हमारे प्राचीन वांग्मय और वेदों में प्राणीमात्र के समुत्कर्ष की कामना की गई है। भारतीय संस्कृति में वे सभी तत्व विद्यमान हैं जो विश्व बंधुत्व का संदेश देते हैं। विश्व बंधुत्व की भावना, करुणा, प्रेम और भ्रातृत्व ही वैश्विक मानव अधिकारों की सुरक्षा की कुंजी है। इन्हीं मानवीय गुणों से सुसंस्कृत मानव का विकास होगा और गरीबी, जाति, धर्म, ऊँच-नीच तथा अन्य आधारों पर होने वाले मानव अधिकार हनन प्रभावी रूप से रोका जा सकेगा। विभिन्न धर्मों को मानने, विभिन्न भाषाओं को बोलने और विभिन्न क्षेत्रों में रहने के बावजूद सभी एक हैं। सभी मत-पंथ श्रेष्ठ हैं। उनकी अवधारणाओं, विचारधाराओं तथा उपासना पद्धतियों में अंतर हो सकता है लेकिन उनकी मूल भावनाएं समान हैं। आज जरूरत सभी मत-पंथों को एक-दूसरे के करीब लाने की है। सिर्फ पैसा और भौतिक समृद्धि जीवन में सुख और मन की शांति नहीं दे सकते हैं। केवल इससे ही ज्ञान नहीं मिलता। मन की शांति और सुख प्राप्ति के लिये मनुष्य को आध्यात्मिकता के साथ मानव मूल्यों को आत्मसात करना होगा। भारतवर्ष की विशेषता यह है कि इसने सभी मत-पंथों की विचारधाराओं और दर्शन को आत्मसात किया है। भारतीय संस्कृति सर्वांगीणता व ग्रहणशीलता से परिपूर्ण है। इसमें सहिष्णुता व समन्वय का भाव सर्वोपरि है।
संगच्छध्वं संवदध्वं, सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे, सञ्जानाना उपासते ।।
अर्थात् इकट्ठे चलें, एक जैसा बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो जावें- यह भावना प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसलिए यहां राजा और रंक, धनवान और संत सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यहां के तत्व चिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के मानव मात्र अर्थात् प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की है। वो चाहे किसी रंग-रूप का हो, किसी बोली-भाषा का हो, किसी वेशभूषा का हो, किसी वर्ण-गोत्र का हो, किसी देश-विदेश का हो, मनुष्य तो मनुष्य ही है। एक ही जाति का प्राणी है। सारी मनुष्य जाति को जोड़े रखने में, संग्रह करने में, सचमुच उत्तम मंगल ही समाया हुआ है।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता बहुत मूल्यवान है जो सृजनशीलता के विकास के लिये अनिवार्य है। इसके बिना कोई भी समाज या समुदाय रचनात्मक और सृजनशील नहीं हो सकता। भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता है और इसीलिये यहां सृजनशीलता और लोकतंत्र बहुत सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं। भारत अकेला ऐसा देश है जहां सदा से पूरे विश्व को एक परिवार माना गया है। अहिंसा का संदेश यहीं से उपजा और महात्मा गाँधी ने इसे सफलतापूर्वक अपनाया।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ एक व्यापक मानव-मूल्य है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि में समाहित है। यह वैयक्तिक मूल्य भी है और सामाजिक मूल्य भी, राष्ट्रीय मूल्य भी है और अंतर्राष्ट्रीय मूल्य भी, राजनीतिक मूल्य भी है और नैतिक मूल्य भी, धार्मिक है और प्रगतिशील मूल्य भी और यदि इन सबका एक शब्द में समाहार करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि यह मानवीय मूल्य है। इस मूल्य को सच्चे मन से अपनाए बिना मानवता अधूरी है, मनुष्य अधूरा है, धर्म और संस्कृति अधूरे हैं तथा राष्ट्र और विश्व भी अधूरा और पंगु है।
यह मनुष्य की, मानव समाज की, राष्ट्र की अनिवार्यता है। यदि हम विश्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमें विश्वबंधुत्व की भावना को आत्मसात करना ही होगा।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सूत्र द्वारा भारतीय मनीषियों ने जिस उदार मानवतावाद का सूत्रपात किया उसमें सार्वभौमिक कल्याण की भावना है। यह देश-कालातीत अवधारणा है और पारस्परिक सद्भाव, अन्तः विश्वास एवं एकात्मवाद पर टिकी है। ‘स्व’ और ‘पर’ के बीच की खाई को पाटकर यह अवधारणा ‘स्व’ का ‘पर’ तक विस्तार कर उनमें अभेद की स्थापना का स्तुत्य प्रयास करती है। आवश्यकता है हमें इसे पहचान कर तादात्मिकरण करने की…