इन तीन विटामिनों को लेकर जनता में एक किस्म की अनोखी जागरूकता भी है और गलतफहमियाँ भी। इन विटामिनों के बारे में पाठकों को यहाँ कुछ बता दिया जाए ताकि कम से कम, गलतफहमियाँ तो हटें। ऐसा करने से यदि साथ-साथ कुछ जागरूकता भी बढ़ जाए तब तो फिर क्या कहने!
विटामिन सी : विटामिन सी के बारे में चाचाजी हमें बचपन में समझाते थे कि हरी मिर्च में ही सबसे ज्यादा विटामिन सी होता है क्योंकि इसे खाकर आदमी सीसी सीसी करने लगता है। वे ऐसा मजाक में कहते थे या वास्तव में इसे सच मानते थे पता नहीं, परंतु उनकी इस बात को हम कई वर्षों तक सही मानते रहे। हम तो बाद में सही बात समझ गए लेकिन बहुत से लोगों का ऐसा बचपना बड़ी उम्र तक चलता रहता है। एक ऐसी ही गलतफहमी यह है कि नियमित विटामिन सी की गोली खाने से, गले और पेट के कैंसर की संभावना कम हो जाती है। यह गलत है, परंतु यह सच है कि यदि नित्य एक से दो ग्राम या इससे ज्यादा विटामिन सी अगर एक साथ ले लिया तो पेट में दर्द, दस्त और मितली हो सकती है। इसीलिए याद रहे कि जिनको पहले ही किडनी स्टोन हो चुका हो, या हो, उन्हें कभी लंबे समय तक विटामिन सी नहीं दिया जाता। नारंगी, मौसमी, संतरा (सिट्रस फल) तथा हरी सब्जियों में (खासकर ब्रोकली), टमाटर और आलू में पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी होता है। बुढ़ापे में, बहुत छोटी उम्र के बच्चों में, या जिनको पर्याप्त भोजन नहीं मिलता उनमें, और नियमित मद्यपान के शौकीनों में विटामिन सी की कमी अक्सर देखी जाती है।
विटामिन सी की कमी से क्या होगा?
आपको बहुत थकान लग सकती है। चमड़ी के नीचे खून के नीले धब्बे आ सकते है। मसूड़ों में सूजन और वहाँ से रक्तस्राव हो सकता है। वैसे तो इसकी कमी के कारण कहीं से भी ब्लीडिंग हो सकती है। और जो बच्चो में इसकी कमी हो तब तो उनकी हड्डियों के विकास पर भी इसका असर पड़ता है। विटामिन सी शरीर में एंटी-ऑक्सीडेंट गतिविधि का महत्वपूर्ण रोल अदा करता है। यह आंतों में आयरन तत्व के पाचन में भी मदद करता है। यह हमारे शरीर के पैकिंग मटेरियल को भी बनाता है। इस तरह देखें तो यह बहुत अच्छा विटामिन है पर इसे यूँ ही नियमित न लें क्योंकि आपके खाने में वैसे भी पर्याप्त विटामिन सी होता है।
विटामिन ई : कई लोग इस विटामिन को भी नियमित लेते रहते हैं। ऐसा न करें। आपके-हमारे भोजन में पर्याप्त विटामिन ई होता है। खासतौर पर सूरजमुखी के तेल में, सोयाबीन में, कॉर्न ऑयल में, फलों तथा सब्जियों में, माँस-मछली तथा नट्स में, और अनाज में भी पर्याप्त विटामिन ई मौजूद होता है। हाँ, लोगों के बीच एक भ्रम जरूर है कि नियमित विटामिन ई के कैप्सूल लेने से त्वचा की सौम्यता बढ़ जाती है या इससे हमारी उम्र लंबी हो जाएगी और सेक्स की ताकत तो ऐसी अंधाधुंध बढ़ जाएगी कि क्या कहने! ये सब भ्रम की बातें है। इनके चक्कर में इस विटामिन को फालतू में न लिया करें।
विटामिन ई की कमी
इस विटामिन की कमी केवल तब पैदा हो सकती है जब हम आंतों की बीमारी के कारण भोजन में मौजूद विटामिन ई को पचा न सकें। किसी ऑपरेशन में यदि छोटी आंत का, कोई लंबा सा टुकड़ा कभी निकालना पड़ा हो तब भी इसका पाचन नहीं हो पाता।
विटामिन ई कम हो जाए तो क्या होता है?
यदि विटामिन ई घट जाये तो हमारी नर्व और माँसपेशियां कमजोर हो जाती है। हमारा बैलेंस बनाये रखने वाली नसें बिगड़ सकती हैं। जिसके कारण हम चलने में लड़खड़ाने लग जाते हैं। इसकी कमी से हमारी आँखों की माँसपेशियों में लकवा तक हो सकता है। इसकी कमी आँख के पर्दे (रेटिना) में बीमारी पैदा कर सकती है। आँख के डॉक्टर, न्यूरोलॉजिस्ट और फिजीशियन ऐसी स्थिति में आपको विटामिन ई देते हैं, परंतु तब, कभी-कभी इसका बहुत हाई डोज भी देना पड़ता है। विटामिन ई की कमी के कारण कभी-कभी बच्चों में एक पैदाइशी बीमारी (एंबीटालाईपोप्रोटीनीमिया) भी हो सकती है।
यह एक गलतफहमी ही है कि नियमित विटामिन ई के कैप्सूल लेने से कैंसर या दिल की बीमारी की रोकथाम होती है। अभी तक तो किसी भी रिसर्च स्टडी से यह बात सिद्ध नहीं हो पाई है।
विटामिन डी : मीडिया और आपसी बातचीत में विटामिन डी की इतनी चर्चा होती रहती है कि उससे इसके विषय में जागरूकता न बढ़कर, एक किस्म का कुहासा सा ही बन गया है। पहले तो यह जानें कि विटामिन डी वास्तव में विटामिन न होकर एक हार्मोन है। जबकि विटामिन वे पदार्थ होते हैं जो हमारे शरीर में (लगभग) नहीं बनते। इन्हें हम भोजन से ही प्राप्त करते हैं। इस तथ्य के विपरीत विटामिन डी, सूर्य की अल्ट्रावॉयलेट किरणों द्वारा हमारी चमड़ी के नीचे खूब बनता है। वैसे यह हमारे कई भोज्य पदार्थों में भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद होता है। दूध, दही, पनीर, फिश, ऑयल और अंडे की पीली जर्दी में काफी मात्रा में विटामिन डी रहता है।
परंतु एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जो विटामिन डी आपकी चमड़ी के नीचे बनता है, या फिर भोजन से प्राप्त होता है, वह सक्रिय विटामिन डी नहीं होता। इसका मतलब यह है कि वह सीधा हमारे शरीर में काम नहीं आ सकता। जब तक यह विटामिन डी हमारे शरीर में अपनी सक्रिय अवस्था में परिवर्तित नहीं हो जाता तब तक यह बेकार है। तो फिर यह सक्रिय कैसे होता है? उसकी एक लंबी प्रक्रिया है। पहले यह हमारे रक्त में प्रवेश करके लीवर में पहुँचता है, फिर बाद में किडनी में पहुँचकर वहाँ फाइनली सक्रिय विटामिन डी बन पाता है। जब तक यह न बने, विटामिन डी काम नहीं करता। इसलिए, लीवर तथा किडनी के रोगियों में विटामिन डी की कमी हो जाती है। ऐसी दवाइयाँ भी जो लीवर में जाकर विटामिन डी का सक्रिय होना रोकती हैं (जैसे कि मिर्गी के दौरे में इस्तेमाल होने वाली बार्बीचुरेट और एप्टोइन नाम की दवाई) विटामिन डी की कमी पैदा कर देंगी।
विटामिन डी का काम क्या है?
सक्रिय विटामिन डी हमारी आँतों पर, हड्डियों में, पैराथायराइड ग्लैंड पर, चमड़ी और बालों के सेल्स पर, प्रोस्टेट कैंसर और ब्रेस्ट कैंसर के सेल पर भी असर करता है। इन सभी सेल्स में विटामिन डी रिसेप्टर बने होते है। विटामिन डी इन रिसेप्टरों पर चिपक जाता है और फिर अंदर घुसकर जैसा उस अंग का काम हो, उसी के अनुसार वहां काम करता है। आँतों में इसका काम भोजन के कैल्शियम को पचाने में मदद करना है। हड्डी में इसका काम उसे मजबूती देना है। विटामिन डी पैराथाँयराइड के सेल्स को बढ़ने से रोकता है। इसकी कमी से यूँ बाल तो नहीं झड़ते परंतु यह कहीं ना कहीं, चमड़ी और बालों के स्वास्थ्य में भी जरूर मदद करता है।
विटामिन डी की कमी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण तथ्य
हिंदुस्तान में जब सब तरफ इतनी धूप है, फिर भी यहाँ विटामिन डी की कमी वाले इतने मरीज आखिर क्यों हैं? इसका कारण समझिए। हम भारतीयों की चमड़ी में रंग पैदा करने वाले मेलेनिन सेल ज्यादा होते है। तभी हम गहरे रंग के लोग हैं। इसी कारण, अल्ट्रावाँयलेट किरणें इतनी आसानी से हमारी चमड़ी में प्रवेश नहीं कर पातीं। वहीं दूसरी तरफ कई लोग खासकर लड़कियाँ धूप से बचने के लिए सनस्क्रीन लोशन का इस्तेमाल करती हैं। नतीजतन इनमें विटामिन डी की कमी होने की आशंका बढ़ जाती है। यह तो हुआ एक कारण। दूसरा कारण यह भी है कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे विटामिन डी का बनना और उसका पचना दोनों कम होते जाते हैं। कुछ दवाइयाँ भी लीवर में विटामिन डी को सक्रिय होने से रोकती हैं। फिर गुर्दे की बीमारियों (जैसे कि नेफ्रोटिक सिंड्रोम इत्यादि) में भी शरीर में विटामिन डी की कमी हो जाती है। यदि लीवर या आंतों की किसी बीमारी के कारण भोजन में मौजूद वसा (फैट) पच न पाए तो साथ-साथ विटामिन डी भी नहीं पच पाता क्योंकि विटामिन डी एक फैट सोल्यूबल विटामिन है।
विटामिन डी कम होने पर क्या-क्या बीमारियां हो सकती हैं?
अगर विटामिन डी की थोड़ी सी ही कमी हो तो प्रायः इससे कोई विशेष तकलीफ नहीं होती और ऐसे में, यूँ ही रुटीन में किए किसी टेस्ट में यदि विटामिन डी की कमी निकल आए तो आपको हैरानी भी सकती है। हाँ, लेकिन इसकी यही कमी और ज्यादा बढ़ जाती है तब जरूर हड्डियों में दर्द, हड्डियों का कमजोर होना, पैरों और हाथों की माँसपेशियों का कमजोर होना, खासकर जाँघ और बाहों की मसल्स में ताकत का कम होना, यह सब हो सकता है। कभी तो हड्डियाँ इतनी कमजोर तक हो जाती हैं कि फिर एक मामूली सी चोट में भी हमें फ्रैक्चर हो सकता है। कई बार तो पता भी नहीं चलता और रीढ़ की हड्डियों में कई जगह फ्रैक्चर हो जाते हैं। विटामिन डी की कमी यदि बच्चों में हो तो रिकेट्स नाम की बीमारी पैदा हो जाती है। बड़ों में आस्टियोमेलेसिया और आस्टियोपोरोसिस हो सकता है। ये दोनों ही बीमारियों में मूल मुद्दा हड्डियों के कमजोर हो जाने का होता है।
विटामिन डी की कमी से आखिर बचें कैसे और कमी हो ही जाए तो फिर क्या करें?
सप्ताह में कम से कम तीन दिन धूप (हो सके तो दोपहर दो से तीन बजे के बीच) में, 10 से 15 मिनट तक पीठ, बाहें, गर्दन, तथा चेहरा उघाड़कर बैठें या लेटें। सनस्क्रीन लोशन के नियमित इस्तेमाल से बचें। दूध, दही, पनीर, इत्यादि का सेवन नियमित करें।
थकान बहुत लगती हो, जमीन पर बैठ जाएँ तो खड़े होने में कमर तथा जाँघों में कमजोरी लगती हो, हड्डियों और माँसपेशियों में बहुत दर्द होता हो तो खून की जाँच द्वारा विटामिन डी जरूर चेक कराएँ। यदि विटामिन डी का स्तर सामान्य से कम निकले तो किसी अच्छे डॉक्टर की सलाह से नियमित विटामिन डी, कैल्शियम और अन्य दवाइयाँ लें।