विचारों के अनुसार ही मनुष्य का जीवन बनता-बिगड़ता रहता है। बहुत बार देखा जाता है कि अनेक लोग बहुत समय तक लोकप्रिय रहने के बाद बदनाम हो जाया करते हैं। पहले तो उन्नति करते रहते हैं, फिर बाद में उनका पतन हो जाता है। इसका मुख्य कारण यही होता है कि जिस समय व्यक्ति की विचार-धारा शुद्ध, स्वच्छ तथा जनोपयोगी बनी रहती है और उसके कार्यों की प्रेरणा स्रोत बनी रहती है, वह लोकप्रिय बना रहता है। किन्तु जब उसकी विचार-धारा स्वार्थ, कपट अथवा छल के भावों से दूषित हो जाती है तो उसका पतन हो जाता है।
‘रचना-बचना’ वह मौलिक क्रिया है, जिसकी खबर पूर विश्व को हो गई है। तभी तो अमेरिका और यूरोप चकित हैं और पुरा साहित्य सम्पना अनुवाद कर्म में लगे हैं। साहित्य जगत के लोग इसे देख कहने लगे हैं। देखो, साहित्य वहाँ ‘बचा’ हुआ है, क्योंकि वह उसका ‘रचा’ हुआ है। ‘रचना-बचना’ सूत्रानुसार, जो जितना रचेगा, उतना बचेगा। जिस तरह रचेगा, उस तरह बचेगा। जिस भाव रचेगा, उस भाव बचेगा।
रचनात्मकता के स्रोत में थोड़ी गहराई में उतरने पर दिखता है कि विधाएँ भले अलग-अलग हों, कोई तो स्रोत है जो हर कलाकार के मन-मस्तिष्क से होकर प्रवाहित होता है और वह अक्सर एक ही स्रोत होता है, अलग-अलग बाह्य अभिव्यक्तियों के बावजूद। लता मंगेशकर जब गाती थीं तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता था कि वह कौन है जो उनके जरिए, उन्हें गा रहा है! अक्सर कोई रचनात्मक ऊर्जा कलाकार का एक माध्यम के रूप में मानो इस्तेमाल करती प्रतीत होती हैं।
टीएस एलियट ने रचनात्मकता के बारे में एक बड़ी विवादस्पद बात कह डाली कि अपरिपक्व कवि नकल करते हैं। महान कवि तो चोरी करते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा : ‘खराब कवि जो भी उठाते हैं, उसे भद्दा बना कर छोड़ देते हैं, जबकि श्रेष्ठ कवि उसे और बेहतर बना डालता है या कम से कम कुछ अलग तो बना ही देता है।’ हर व्यक्ति के अपने अनुभव होते हैं, जिन्हें वह अपने संस्कारों के आलोक में देखता-समझता है। उन अनुभवों के साथ उसका गहरा तादात्म्य भी स्थापित हो जाता है। उन्हीं अनुभवों को वह अपनी अभिव्यक्तियों में व्यक्त किए चलता है। ऐसा अचेतन या अवचेतन स्तर पर भी होता है, क्योंकि किसी रचना के लिए खुद रचनाकार को यह जान पाना मुश्किल हो सकता है कि कौन-सी रचना अतीत में हुए किस अनुभव से उपजी है। संत लेखक टोलस्टाय अपनी पत्नी के साथ भयंकर कलह में जीते रहे। अपने मशहूर उपन्यास अन्ना कैरेनिना के प्रारंभ में ही उन्होंने दुखी परिवार की दशा के बारे में लिखा है। दरअसल, द्वंद्व एक तरह की ऊर्जा पैदा करता है और किसी सृजनशील व्यक्ति में यह ऊर्जा सौंदर्यपूर्ण और प्रभावी ढंग से व्यक्त भी हो सकती है, पर उसके पीछे छिपा बैठा, बिलबिलाता, तड़पता रचनाकार दुनिया की नजर से बचा रह जाता है। निदा फाजली इसे बखूबी कहते हैं : ‘मेरी आवाज तो परदा है मेरे चेहरे का, मैं हूँ खामोश जहाँ मुझको वहां से सुनिए।’
भावनाएँ या विचार भी रचनाकार को सृजनात्मकता की दिशा में ले जाते हैं। पर विचार का महिमामंडन न करके उनकी संरचना को खंगालने की कोशिश की जानी चाहिए। गौरतलब है कि विचार भी खास किस्म के संस्कार से ही उपजते हैं। अक्सर वे स्मृतियों के प्रत्युत्तर के रूप में व्यक्त होते हैं। लेखक स्मृतियों से अपनी ऊर्जा लेता है। सुखद स्मृतियों से भी और दुखद यादों से भी। इन्हें लेकर अलग-अलग रस निर्मित करता है। क्या मृत स्मृतियाँ उत्कृष्ट, जीवंत लेखन को जन्म दे सकती हैं? इस प्रश्न को लेखक दर्शन और मनोविज्ञान के पाले में धकेल देता है।
अनवरत चलने वाले विचार के बीच का पल भर का अंतराल सृजनशीलता का एक समृद्ध स्रोत होता है। यह अंतराल बहुत कीमती होता है और संभवतः यही सृजनात्मक संवेग को जन्म देता है। उसके बाद इसकी अभिव्यक्ति तो एक तरह से यंत्रवत होती है, बाहरी माध्यमों का सहारा लेती है। प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस ने इस यांत्रिकता से बचने के लिए अपने रंग भी खुद बनाये। तो यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या अनवरत चलने वाले विचारों में कोई सृजनशीलता होती है, या फिर उनके खुद-ब-खुद थम जाने से उपजी खामोशी सृजनशील होती है। विज्ञान के क्षेत्र में आर्किमिडीज की अंतदृष्टि, जो उनके दिमाग में नहाते वक्त कौंधी थी, एक अलग तरह की रचनात्मकता की तरफ इशारा करती है, जिसकी जमीन विचारों के निरंतर प्रवाह से हट कर है। जो वैज्ञानिक निर्वस्त्र होकर अपनी खोज की घोषणा करते हुए सड़कों पर दौड़ लगा सकता है, वह परंपरागत विचारों की गिरफ्त से तो जरूर ही बाहर रहा होगा।
मन की हर बारीक से बारीक हरकत और उसकी अभिव्यक्ति पर आंखें टिकाए रखना आसान नहीं होता। सृजनात्मकता अपने आप में ही बड़ी कोमल वस्तु है, इसकी पीड़ा को समझना, इसके मार्ग पर चलना, इसे संजोए रखना, बुझने से रोकना, यह सब कुछ एक चुनौती जैसा है, खासकर आज के माहौल में जहाँ हर स्तर पर एक उठा-पटक मची हुई है। फिर भी बात यही सच है कि जो रचेगा, आखिर में वही बचेगा।
हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व