मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से लेकर अब तक याने पिछले हजार – बारह सौ वर्ष अपने इस राष्ट्र को भीषण अंधकार से गुजरना पड़ा है। व्यक्तिगत गुण संपदा को सामूहिक पुरुषार्थ का जोड़ न मिल पाने से, पारतंत्र्य आया। सामूहिक पुरुषार्थ याने राष्ट्रीय चारिंत्र्य क्षीण हो जाने से पारतंत्र्य के अंधकार का प्रदीर्घ काल रहा। राष्ट्रवादी विचारकों को यह मीमांसा मान्य थी।
”भूतकाल में भी अपने यहाँ कई धर्मनिष्ठ और सत्प्रवृत्त नेता हो चुके हैं। फिर भी गत सहस्त्रां वर्षों में हम पर संकट पर संकट छाते रहे। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि व्यक्तिगत अत्यधिक अच्छाई के कारण ही अपना राष्ट्र अनेक बार संकट में पड़ा है। पर इतिहास का यह विश्लेषण यथार्थ नहीं। इन आपत्तियों का वास्तविक कारण यह है कि व्यक्तिगत चारित्र्य जितना ही चारित्र्य का दूसरा पहलू जो राष्ट्रीय चारित्र्य का है, उसका अभाव रहा। हम केवल एकाकी व्यक्ति नहीं, संपूर्ण समाज के घटक हैं, यह ध्यान में रखकर, उस दृष्टि से भी अपने चरित्र का विचार किया जाना चाहिये। जागरूकता उसके प्रति आवश्यक है।’’
”अपनी परम्परा में विशुद्ध वैयक्तिक चारित्र्य को श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। स्वार्थ, मदिरा, मदिराक्षी और कंचन की आसक्ति में उलझे व्यक्ति को तत्त्वज्ञ की पदवी हमने कभी नहीं दी। अन्य किसी बात की अपेक्षा विशुद्ध चारित्र्य और संयम ही अपने यहां तत्त्वज्ञ पुरुष का प्रधान लक्षण माना गया है। परंतु आजकल सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों ने यह आदर्श अपने सामने नहीं रखा है। यह सर्वसाधारण मान्यता रूढ़ हो गई है कि कोई उदार हाथों से धन दे रहा हो, उत्तम भाषण कर रहा हो या किसी सार्वजनिक कार्य के लिये कारावास भुगत चुका हो तो फिर उसका व्यक्तिगत चारित्र्य कितना भी हीन क्यों न हो, वह क्षम्य माना जाय। किन्तु अपनी संस्कृति कहती है कि समाजहित रूपी ‘साध्य’ प्राप्त करने का ‘साधन’ जो व्यक्ति है, वह भी विशुद्ध और पवित्र हो। कुछ लोग कहते हैं कि साध्य ही साधन के अच्छे-बुरे होने की कसौटी होती है। आजकल लोगों में इस विचार का आकर्षण अधिक नजर आता है। अधिकतर विचार एवं विचारधाराएं इसी ओर मुड़ती हैं। इसका अर्थ यह है कि सामाजिक परिवर्तन कराने का साधन जो मनुष्य है, उसका स्थान इस विचार पद्धति में गौण है। लक्ष्य प्राप्ति के लिये होनेवाली भागदौड़ में चूँकि यह लक्ष्य राजनीतिक पुरुषों द्वारा ही निर्धारित रहता है, मनुष्य की ओर ध्यान ही नहीं रहता। परिणामतः यह दृश्य दिखायी दे रहा है कि मानव का भयंकर गति से अधःपतन हो रहा है।
अपनी संस्कृति की सीख, इससे भिन्न है। राम और शिवाजी हमारी दृष्टि से पूज्य हैं। क्रोध व्यक्ति सार्वजनिक क्षेत्र में चूँकि अच्छा कार्य कर रहा है तो उसके व्यक्तिगत चारित्र्य के मामूली दोषों पर ध्यान नहीं दिया जाना – यही नहीं तो ऐसी मामूली बाते रहें यह तो स्वाभाविक है – यह दृष्टिकोण अपने मूलभूत सिद्धान्तों के विपरीत है“। कीड़ा लगने पर वह फैलने देर नहीं लगती और दूसरी बात, साधन निकृष्ट और साध्य उत्कृष्ट इस चिंतन में ही अंगभूत दोष है।
चिंतन मनन कर अपने जीवन के ध्येय या साध्य निश्चित करें। अब इन्हें प्राप्त करने के लिये साधनों की निश्चिती की या साधनों की सहायता से अविरल प्रयत्नशील रहा जाये-यह निश्चय महत्त्वपूर्ण है। एक बार मार्ग निश्चित होने पर उस मार्ग से निर्भय वृत्ति से जाना ही शील – संपन्नता का लक्षण है।
Every thing is fair in Love A nd war इस कहावत का भी उपयोग किया जाता रहा है। सभी दल इस प्रकार भ्रष्टाचार करते हैं और इसी में स्पर्धा करने लगे तो देश में पाप का कहर हो जायेगा। इसी कारण वर्तमान में व्यक्तिगत चारित्र्य का महत्व है।’’ कुछ व्यक्ति, राजकीय दल उपयोगितावाद को ढाल कर शीलभ्रष्ट, पर कार्यक्षम व्यक्ति की सराहना करते हैं तो कुछ यह युक्तिवाद करते हैं। कार्यक्षमता के आवरण के पीछे चारित्र्य शून्यता छिपायी नहीं जा सकती। कार्यक्षम व्यक्ति अल्पकाल के लिये ही सराहा जायगा। हमारा व्यक्तिगत जीवन इतना निष्कलंक रहना चाहिये कि किसी के मन में, स्वप्न में भी हमारे बारे में शंका न उठे। हिन्दू समाज कुछ उदात्त जीवनमूल्यों की रक्षा के लिये जीवित रहा है। यह मूल्य, यह संस्कृति हमें अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है। ये मूल्य, यह संस्कृति सभी सुरक्षित रहें। इसीलिए हमें व्यक्तिगत चारित्र्य के प्रति अत्यंत सतर्क सचेत रहने चाहिये।
‘शुद्ध चारित्र्य के लिये धधकती ध्येयनिष्ठा आवश्यक है। ध्येय मार्ग पर जिद के साथ चलते रहना, यह भी व्यक्तिगत चारित्र्य का ही आविष्कार है। ”कार्य करते समय ध्येय सिद्धि पर अटूट श्रद्धा चाहिये। कोई भी व्यक्ति एक ही समय पर सहस्रों उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता। एक ही लक्ष्य सामने रखकर, उसकी प्राप्ति के लिये, अपना सब कुछ न्योछावर करना पड़ता है। श्रद्धा और विश्वास से अपने सामने रखे हुए लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये, निरंतर प्रयत्नशील रहना ही, सफलता की कुंजी है।“
”मानव का नेतृत्व करनेवाले लोगों में, साररूप में जिन गुणों की आवश्यकता है, और रामराज्य की प्रतिस्थापना की जो पूर्व पीठिका है, वह है पूर्णतया शुद्ध व्यक्तिगत जीवन, समाज के सुख-दुख में समरस होने की ममता और परिणामतः स्वयं स्वीकृत आत्मसंयमी जीवन।