहिए कि अपने आप में प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण है। समाज के रूप में हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक दूसरे पर निर्भर है। समाज किसी एक व्यक्ति, जाति, वर्ण या समुदाय विशेष से न तो बन सकता है और न ही चल सकता है। समाज की सम्पूर्णता एवं उन्नति के लिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, वर्ण या समुदाय का हो उसका सहयोग आवश्यक है। जिस प्रकार से शरीर का प्रत्येक अंग स्वतंत्र रूप से अस्तित्वहीन है अर्थात् विभिन्न अंग सामूहिक रूप से मिलकर ही शरीर का निर्माण करते हैं। उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति अपने आप में स्वतंत्र रूप से अस्तित्वहीन है। क्योंकि विकास सामूहिकता में ही होता है। व्यक्ति के वर्ण का नहीं कर्म का महत्व है।
आज की सबसे महती आवश्यकता जाति भावना से ऊपर ऊठकर समाज को संगठित करना है। समग्र समाज को संगठित करने का कार्य लंबा जरूर है परन्तु सुदीर्घ बीमारी का यही निरापद हल भी है। आसेतु हिमाचल इस हिन्दू (भारत) भूमि पर रहने वाले सभी व्यक्तियों को सहोदर मानने की परम्परा अनादि काल से हमारे संस्कृति प्रवाह में विद्यमान है, समय इसकी पुनर्स्थापना का है –
‘‘हिन्दवः सोदरा सर्वे, न हिन्दू पवितो भवेत् !
मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्रः समानता !!’’